सत्य हमेशा महान होता है। संसार में सत्य के समान तपस्या या ज्ञान नहीं। उसी प्रकार झूठ या मिथ्या के बराबर पाप या बुरा काम नहीं। कारण बुराकाम करना पाप है। जिसके हृदय में सत्य का निवास है अर्थात् जो हमेशा सच बोलता है, उसका हृदय निर्मल है । पाप रहित है। उसके निर्मल हृदय में भगवान विराजमान करते हैं। अर्थात् सत्यवादी को भगवान के दर्शन मिलते हैं। वे महान होते हैं, तत्त्व दर्शी होते हैं। समाज सत्यवादी का आदर करता है, पापी का अनादर करता है।
यह सत्य है, प्रमाणित है कि अच्छे काम करने वालों को अच्छा फल मिलता है और बुरे काम करनेवाले को बुरा फल मिलता है। अर्थात् सभी को कर्म के अनुसार फल भुगतना पड़ता है। जैसी करनी वैसी भरनी। कबीर के कहने का अर्थ है कि जो तेरे रास्ते में काँटा बोता है अर्थात् जो तेरी बुराई करता है, तुम उसके रास्ते पर फूल बिछा दो अर्थात् तुम उसकी भलाई करो। इसका नतीजा यही होगा कि तुम्हारी अच्छाई से उन्हें अच्छा फल मिलेगा। उसकी बुराई के लिए उसको बुरा फल मिलेगा। मतलब हुआ कि अच्छा काम करो और अच्छा फल पाओ।
लै दिन प्रति हानि होत गोरस की, यह ढोटा कौन रंग लायो।
सूरदास कहति ब्रजनारि, पूत अनोखो जायो।”
बालक-कृष्ण की दधि-चोरी की लीला का वर्णन है। ब्रजभूमि की एक ग्वालिन माता यशोदा से शिकायत करती है कि तेरे लड़के ने हमारा माखन खा लिया। दोपहर को घर सूना देखकर, खोज-खोजकर तेरा बेटा मेरे घर में घुस गया। उसने सूने घर का किवाड़ खोल दिया और घर में जो कुछ दूध-दही-माखन रखा था, सब के सब साथियों को खिला दिया। खाट पर चढ़कर उसने छींके पर रखे हुए दही को खा लिया और कुछ गिरा दिया। इस प्रकार हर दिन दूध, दही, माखन का नुकसान होता है। पता नहीं, यह लड़का कौन सा रंग या ढंग लाया है? तुमने तो एक अनोखे लड़के को जन्म दिया है।
इस कविता में मनुष्य को महान बनने की प्रेरणा दी गई है। कवि कहते हैं जिसने इस धरा पर जन्म लिया है, एक न एक दिन अवश्य मरेगा। इसलिए हमें कभी मृत्यु से नहीं डरना चाहिए। हम ऐसे मरे कि मरने के बाद भी अमर हो जाएँ। यदि हम जीवन भर सत्कर्म नहीं करेंगे तो हमें अच्छी मृत्यु नहीं मिलेगी अर्थात् मरने के बाद कोई याद नहीं रखेगा। जो व्यक्ति दूसरों के काम आता है वह कभी मरता नहीं है। क्योंकि वह कभी भी अपने लिए नहीं जीता है। पशु जिस प्रकार अपने आप मरते रहते हैं उसी तरह की प्रवृत्ति मनुष्य में भी कई बार दिखाई देती है जो ठीक नहीं है। मनुष्य को तो मनुष्य की मदद करने में प्राण दे देना चाहिए।
संपत्ति के लोभ में पड़कर हमें गर्व से नहीं इठलाना चाहिए। कुछ अपने और परिवार आदि लोगों को देखकर भी अपने को बलवान नहीं मानना चाहिए क्योंकि इस संसार में कोई भी अनाथ या गरीब नहीं होता। यहाँ कोई भी अनाथ नहीं हो सकता क्योंकि ईश्वर जो तीनों लोकों के नाथ हैं, वे सदा सबके साथ रहते हैं। क्योंकि ईश्वर दीनबंधु हैं। गरीबों पर दया करने वाले भी हैं परम दयालु हैं। विशाल हाथ वाले हैं अर्थात् वे सबकी मदद करने के लिए सदा तत्पर रहते हैं। जो अधीर होकर अहंकारी बन जाते हैं वे तो सच में भाग्यहीन हैं। मनुष्य तो वही है जो मनुष्य की सेवा करे और उसके लिए मरे। मनुष्य के लिए प्रत्येक मनुष्य बंधु है, परम मित्र है। इसे हमे समझना होगा। यही हमारा विवेक है एक ही भगवान हम सब के पिता हैं। वे पुरातन प्रसिद्ध पुरुष हैं। वे ईश्वर हैं। यह तो सत्य है कि हमें अपने कर्मों के अनुरूप फल भोगना होता है। इसलिए बाहरी तौर पर हम भले ही अलग अलग दिखाई देते हैं पर अंदर से एक हैं। हम में अन्तर की एकता है। वेद ऐसा ही कहते हैं। समाज में अनर्थ तब होता है जब मनुष्य दूसरे को अपना बंधु नहीं मानता है। मनुष्य को ही मनुष्य की पीड़ा को दूर करना होगा। इसलिए सही माईने में मनुष्य वह है जो मनुष्य के लिए मरता है।
बालक कृष्ण घर के आंगन में अकेले खेल रहे हैं? उनका यह खेल सबके मन को मोह लेता है । यह वर्णन बहुत ही हृदयग्राही है ।
भगवान कृष्ण अपने आप कुछ गा रहे हैं। वे गाते-गाते नन्हें चरणों से नाचते भी हैं और मन मगन भी हो रहे हैं। कभी वे हाथ उठाकर काली एवं सफेद गायों को बुलाते हैं, तो कभी नंद बाबा को पुकारते हैं। वे कभी घर के भीतर चले जाते हैं। घर में जाकर थोड़ा मक्खन हाथ में लेकर खाते हैं, और थोड़ा सा मुँह में लगा लेते हैं। कभी खंभे में अपना प्रतिबिंब देखकर उसे माखन खिलाते हैं। माता यशोदा दूर से ही खड़ी होकर यह लीला देख रही हैं और आनंदित हो रही हैं। सूरदास कह रहे हैं कि कन्हैया की यह बाललीला रोज-रोज देखने पर भी प्यारी लगती है। इससे मन तृप्त नहीं होता।
यह एक छोटी सी कविता है पर है बड़े काम की। छोटी छोटी चीजें ही हमारे जीवन को एकदम बदल देती हैं। मनुष्य को अपने पर बड़ा गर्व होता है । कवि कहते हैं वे एक दिन घमण्ड में भरकर एकदम ऐंठे हुए से तन कर छत के मुँडेर पर खड़े थे। ऐसे में कहीं दूर से एक छोटा-सा तिनका आकर उनकी आँखों में गिरा।
कवि झुंझलाकर परेशान हो उठे। आँख जल रही थी और लाल होकर दुखने भी लगी। लेखक की ऐसी हालत देखकर लोग कपड़े की मुँठ देकर उनकी आँख को सेकने लगे कि शायद थोड़ा आराम मिल जाए पर नहीं। दर्द किसी तरह कम नहीं हुआ। ऐसे में कवि को ऐंठ (घमण्ड) मानों चुपचाप भाग गई थी। वे तो किसी भी तरह उस पीड़ा से छुटकारा पाना चाहते थे।
जब किसी तरह आँख से तिनका निकला तो मानो उनका विवेक उन्हें ताना मार रहा था। तू इतना अकड़ क्यों दिखाता है। एक छोटा-सा तिनका ही तेरे अहंकार को तोड़ने में काफी है।
बच्चे दिन-ब-दिन बढ़ते हैं। इसलिए उनकी पोशाक बड़ी साइज की बना ली जाती है। लेकिन चाँद घटता-घटता अमावस के दिन दिखाई नहीं देता। वह चाहता है कि उसके लिए एक झिंगोला या कुर्ता सिलवा दिया जाय। माँ पूछती है, बेटा, किस नापका बनाया जाय? जिसे तू रोज-रोज पहन सके? इसमें एक मजाक और व्यंग्य है। सदा अस्थिर के लिए कुछ नहीं किया जा सकता।
चाँद का झिंगोला
हठ कर बैठा चाँद एक दिन, माता से वह बोला,
“सिलवा दो माँ, मुझे ऊन का, मोटा एक झिंगोला।
सन-सन चलती हवा रात भर, जाड़े से मरता हूँ,
ठिठुर-ठिठुर कर किसी तरह, यात्रा पूरी करता हूँ।
आसमान का सफर और यह, मौसम है जाड़े का"
न हो अगर तो ला दो कुरता ही कोई भाड़े का।"
बच्चे की सुन बात कहा माता ने, "अरे सलोने!
कुशल करे भगवान, लगें मत, तुझको जादू-टोने जाड़े की तो बात ठीक है,
पर मैं तो डरती हूँ, एक नाप में कभी नहीं, तुझको देखा करती हूँ।
स्वामी विवेकानन्द भारत माता के विरल सुपुत्र थे। उन्होंने अपनी प्रचंड प्रतिभा, गंभीर ज्ञान और असाधारण वाक्शक्ति द्वारा विदेशों में भारतीय दर्शन, वेद-वेदांत का महत्त्व प्रमाणित किया। स्वामीजी ने अमेरीका और इंग्लैंड के विद्वानों को समझा दिया कि हिंदू धर्म सहनशील और मानवीय है। उसमें संकीर्णता या कट्टरता नहीं है। उन्होंने देश के लोगों को भी जगाया, सेवा का कार्य किया। कराया भी। देश का नाम उजागर किया। वे संन्यासी थे। सदा के लिए नमस्य भी।
स्वामीजी ने भारतीयों को सुखभोग त्यागकर सादा-सीधा जीवन बीताने को कहा। सदा कर्म-तत्पर रहने, निराशा और आलस्य को छोड़ने को उत्साहित किया। सदैव जाग्रत रहने के लिए अपने भाषण में आह्वान किया था। भारत हमारा सिरमौर है। इसे भारतीय को भूलना नहीं चाहिए। स्वामीजी ने अमेरीका और इंग्लैंण्ड जैसे समृद्धिशाली देशों में जाकर भारतीय ज्ञान का दार्शनिक विचारों का अपने वक्तव्य के जरिये प्रचार प्रसार किया।
रामकृष्ण परमहंस के वे उपयुक्त शिष्य थे। आज देश भर में तथा विदेशों में इनकी अनेक संस्थाएँ भारतीय संस्कृति और दर्शन के प्रचार-प्रसार में लगी हैं। देश विदेश में भारत के नाम को रोशन करने वाला संन्यासी और कोई नहीं स्वामी विवेकानंद ही हैं, जिनका स्मरण आज देश-विदेशों में लोग कर रहे हैं।
देशप्रेमी संन्यासी
हम देखते हैं कि कुछ लोग धन कमाने में जुटे रहते हैं। कुछ भोगने को व्याकुल रहते हैं। कुछ ऐसे हैं जिनको संन्यासी कहते हैं। वे लोग अपनी इच्छा से घरबार छोड़ देते हैं। सुख के साधनों का त्याग कर देते हैं। गरीबी में जीते हैं। संसार को माया का जंजाल समझते हैं। पर आश्चर्य है कि ऐसे लोगों में कुछ अपनी मातृभूमि से बेहद प्यार करते हैं। एक ऐसे संन्यासी थे स्वामी विवेकानन्द। देखने में बहुत सुन्दर। बड़े ज्ञानी और पंडित। सरल, विनयी और मिष्टभाषी। लेकिन प्रचण्ड प्रतिभाशाली।
सालों पहले की बात है। भारत पराधीन था। यहाँ अंग्रेजों का शासन चलता था। 1857 में लोग एक बार कोशिश करके पराजित हो गए थे। निराशा, आलस्य और कर्महीनता में डुबे हुए थे। ऐसे समय स्वामीजी ने अपने देशवासियों को ललकारा।
“मेरे प्यारे देशवासियों! उठो, जागो। जीवन का वरदान स्वतन्त्रता है। उसे प्राप्त करो। गर्व से कहो कि मैं भारतीय हूँ! हर भारतीय मेरा भाई है। भारत मेरा जीवन है मेरा प्राण है। भारत के देवता मेरा भरणपोषण करते हैं। भारत मेरे बचपन का हिंडोला है, मेरे यौवन का आनन्द लोक है और मेरे बुढ़ापे का बैकुंठ है।”
एक बार स्वामीजी अमेरीका गए। वहाँ बड़ी धर्मसभा हो रही थी। उन्होंने बड़ी मर्मस्पर्शी वाणी में भारत के धर्म, आचार-विचार, ऋषि-मुनियों के चिंतन, आध्यात्मिक दृष्टिकोण का महत्व प्रतिपादित किया। अपने सुंदर, सरल, अर्थपूर्ण अंग्रेजी भाषण द्वारा स्वामीजी ने सबके दिलों को अभिभूत कर दिया ।
स्वामीजी एक साल इंग्लैंण्ड में रहे। वहाँ भारत के मालिक अंग्रेज विद्वानों को अपनी विद्वत्ता से प्रभावित किया। वे भी मान गए कि भारत में गरीबी भले ही हो, लेकिन वह ऊँचे विचारों और चिंतन के धनी है, अगुवा है।
स्वामीजी ने अपने असंख्य अनुयायियों को मानव-सेवा, ज्ञान तथा धर्म-प्रचार में लगाया। रामकृष्ण परमहंस उनके गुरु थे। उन्हीं के नाम से रामकृष्ण मिशन बनाया विदेश में उनकी अनेक संस्थाएँ जनता की सेवा में डटी हुई हैं। आज भी देश देश-विदेशों में भारत के नाम को रोशन करनेवाला स्वामी जी जैसा दूसरा कोई नहीं दिखाई देता। देश को आजाद करने में, उसे सदा जाग्रत रखने में ऐसे संन्यासियों का बड़ा योगदान रहा।
चिड़ियाँ अपने नीड़ या घोंसले को बार-बार बनाती हैं। ऐसे मनुष्य भी नये-नये घरों का निर्माण बराबर करते रहते हैं। रहने के लिए वे उनको बनाते हैं, क्योंकि उनमें अपने बच्चों और परिवार के दूसरे लोगों के प्रति स्नेह भाव होता है। प्राणी की यह जीने की इच्छा अदम्य है। इसलिए नीड़ या घर बार-बार टूटने पर भी पक्षी और नर-नारी उसे बनाते रहते हैं।
छोटे लोगों का जीवन, छोटी चिड़िया का नीड़, आँधी तूफान में, अंधेरे में, धूल की आँधी में घिर जाता है। अर्थात् पृथ्वी पर बार-बार विपत्तियाँ आती हैं। कभी विपत्ति भयानक होती है तो दिन में रात सा अंधेरा हो जाता है। रात भी घन अंधकार में डूब जाती है। लगता है कि क्या सवेरा नही होगा? सब के सब भीतत्रस्त हो जाते हैं। इतने में पूर्व दिशा से हँसती हुई उषा-रानी आ जाती है। भयंकर दुःख से सुख की यह किरण नये जीवन के लिए प्रेरणा देती है। यह स्नेह और प्रेम का आह्वान है। जब बड़े तूफान से पृथ्वी काँप उठती है, बड़े बड़े पेड़ उखड़ जाते हैं, उनकी डाल पर घोंसले कहाँ उड़कर टूट बिखर जाते है और तो और, बड़े बड़े मकान जो ईंट पत्थर से बने होते हैं, बड़े मजबूत होते हैं वे भी ढह जाते हैं। उस वक्त एक छोटी सी चिड़िया नये जीवन की आशा लेकर आसमान पर चढ़ जाती है। वह विपत्ति से डरती नहीं। चाहे जो हो, नीड़ का निर्माण फिर करेगी। कुछ मनुष्य भी ऐसे ही उत्साही होते हैं। आकाश के बड़े बड़े भयानक दाँतों (वज्रपात, आँधी, तूफान, घने बादल आदि) से उषा मुस्कुराती है। जब बादल गरजते हैं तब चिड़ियाँ चहचहाती भी हैं। तेज हवा के भीतर चिड़िया चोंच में तिनका लेकर उड़ जाती है। वह उनचास पवन (बड़ी तेज हवा) की भी परवाह नहीं करती।
नाश से दु:ख तो होता है। लेकिन उसको निर्माण या सृजन का सुख दबा देता है। नीचा दिखा देता है। प्रलय होता है। उसके चारों ओर सन्नाटा छा जाता है। लेकिन फिर से नयी सृष्टि के गीत भी बार बार गाये जाते हैं। प्राणी मरता नहीं, बार बार जीता है। इसी जीने को जीवन कहते हैं।
इस कविता में कवि अपने साथी को दुःख से न डरने की सलाह देता है। न डरने से दु:ख भी सुख बन जाता है। मानव-जीवन में दुःख ज्यादा होता है। सुख बहुत कम। तो फिर दु:ख से डरने से, रोने-चीखने से दु:ख दूर नहीं होता। दुःख से लड़ना सही रास्ता है। दु:ख के बाद सुख आएगा। ज़रूर आएगा, क्योंकि दुःख सर्वदा नहीं रह सकता। दुःख भोगते हुए कोई मर जाय तो भी कोई डर नहीं। डरने से वह दुःख से बच तो नहीं सकता न! जीवन में दुःख होने के कारण हम सब कर्मतत्पर बने रहते हैं। दुःख पर विजय प्राप्त करने की चेष्टा करते हैं। जिस प्रकार जलती आग में जलने के कारण लोहे में कालिमा की जगह लालिमा आ जाती है, उसी प्रकार मानव-जीवन में दु:ख रूपी संघर्ष के कारण व्यक्तित्व का उत्कर्ष प्रतिपादित होता है। इसलिए कवि 'नीरज' का यह संदेश है कि दुःख को बुरी चीज़ न मानकर मुक्ति का मार्ग मानना चाहिए।
साथी! दुःख से घबराता है?
दुःख ही कठिन मुक्ति का बंधन,
दुःख ही प्रबल परीक्षा का क्षण,
दु:ख से हार गया जो मानव, वह क्या मानव कहलाता है?
साथी! दु:ख से घबराता है?
जीवन के लम्बे पथ पर जब
सुख दुःख चलते साथ-साथ तब
सुख पीछे रह जाया करता दुःख ही मंजिल तक जाता है।
साथी! दुःख से घबराता है?
दुःख जीवन में करता हलचल,
वह मन की दुर्बलता केवल,
दुःख को यदि मान न तू तो दुःख सुख बन जाता है।
साथी! दुःख से घबराता है
पथ में शूल बिछे तो क्या चल
पथ में आग जली तो क्या जल
जलती ज्वाला में जलकर ही लोहा लाल निकल आता है।
साथी! दु:ख से घबराता है?
धन्यवाद दो उसको जिसने
दिए तुझे दुःख के तो सपने,
एक समय है जब सुख ही क्या! दुःख भी साथ न दे पाता है।