शुक्रवार, 17 दिसंबर 2021

हरि अपने आँगन कछु गावत | सूरदास के पद | SUR KE PAD

सूरदास के पद 


हरि अपने आँगन कछु गावत।

तनक-तनक चरनन सौं नाचत, मनहिं मनहिं रिझावत।।

बाँह उचाइ काजरी-धौरी, गैयनि टेरि बुलावत।

कबहुँक बाबा नंद पुकारत, कबहुँक घर मैं आवत।।

माखन तनक आपने कर लै, तनक-बदन मैं नावत।

कबहुँ चितै प्रतिबिम्ब खंभ मैं, लौनी लिए खबावत।।

दुरि देखति जसुमति यह लीला, हरष आनंद बढ़ावत।

सूर स्याम के बाल-चरित ये, नित देखत मन भावत।।

बालक कृष्ण घर के आंगन में अकेले खेल रहे हैं? उनका यह खेल सबके मन को मोह लेता है । यह वर्णन बहुत ही हृदयग्राही है ।

भगवान कृष्ण अपने आप कुछ गा रहे हैं। वे गाते-गाते नन्हें चरणों से नाचते भी हैं और मन मगन भी हो रहे हैं। कभी वे हाथ उठाकर काली एवं सफेद गायों को बुलाते हैं, तो कभी नंद बाबा को पुकारते हैं। वे कभी घर के भीतर चले जाते हैं। घर में जाकर थोड़ा मक्खन हाथ में लेकर खाते हैं, और थोड़ा सा मुँह में लगा लेते हैं। कभी खंभे में अपना प्रतिबिंब देखकर उसे माखन खिलाते हैं। माता यशोदा दूर से ही खड़ी होकर यह लीला देख रही हैं और आनंदित हो रही हैं। सूरदास कह रहे हैं कि कन्हैया की यह बाललीला रोज-रोज देखने पर भी प्यारी लगती है। इससे मन तृप्त नहीं होता।

एक तिनका | अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' | AYODHYA PRASAD UPADHYAY

एक तिनका 
 अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' 


यह एक छोटी सी कविता है पर है बड़े काम की। छोटी छोटी चीजें ही हमारे जीवन को एकदम बदल देती हैं। मनुष्य को अपने पर बड़ा गर्व होता है । कवि कहते हैं वे एक दिन घमण्ड में भरकर एकदम ऐंठे हुए से तन कर छत के मुँडेर पर खड़े थे। ऐसे में कहीं दूर से एक छोटा-सा तिनका आकर उनकी आँखों में गिरा।

कवि झुंझलाकर परेशान हो उठे। आँख जल रही थी और लाल होकर दुखने भी लगी। लेखक की ऐसी हालत देखकर लोग कपड़े की मुँठ देकर उनकी आँख को सेकने लगे कि शायद थोड़ा आराम मिल जाए पर नहीं। दर्द किसी तरह कम नहीं हुआ। ऐसे में कवि को ऐंठ (घमण्ड) मानों चुपचाप भाग गई थी। वे तो किसी भी तरह उस पीड़ा से छुटकारा पाना चाहते थे।

जब किसी तरह आँख से तिनका निकला तो मानो उनका विवेक उन्हें ताना मार रहा था। तू इतना अकड़ क्यों दिखाता है। एक छोटा-सा तिनका ही तेरे अहंकार को तोड़ने में काफी है।


एक तिनका

मैं घमंडों में भरा ऐंठा हुआ,

एक दिन जब था मुंडेरे पर खड़ा।

आ अचानक दूर से उड़ता हुआ,

एक तिनका आँख में मेरी पड़ा।



मैं झिझक उठा हुआ बेचैन-सा,

लाल होकर आँख भी दुखने लगी।

मूँठ देने लोग कपड़े की लगे,

ऐंठ बेचारी दबे पाँवों भागी।



जब किसी ढब से निकल तिनका गया,

तब 'समझ' ने यो मुझे ताने दिए।

ऐंठता तू किसलिए इतना रहा,

एक तिनका है बहुत तेरे लिए।

गुरुवार, 16 दिसंबर 2021

चाँद का झिंगोला | रामधारी सिंह 'दिनकर' | RAMDHARI SINGH DINKAR

चाँद का झिंगोला  
रामधारी सिंह 'दिनकर' 

बच्चे दिन-ब-दिन बढ़ते हैं। इसलिए उनकी पोशाक बड़ी साइज की बना ली जाती है। लेकिन चाँद घटता-घटता अमावस के दिन दिखाई नहीं देता। वह चाहता है कि उसके लिए एक झिंगोला या कुर्ता सिलवा दिया जाय। माँ पूछती है, बेटा, किस नापका बनाया जाय? जिसे तू रोज-रोज पहन सके? इसमें एक मजाक और व्यंग्य है। सदा अस्थिर के लिए कुछ नहीं किया जा सकता।

चाँद का झिंगोला

हठ कर बैठा चाँद एक दिन, माता से वह बोला,

“सिलवा दो माँ, मुझे ऊन का, मोटा एक झिंगोला।

सन-सन चलती हवा रात भर, जाड़े से मरता हूँ,

ठिठुर-ठिठुर कर किसी तरह, यात्रा पूरी करता हूँ।

आसमान का सफर और यह, मौसम है जाड़े का"

न हो अगर तो ला दो कुरता ही कोई भाड़े का।"

बच्चे की सुन बात कहा माता ने, "अरे सलोने!

कुशल करे भगवान, लगें मत, तुझको जादू-टोने जाड़े की तो बात ठीक है,

पर मैं तो डरती हूँ, एक नाप में कभी नहीं, तुझको देखा करती हूँ।

कभी एक उँगल भर चौड़ा, कभी एक फुट मोटा,

बड़ा किसी दिन हो जाता है, और किसी दिन छोटा।

घटना-बढ़ता रोज, किसी दिन, ऐसा भी करता है,

नहीं किसी की आँखों का, तू दिखलाई पड़ता है।

अब तू ही यह बता, नाप तेरी किस रोज लिवाएँ,

सी दें एक झिंगोला जो, हर रोज बदन में आए?"

देशप्रेमी संन्यासी | स्वामी विवेकानन्द | SWAMI VIVEKANANDA

देशप्रेमी संन्यासी - स्वामी विवेकानन्द

स्वामी विवेकानन्द भारत माता के विरल सुपुत्र थे। उन्होंने अपनी प्रचंड प्रतिभा, गंभीर ज्ञान और असाधारण वाक्शक्ति द्वारा विदेशों में भारतीय दर्शन, वेद-वेदांत का महत्त्व प्रमाणित किया। स्वामीजी ने अमेरीका और इंग्लैंड के विद्वानों को समझा दिया कि हिंदू धर्म सहनशील और मानवीय है। उसमें संकीर्णता या कट्टरता नहीं है। उन्होंने देश के लोगों को भी जगाया, सेवा का कार्य किया। कराया भी। देश का नाम उजागर किया। वे संन्यासी थे। सदा के लिए नमस्य भी।

स्वामीजी ने भारतीयों को सुखभोग त्यागकर सादा-सीधा जीवन बीताने को कहा। सदा कर्म-तत्पर रहने, निराशा और आलस्य को छोड़ने को उत्साहित किया। सदैव जाग्रत रहने के लिए अपने भाषण में आह्वान किया था। भारत हमारा सिरमौर है। इसे भारतीय को भूलना नहीं चाहिए। स्वामीजी ने अमेरीका और इंग्लैंण्ड जैसे समृद्धिशाली देशों में जाकर भारतीय ज्ञान का दार्शनिक विचारों का अपने वक्तव्य के जरिये प्रचार प्रसार किया।

रामकृष्ण परमहंस के वे उपयुक्त शिष्य थे। आज देश भर में तथा विदेशों में इनकी अनेक संस्थाएँ भारतीय संस्कृति और दर्शन के प्रचार-प्रसार में लगी हैं। देश विदेश में भारत के नाम को रोशन करने वाला संन्यासी और कोई नहीं स्वामी विवेकानंद ही हैं, जिनका स्मरण आज देश-विदेशों में लोग कर रहे हैं।

देशप्रेमी संन्यासी

हम देखते हैं कि कुछ लोग धन कमाने में जुटे रहते हैं। कुछ भोगने को व्याकुल रहते हैं। कुछ ऐसे हैं जिनको संन्यासी कहते हैं। वे लोग अपनी इच्छा से घरबार छोड़ देते हैं। सुख के साधनों का त्याग कर देते हैं। गरीबी में जीते हैं। संसार को माया का जंजाल समझते हैं। पर आश्चर्य है कि ऐसे लोगों में कुछ अपनी मातृभूमि से बेहद प्यार करते हैं। एक ऐसे संन्यासी थे स्वामी विवेकानन्द। देखने में बहुत सुन्दर। बड़े ज्ञानी और पंडित। सरल, विनयी और मिष्टभाषी। लेकिन प्रचण्ड प्रतिभाशाली।

सालों पहले की बात है। भारत पराधीन था। यहाँ अंग्रेजों का शासन चलता था। 1857 में लोग एक बार कोशिश करके पराजित हो गए थे। निराशा, आलस्य और कर्महीनता में डुबे हुए थे। ऐसे समय स्वामीजी ने अपने देशवासियों को ललकारा।

“मेरे प्यारे देशवासियों! उठो, जागो। जीवन का वरदान स्वतन्त्रता है। उसे प्राप्त करो। गर्व से कहो कि मैं भारतीय हूँ! हर भारतीय मेरा भाई है। भारत मेरा जीवन है मेरा प्राण है। भारत के देवता मेरा भरणपोषण करते हैं। भारत मेरे बचपन का हिंडोला है, मेरे यौवन का आनन्द लोक है और मेरे बुढ़ापे का बैकुंठ है।”

एक बार स्वामीजी अमेरीका गए। वहाँ बड़ी धर्मसभा हो रही थी। उन्होंने बड़ी मर्मस्पर्शी वाणी में भारत के धर्म, आचार-विचार, ऋषि-मुनियों के चिंतन, आध्यात्मिक दृष्टिकोण का महत्व प्रतिपादित किया। अपने सुंदर, सरल, अर्थपूर्ण अंग्रेजी भाषण द्वारा स्वामीजी ने सबके दिलों को अभिभूत कर दिया ।

स्वामीजी एक साल इंग्लैंण्ड में रहे। वहाँ भारत के मालिक अंग्रेज विद्वानों को अपनी विद्वत्ता से प्रभावित किया। वे भी मान गए कि भारत में गरीबी भले ही हो, लेकिन वह ऊँचे विचारों और चिंतन के धनी है, अगुवा है।

स्वामीजी ने अपने असंख्य अनुयायियों को मानव-सेवा, ज्ञान तथा धर्म-प्रचार में लगाया। रामकृष्ण परमहंस उनके गुरु थे। उन्हीं के नाम से रामकृष्ण मिशन बनाया विदेश में उनकी अनेक संस्थाएँ जनता की सेवा में डटी हुई हैं। आज भी देश देश-विदेशों में भारत के नाम को रोशन करनेवाला स्वामी जी जैसा दूसरा कोई नहीं दिखाई देता। देश को आजाद करने में, उसे सदा जाग्रत रखने में ऐसे संन्यासियों का बड़ा योगदान रहा।

नीड़ का निर्माण | हरिवंशराय बच्चन | HARIVANSH RAI BACHCHAN

नीड़ का निर्माण 
हरिवंशराय बच्चन 

चिड़ियाँ अपने नीड़ या घोंसले को बार-बार बनाती हैं। ऐसे मनुष्य भी नये-नये घरों का निर्माण बराबर करते रहते हैं। रहने के लिए वे उनको बनाते हैं, क्योंकि उनमें अपने बच्चों और परिवार के दूसरे लोगों के प्रति स्नेह भाव होता है। प्राणी की यह जीने की इच्छा अदम्य है। इसलिए नीड़ या घर बार-बार टूटने पर भी पक्षी और नर-नारी उसे बनाते रहते हैं।

छोटे लोगों का जीवन, छोटी चिड़िया का नीड़, आँधी तूफान में, अंधेरे में, धूल की आँधी में घिर जाता है। अर्थात् पृथ्वी पर बार-बार विपत्तियाँ आती हैं। कभी विपत्ति भयानक होती है तो दिन में रात सा अंधेरा हो जाता है। रात भी घन अंधकार में डूब जाती है। लगता है कि क्या सवेरा नही होगा? सब के सब भीतत्रस्त हो जाते हैं। इतने में पूर्व दिशा से हँसती हुई उषा-रानी आ जाती है। भयंकर दुःख से सुख की यह किरण नये जीवन के लिए प्रेरणा देती है। यह स्नेह और प्रेम का आह्वान है। जब बड़े तूफान से पृथ्वी काँप उठती है, बड़े बड़े पेड़ उखड़ जाते हैं, उनकी डाल पर घोंसले कहाँ उड़कर टूट बिखर जाते है और तो और, बड़े बड़े मकान जो ईंट पत्थर से बने होते हैं, बड़े मजबूत होते हैं वे भी ढह जाते हैं। उस वक्त एक छोटी सी चिड़िया नये जीवन की आशा लेकर आसमान पर चढ़ जाती है। वह विपत्ति से डरती नहीं। चाहे जो हो, नीड़ का निर्माण फिर करेगी। कुछ मनुष्य भी ऐसे ही उत्साही होते हैं। आकाश के बड़े बड़े भयानक दाँतों (वज्रपात, आँधी, तूफान, घने बादल आदि) से उषा मुस्कुराती है। जब बादल गरजते हैं तब चिड़ियाँ चहचहाती भी हैं। तेज हवा के भीतर चिड़िया चोंच में तिनका लेकर उड़ जाती है। वह उनचास पवन (बड़ी तेज हवा) की भी परवाह नहीं करती।

नाश से दु:ख तो होता है। लेकिन उसको निर्माण या सृजन का सुख दबा देता है। नीचा दिखा देता है। प्रलय होता है। उसके चारों ओर सन्नाटा छा जाता है। लेकिन फिर से नयी सृष्टि के गीत भी बार बार गाये जाते हैं। प्राणी मरता नहीं, बार बार जीता है। इसी जीने को जीवन कहते हैं।

नीड़ का निर्माण

नीड़ का निर्माण फिर-फिर

नेह का आह्वान फिर-फिर।

वह उठी आँधी कि नभ में

छा गया सहसा अंधेरा,

धूलि-धूसर बादलों ने

भूमि को इस भाँति घेरा।



रात सा दिन हो गया, फिर

रात आई और काली,

लग रहा था अब न होगा

इस निशा का फिर सबेरा,

रात के उत्पात भय से

भीत जन-जन, भीत कण-कण,

किन्तु प्राची से उषा की

मोहिनी मुसकान फिर-फिर।

नीड़ का निर्माण फिर-फिर,

नेह का आह्वान फिर-फिर।

बह चले झोंके कि काँपे

भीम कायावान भूधर,

जड़ समेत उखड़ पुखड़ कर

गिर पड़े, टूटे विटप वर।

हाय तिनकों से विनिर्मित

घोंसलों पर क्या न बीती!

डग मगाए जब कि कंकड़,

ईंट, पत्थर के महल-घर।

बोल आशा के विहंगम,

किस जगह पर तू छिपा था,

जो गगन पर चढ़ उठाता

गर्व से निज वक्ष फिर-फिर!

नीड़ का निर्माण फिर-फिर,

नेह का आह्वान फिर-फिर!

क्रुद्ध नभ के बज्रदंतों

में उषा है मुस्कुराती,

घोर गर्जन-भय गगन के

कंठ से खग-पंक्ति गाती।

एक चिड़िया चोंच में तिनका

लिए जो जा रही है,

वह सहज में ही पवन

उंचास को नीचा दिखाती

नाश के दुख से कभी

दबता नहीं निर्माण का सुख

प्रलय की निस्तब्धता से

सृष्टि का नव गान फिर-फिर!

नीड़ का निर्माण फिर-फिर 

नेह का आह्वान फिर-फिर।

बुधवार, 15 दिसंबर 2021

साथी! दुःख से घबराता है | गोपालदास 'नीरज' | GOPALDAS NEERAJ

साथी! दुःख से घबराता है? 
गोपालदास 'नीरज' 

इस कविता में कवि अपने साथी को दुःख से न डरने की सलाह देता है। न डरने से दु:ख भी सुख बन जाता है। मानव-जीवन में दुःख ज्यादा होता है। सुख बहुत कम। तो फिर दु:ख से डरने से, रोने-चीखने से दु:ख दूर नहीं होता। दुःख से लड़ना सही रास्ता है। दु:ख के बाद सुख आएगा। ज़रूर आएगा, क्योंकि दुःख सर्वदा नहीं रह सकता। दुःख भोगते हुए कोई मर जाय तो भी कोई डर नहीं। डरने से वह दुःख से बच तो नहीं सकता न! जीवन में दुःख होने के कारण हम सब कर्मतत्पर बने रहते हैं। दुःख पर विजय प्राप्त करने की चेष्टा करते हैं। जिस प्रकार जलती आग में जलने के कारण लोहे में कालिमा की जगह लालिमा आ जाती है, उसी प्रकार मानव-जीवन में दु:ख रूपी संघर्ष के कारण व्यक्तित्व का उत्कर्ष प्रतिपादित होता है। इसलिए कवि 'नीरज' का यह संदेश है कि दुःख को बुरी चीज़ न मानकर मुक्ति का मार्ग मानना चाहिए।

साथी! दुःख से घबराता है?

दुःख ही कठिन मुक्ति का बंधन,

दुःख ही प्रबल परीक्षा का क्षण,

दु:ख से हार गया जो मानव, वह क्या मानव कहलाता है?

साथी! दु:ख से घबराता है?

जीवन के लम्बे पथ पर जब

सुख दुःख चलते साथ-साथ तब

सुख पीछे रह जाया करता दुःख ही मंजिल तक जाता है।

साथी! दुःख से घबराता है?

दुःख जीवन में करता हलचल,

वह मन की दुर्बलता केवल,

दुःख को यदि मान न तू तो दुःख सुख बन जाता है।



साथी! दुःख से घबराता है

पथ में शूल बिछे तो क्या चल

पथ में आग जली तो क्या जल

जलती ज्वाला में जलकर ही लोहा लाल निकल आता है।



साथी! दु:ख से घबराता है?

धन्यवाद दो उसको जिसने

दिए तुझे दुःख के तो सपने,

एक समय है जब सुख ही क्या! दुःख भी साथ न दे पाता है। 

साथी! दुःख से घबराता है?

राहुल-जननी | मैथिली शरण गुप्त | MAITHILI SHARAN GUPT | अबला-जीवन, हाय! तुम्हारी यही कहानी | आँचल में है दूध और आँखों में पानी!

राहुल-जननी 

मैथिली शरण गुप्त 

इस पद ‘यशोधरा' खंडकाव्य के 'राहुल-जननी' शीर्षक से लिये गये हैं। इनमें गुप्तजी ने यशोधरा के माता रूप और पत्नीरूप का उद्घाटन किया है।

राजकुमार गौतम मानव-जीवन के शाश्वत सत्य की खोज में क्षणभंगुर संसार को त्याग देते हैं। पत्नी यशोधरा और पुत्र राहुल को बिना जगाए और बिना कुछ बताए रात को ही निकल जाते हैं। सुबह यशोधरा को यह पता चलता है। वह बहुत दु:खी होती है। कुछ देर बाद राहुल जाग पड़ता है और रोने लगता है। यशोधरा उसे चुप कराती हुई कहती है - ‘रे अभागे! तू अब क्यों रो रहा है? चुप जा। उनके जाते वक्त अगर तू रोता तो वे मुझे सोती छोड़कर क्यों चले जाते? हम दोनों ने तो सोकर उन्हें खो दिया। अब रोने से क्या फायदा? राहुल को और समझाती हुई यशोधरा कहती है 'बेटे! मेरे भाग्य में रोना तो लिखा है। मैं रोऊँगी। तेरे सारे कष्ट मिटाऊँगी। तू क्यों रोता है? तू हँसा कर। हमारे जीवन में जो कुछ आएगा, उसे सहना ही पड़ेगा। हमारे सुख के दिन अवश्य लौटेंगे। अब मैं तुझे अपना दूध पिलाकर और सारी स्नेह-ममता देकर पालूँगी। तेरे पिता के लिए आँसू बहाऊँगी। तुम दोनों के प्रति मुझे समान न्याय करना होगा। इसलिए पतिव्रता नारी बनकर मैंने पति की तरह सारे सुख-भोग त्याग दिये हैं।

चुप रह, चुप रह, हाय अभागे!

रोता है अब, किसके आगे?

तुझे देख पाता वे रोता,

मुझे छोड़ जाते क्यों सोता?

अब क्या होगा? तब कुछ होता,

सोकर हम खोकर ही जागे!



चुप रह, चुप रह, हाय अभागे!

बेटा, मैं तो हूँ रोने को;

तेरे सारे मल धोने को

हँस तू, है सब कुछ होने को.

भाग्य आयेंगे फिर भी भागे,

चुप रह, चुप रह, हाय अभागे!

तुझको क्षीर पिलाकर लूँगी,

नयन-नीर ही उनको दूँगी,

पर क्या पक्षपातिनी हूँगी?

मैंने अपने सब रस त्यागे।

चुप रह, चुप रह, हाय अभागे।

गुप्तजी ने पति वियोगिनी यशोधरा की मानसिक दशा का चित्रण किया है। यशोधरा के जरिये भारतीय नारी-जीवन की सच्चाई उपस्थापित की है। यशोधरा अपने अतीत और वर्तमान की तुलना करती है और कहती है कि जो कल इस राजमहल की रानी बनी हुई थी, वह आज दासी भी कहाँ है? अर्थात् यशोधरा अपने आपको दासी से भी पराधीन मानती है। नारी जीवन की यही वास्तविकता है कि आँखों में आँसू भरकर भी दूसरों के लिए कर्त्तव्य का सम्पादन करती चले। अंत में यशोधरा कहती है - 'हे मेरे शिशु संसार राहुल! तू मेरा दूध पीकर पलता चल और हे मेरे प्रभु (पतिदेव)! तुम तो मेरे आँसू के पात्र हो! इसे तुम स्वीकार करो ।'

चेरी भी वह आज कहाँ, कल थी जो रानी;

दानी प्रभु ने दिया उसे क्यों मन यह मानी?

अबला-जीवन, हाय! तुम्हारी यही कहानी

आँचल में है दूध और आँखों में पानी!

मेरा शिशु-संसार वह

दूध पिये, परिपुष्ट हो।

पानी के ही पात्र तुम

प्रभो, रुष्ट या तुष्ट हो।

मेरा नया बचपन | सुभद्रा कुमारी चौहान | SUBHADRA KUMARI CHAUHAN

मेरा नया बचपन 
सुभद्रा कुमारी चौहान 


‘मेरा नया बचपन' कविता चौहानजी के बचपन-संबंधी मनोभावों की एक झलक है। राष्ट्रीय कविताओं के अतिरिक्त सुभद्रा की वात्सल्य संबंधी कुछ कविताएँ भी अपनी स्वाभाविकता में अप्रतिम हैं। 'मेरा नया बचपन' कविता में कवयित्री ने अपने बचपन की याद की है। इसमें उनका मातृहृदय सजग हो उठा है। बचपन की सरल, मधुर स्मृतियाँ आनन्द का अतुलित भंडार होती हैं। कवयित्री ने अपनी बिटिया के बचपन की अठखेलियों और शरारतों में अपने ही बचपन की झलक देखी। उन्हें लगा कि उनका बचपन फिर से लौट आया है। वस्तुत: नारी-हृदय मातृत्व पाकर ही गौरवान्वित होता है। सुभद्राजी पूर्ण माता है।

बार-बार आती है मुझको

मधुर याद बचपन तेरी,

गया, ले गया तू, जीवन की,

सबसे मस्त खुशी मेरी।



चिंता रहित खेलना खाना,

वह फिरना निर्भय स्वच्छंद,

कैसे भूला जा सकता है

बचपन का अतुलित आनंद।

रोना और मचल जाना भी,

क्या आनंद दिखलाते थे,

बड़े-बड़े मोती-से आँसू,

जयमाला पहनाते थे।



मैं रोई, माँ काम छोड़कर

आई, मुझको उठा लिया,

झाड़-पोंछकर चूम चूमकर,

गीले गालों को सुखा दिया।

आ जा बचपन! एक बार फिर

दे दे अपनी निर्मल शांति,

व्याकुल व्यथा मिटाने वाली

वह अपनी प्राकृत विश्रांति।



वह भोली-सी मधुर सरलता

वह प्यारा जीवन निष्पाप,

क्या फिर आकर मिटा सकेगा

तू मेरे मन का संताप?



मैं बचपन को बुला रही थी,

बोल उठी बिटिया मेरी,

नंदन-वन-सी फूल उठी,

यह छोटी-सी कुटिया मेरी।



माँ ओ! कहकर बुला रही थी,

मिट्टी खाकर आई थी,

कुछ मुँह में, कुछ लिए हाथ में,

मुझे खिलाने आई थी।



मैंने पूछा- यह क्या लाई?

बोल उठी वह - माँ खाओ,

हुआ प्रफुल्लित हृदय खुशी से,

मैंने कहा- तुम ही खाओ।



पाया मैंने बचपन फिर से

बचपन बेटी बन आया,

उसकी मंजुल मूर्ति देखकर,

मुझमें नव-जीवन आया।



मैं भी उसके साथ खेलती,

अब जाकर उसको पाया,

भाग गया था मुझे छोड़कर,

वह बचपन फिर से आया।



जिसे खोजती थी बरसों से,

खाती हूँ, तुतलाती हूँ,

मिलकर उसके साथ स्वयं, 

मैं भी बच्ची बन जाती हूँ।

फिर महान बन | नरेन्द्र शर्मा | NARENDRA SHARMA

फिर महान बन - नरेन्द्र शर्मा 

मनुष्य अमृत की सन्तान है। अपनी महानता के कारण वह सबसे श्रेष्ठ प्राणी के रूप में परिचित है। लेकिन आज वह अपना कर्त्तव्य भूल गया है। अपने कर्त्तव्य पर सचेतन होने के लिए कवि ने इस कविता में सलाह दी है। मनुष्य को मनुष्यता का पाठ पढ़ाने के लिए, संसार को स्वर्ग बनाने के लिए यह कवि की चेतावनी है। कवि ने मनुष्य को फिर महान बनने की प्रेरणा दी है।

फिर महान बन, मनुष्य!

फिर महान बन।

मन मिला अपार प्रेम से भरा तुझे,

इसलिए कि प्यास जीव-मात्र की बुझे,

विश्व है तृषित, मनुष्य, अब न बन कृपण।

फिर महान बन।

शत्रु को न कर सके क्षमा प्रदान जो,

जीत क्यों उसे न हार के समान हो?

शूल क्यों न वक्ष पर बनें विजय-सुमन!

फिर महान बन।

दुष्ट हार मानते न दुष्ट नेम से,

पाप से घृणा महान है, न प्रेम से

दर्प-शक्ति पर सदैव गर्व कर न, मन।

फिर महान बन।

मंगलवार, 14 दिसंबर 2021

प्रियतम | सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला' | SURYAKANT TRIPATHI NIRALA | PRIYATAM

प्रियतम 
सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला' 

भगवान विष्णु किसान को अपना सबसे बड़ा भक्त मानते हैं। नारदजी को यह बात अच्छी नहीं लगती और वे नम्रतापूर्वक उसका विरोध करते हैं। भगवान् नारद जी की परीक्षा लेते हैं जिसमें वे सफल नहीं हो पाते। अन्त में नारदजी अपनी हार स्वीकार कर लेते हैं। निराला जी प्रस्तुत कविता के जरिए यह संदेश देना चाहते हैं कि कर्म ही ईश्वर है। इसलिए हर एक व्यक्ति को कर्म करना चाहिए। कर्म से निवृत्त रहकर सिर्फ भगवान का नाम लेने से कोई आगे नहीं बढ़ सकता या ईश्वरीय सान्निध्य प्राप्त नहीं कर सकता। कर्म करते हुए तथा सारी जिम्मेदारियों का निर्वाह करते हुए भी भगवान का नाम नहीं भूलना चाहिए।

एक दिन विष्णु के पास गये नारदजी,

पूछा, 'मृत्युलोक में वह कौन है पुण्यश्लोक

भक्त तुम्हारा प्रधान'?

विष्णुजी ने कहा

'एक सज्जन किसान है, प्राणों से प्रियतम।'

नारद कहा, ‘मैं उसकी परीक्षा लूँगा'।

हँसे विष्णु सुनकर यह, कहा कि 'ले सकते हो।'

नारदजी चल दिये, पहुँचे भक्त के यहाँ,

देखा, हल जोत कर आया वह दुपहर को;

दरवाजे पहुँचकर रामजी का नाम

स्नान-भोजन करके, फिर चला या काम पर।

शाम को आया दरवाजे, नाम लिया,

प्रातः काल चलते समय एक बार फिर उसने

मधुर नाम स्मरण किया।

'बस केवल तीन बार' नारद चकरा गये।

दिवा-रात्रि जपते हैं नाम ऋषि-मुनि लोग

किन्तु भगवान को किसान ही यह याद आया!

गये वे विष्णुलोक, बोले भगवान् से,

'देखो किसान को,

दिन भर में तीन बार नाम उसने लिया है।'

बोले विष्णु 'नारदजी'!

आवश्यक दूसरा काम एक आया है,

तुम्हें छोड़कर कोई और नहीं कर सकता।

साधारण विषय यह, बाद को विवाद होगा,

तब तक यह आवश्यक कार्य पूरा कीजिये,

तैल-पूर्ण पात्र यह लेकर,

प्रदक्षिणा कर आइए भूमण्डल की

ध्यान रहे सविशेष,

एक बूँद भी इससे तेल न गिरने पाए।'

लेकर चले नारदजी, आज्ञा पर धृतलक्ष्य।

एक बूँद तेल इस पात्र से गिरे नहीं।

योगिराज जल्द ही

विश्व-पर्यटन करके लौटे वैकुण्ठ को।

तेल एक बूँद भी उस पात्र से गिरा नहीं।

उल्लास मन में भरा था यह सोचकर,

तेल का रहस्य एक अवगत होगा नया।

नारद को देखकर विष्णु भगवान् ने

बैठाया स्नेह से कहा,

‘बतलाओ पात्र लेकर जाते समय कितनी बार

नाम इष्ट का लिया?'

'एक बार भी नहीं,

शंकित हृदय से कहा नारद ने विष्णु से,

'काम तुम्हारा ही था,

ध्यान उसीसे लगा, नाम फिर क्या लेता और'?

विष्णु ने कहा, 'नारद'!

उस किसान का भी काम मेरा दिया हुआ है,

उत्तरदायित्व कई लदे हैं एक साथ,

सबको निभाता और काम करता हुआ,

नाम भी वह लेता है, इसी से है प्रियतम।

नारद लज्जित हुए, कहा, 'यह सत्य है।'