गुरुवार, 9 दिसंबर 2021

भिखारिन | गुरूदेव रवीन्द्र नाथ टैगौर | BHIKHARIN | RABINDRANATH TAGORE

भिखारिन - गुरूदेव रवीन्द्र नाथ टैगौर

प्रस्तुत कहानी एक पुत्रवत्सला दिव्यांग भिखारिन के विश्वास के छले जाने और संघर्ष की संवेदनशील रचना है। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ने मानव चरित्र के कई परतों को इस कहानी में संवेदनशीलता के साथ रखा है। एक भिखारिन अपने जीवन की समस्त पूंजी द्वारा अपने पालित पुत्र को रोगमुक्त करने के लिए खर्च करना चाहती है, लेकिन समाज का धनवान और धार्मिक रूप में प्रसिद्ध सेठ उसके भीख से संचित धन को लौटाने में छल करता है। ‘संतान की पहचान’ कहानी को एक निर्णायक मोड़ देती है और पाठकों को मानव चरित्र को समझने और पहचानने का बोध भी देती है। एक सेठ भिखारिन के पाँवों पर क्यों गिर पड़ता है? वह क्यों यह कहने को विवश है कि ‘ममता की लाज रख लो, आखिर तुम भी तो उसकी माँ हो।’ कहानी की मार्मिकता को पाठक इन पंक्तियों में शिद्दत से महसूस कर सकते हैं कि- ‘उसके नेत्रों से अश्रु बह रहे थे, किन्तु वह भिखारिन होते हुए भी सेठ से महान थी इस समय सेठ याचक था और वह दाता थी।’

अंधी प्रतिदिन मंदिर के दरवाजे पर जाकर खड़ी होती, दर्शन करनेवाले बाहर निकलते तो अपना हाथ फैला देती और नम्रता से बोलती - “बाबू जी, अंधी पर दया हो जाय।“

वह जानती थी कि मंदिर में आनेवाले सहृदय और दयालु हुआ करते हैं। उसका यह अनुमान असत्य न था। आने-जाने वाले दो-चार पैसे उसके हाथ पर रख ही देते थे। अंधी उनको दुआएँ देती और उनकी सहृदयता को सराहती।

स्त्रियाँ भी उसके पल्ले में थोड़ा-बहुत अनाज डाल जाया करती थीं। सुबह से शाम तक वह इसी प्रकार

हाथ फैलाए खड़ी रहती। उसके पश्चात् मन-ही-मन भगवान को प्रणाम करती और अपनी लाठी के सहारे झोंपड़ी की राह पकड़ती। उसकी झोंपड़ी नगर से बाहर थी। रास्ते में भी वह याचना करती जाती, किन्तु राहगीरों में अधिक संख्या श्वेत वस्त्र वालों की होती, जो पैसे देने की अपेक्षा झिड़कियाँ दिया करते हैं। तब भी अंधी निराश न होती और उसकी याचना बराबर जारी रहती। झोंपड़ी तक पहुँचते-पहुँचते उसे दो-चार पैसे और मिल ही जाते। झोंपड़ी के समीप पहुँचते ही एक दस वर्ष का लड़का उछलता-कूदता आता और उससे लिपट जाता। अंधी टटोलकर उसके मस्तिष्क को चूम लेती।

बच्चा कौन है? किसका है? कहाँ से आया? इस बात से कोई परिचित नहीं था। पाँच वर्ष हुए पास-पड़ोस वालों ने उसे अकेला देखा था। इन्हीं दिनों एक दिन संध्या समय, लोगों ने उसकी गोद में एक बच्चा देखा, वह रो रहा था। अंधी उसका मुख चूम-चूमकर उसे चुप करने का प्रयत्न कर रही थी। यह कोई असाधारण घटना न थी, अतः किसी ने भी न पूछा कि बच्चा किसका है। उसी दिन से वह बच्चा अंधी के पास था और प्रसन्न था। उसको वह अपने से अच्छा खिलाती और पहनाती।

अंधी ने अपनी झोंपड़ी में एक हाँड़ी गाड़ रखी थी। दिनभर जो कुछ माँगकर लाती, उसमें डाल देती और उसे किसी वस्तु से ढँक देती, ताकि दूसरे व्यक्तियों की दृष्टि उस पर न पड़े। खाने के लिए अन्न काफी मिल जाता था। उससे काम चलाती। पहले बच्चे को पेट भरकर खिलाती, फिर स्वयं खाती। रात को बच्चे को अपने वक्ष से लगाकर वहीं पड़ी रहती। प्रातःकाल होते ही उसको खिला-पिलाकर फिर मंदिर के द्वार पर जा खड़ी होती।

काशी में सेठ बनारसी दास बहुत प्रसिद्ध व्यक्ति थे। बच्चा-बच्चा उनकी कोठी से परिचित था। वे बहुत बड़े देवभक्त और धर्मात्मा थे। धर्म पर उनकी बड़ी श्रद्धा थी। दिन के बारह बजे तक वे स्नान-ध्यान में संलग्न रहते थे। उनकी कोठी पर हर समय भीड़ लगी रहती थी। कर्ज के इच्छुक तो आते ही थे, परन्तु ऐसे व्यक्तियों का भी ताँता बँधा रहता जो अपनी पूँजी सेठ जी के पास धरोहर रूप में रखने आते थे। सैकड़ों भिखारी अपनी जमा पूँजी इन्हीं सेठ जी के पास जमा कर जाते थे। अन्धी को भी यह बात ज्ञात थी, किंतु पता नहीं कि अब तक वह अपनी कमाई यहाँ जमा कराने में क्यों हिचकिचाती रही।

उसके पास काफी रुपये हो गए थे, हाँड़ी लगभग पूरी भर गई थी। उसको शंका थी कि कोई उसको चुरा न ले। एक दिन संध्या समय अंधी ने वह हाँड़ी उखाड़ी और अपने फटे हुए आँचल में छुपाकर सेठ जी की कोठी पर जा पहुँची।

सेठ जी बहीखाते के पृष्ठ उलट रहे थे। उन्होंने पूछा, “क्या है, बुढ़िया?“

अंधी ने हाँड़ी उनके आगे सरका दी और डरते-डरते कहा - “सेठ जी, इसे अपने पास जमा कर लीजिए, मैं अंधी, अपाहिज कहाँ रखती फिरूँगी?“

सेठ जी ने हाँड़ी की ओर देखकर कहा - “इसमें क्या है?“ अंधी ने उत्तर दिया - “भीख माँगकर अपने बच्चे के लिए दो-चार पैसे इकट्ठे किए हैं; अपने पास रखते डरती हूँ। कृपया इन्हें आप अपनी कोठी में रख लें।“ सेठ जी ने मुनीम की ओर संकेत करते हुए कहा - “बही में जमा कर लो।“ फिर बुढ़िया से पूछा - “तेरा नाम क्या है?“ अंधी ने अपना नाम बताया, मुनीम जी ने नकदी गिनकर, उसके नाम से जमा कर ली। अंधी सेठ जी को आशीर्वाद देती हुई अपनी झोंपड़ी में चली गई।

दो वर्ष बहुत सुखपूर्वक बीते। इसके पश्चात् एक दिन लड़के को ज्वर ने आ दबाया।

अंधी ने दवा-दारू की, वैद्य-हकीमों से उपचार कराया, परंतु सम्पूर्ण प्रयत्न व्यर्थ सिद्ध हुए। लड़के की दशा दिन-प्रतिदिन बुरी होती गई। अंधी का हृदय टूट गया; साहस ने जवाब दे दिया; वह निराश हो गई। परंतु फिर ध्यान आया कि संभवतः डॉक्टर के इलाज से फायदा हो जाए। इस विचार के आते ही वह गिरती-पड़ती सेठ जी की कोठी पर जा पहुँची। सेठ जी उपस्थित थे।

अंधी ने कहा - “सेठ जी, मेरी जमा पूँजी में से दस-पाँच रुपये मुझे मिल जाएँ तो बड़ी कृपा हो। मेरा बच्चा मर रहा है, डॉक्टर को दिखाऊँगी।“

सेठ जी ने कठोर स्वर में कहा - “कैसी जमा पूँजी? कैसे रुपये? मेरे पास किसी के रुपये जमा नहीं हैं।“ अंधी ने रोते हुए उत्तर दिया - “दो वर्ष हुए, मैं आपके पास धरोहर रूप में रखकर गई थी। दे दीजिए, बड़ी दया होगी।“

सेठ जी ने मुनीम की ओर रहस्यमयी दृष्टि से देखते हुए कहा - “मुनीम जी, जरा देखना तो, इसके नाम की कोई पूँजी जमा है क्या? तेरा नाम क्या है री?“

अंधी की जान में जान आई, आशा बँधी। पहला उत्तर सुनकर उसने सोचा कि यह सेठ बेईमान है किंतु अब सोचने लगी कि संभवतः इसे ध्यान न रहा होगा। ऐसा धर्मात्मा व्यक्ति भी भला कहीं झूठ बोल सकता है! उसने अपना नाम बता दिया।

मुनीम ने सेठ जी का संकेत समझ लिया था, बही के पृष्ठ उलट-पुलटकर देखा। फिर कहा - “नहीं तो, इस नाम पर एक पाई भी जमा नहीं है।“

अंधी वहीं जमी बैठी रही। उसने रो-रोकर कहा - “सेठ जी! परमात्मा के नाम पर, धर्म के नाम पर, कुछ दे दीजिए।

मेरा बच्चा जी जाएगा। मैं जीवन भर आपके गुण गाऊँगी।“

परन्तु पत्थर में जोंक न लगी। सेठ जी ने क्रुद्ध होकर उत्तर दिया - “जाती है या नौकर को बुलाऊँ।“ अंधी लाठी टेककर खड़ी हो गई और सेठ जी की ओर मुख करके बोली - “अच्छा! भगवान तुम्हें बहुत दे।“ और अपनी झोंपड़ी की ओर चल दी।

यह आशीष न थी बल्कि एक दुखिया का श्राप था। बच्चे की दशा बिगड़ती गई, दवा-दारू हुई ही नहीं, फायदा क्यों कर होता? एक दिन उसकी दशा बड़ी चिंताजनक हो गई, प्राणों के लाले पड़ गए, उसके जीवन से अंधी भी निराश हो गई। सेठ जी पर रह-रहकर उसे क्रोध आता था। इतना धनी व्यक्ति है, दो-चार रुपये दे ही देता तो क्या चला जाता और फिर मैं उससे कुछ दान नहीं माँग रही थी, अपने ही रुपये माँगने गई थी। सेठ जी से उसे घृणा हो गई।

बैठे-बैठे उसको कुछ ध्यान आया। उसने बच्चे को अपनी गोद में उठा लिया और ठोकरें खाती, पड़ती सेठ जी के पास पहुँची और उनके द्वार पर धरना देकर बैठ गई। बच्चे का शरीर ज्वर से भभक रहा था और अंधी का कलेजा भी।

एक नौकर किसी काम से बाहर आया। अंधी को बैठी देखकर उसने सेठ जी को सूचना दी। सेठ जी ने आज्ञा दी कि उसे भगा दो।

नौकर ने अंधी को चले जाने को कहा, किंतु वह उस स्थान से न हिली। मारने का भय दिखाया, पर

वह टस-से-मस न हुई। नौकर ने फिर अंदर जाकर कहा कि वह नहीं टलती। सेठ जी स्वयं बाहर पधारे। देखते ही पहचान गए। बच्चे को देखकर उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ कि उसकी शक्ल-सूरत, उनके मोहन से बहुत मिलती-जुलती है। सात वर्ष हुए जब मोहन किसी मेले में खो गया था। उसकी बहुत खोज की पर उसका कोई पता न मिला। उन्हें स्मरण हो आया कि मोहन की जाँघ पर लाल रंग का चिह्न था। इस विचार के आते ही उन्होंने अंधी की गोद के बच्चे की जाँघ देखी। चिह्न अवश्य था, परंतु पहले से कुछ बड़ा। उनको विश्वास हो गया कि बच्चा उन्हीं का मोहन है। उन्होंने तुरंत उसको छीनकर अपने कलेजे से चिपटा लिया।

शरीर ज्वर से तप रहा था। नौकर को डॉक्टर लेने को भेजा और स्वयं मकान के अंदर चल दिए।

अंधी खड़ी हो गई और चिल्लाने लगी - “मेरे बच्चे को न ले जाओ; मेरे रुपये तो हजम कर गए, अब क्या मेरा बच्चा भी मुझसे छीनोगे?“

सेठ जी बहुत चिंतित हुए और बोले - “बच्चा मेरा है; यही एक बच्चा है; सात वर्ष पूर्व कहीं खो गया था। अब मिला है, अब इसको नहीं जाने दूँगा और लाख यत्न करके भी इसके प्राण बचाऊँगा।“

अंधी ने जोर का ठहाका लगाया - “तुम्हारा बच्चा है, इसलिए लाख यत्न करके भी उसे बचाओगे। मेरा बच्चा होता तो उसे मर जाने देते, क्यों? यह भी कोई न्याय है? इतने दिनों तक खून-पसीना एक करके उसको पाला है। मैं उसको अपने हाथ से नहीं जाने दूँगी।“

सेठ जी की अजीब दशा थी। कुछ करते-धरते नहीं बनता था। कुछ देर वहीं मौन खड़े रहे, फिर मकान के अंदर चले गए। अंधी कुछ समय तक खड़ी रोती रही, फिर वह भी अपनी झोंपड़ी की ओर चल दी।

दूसरे दिन प्रातःकाल प्रभु की कृपा हुई या दवा ने अपना जादू का सा प्रभाव दिखाया कि मोहन का ज्वर उतर गया। होश आने पर उसने आँखें खोलीं, तो सर्व प्रथम शब्द उसकी जबान से निकला - ‘‘माँ’’। चारों ओर अपरिचित शक्लें देखकर उसने अपने नेत्र फिर बंद कर लिए। उस समय से उसका ज्वर फिर अधिक होना आरम्भ हो गया। माँ-माँ की रट लगी हुई थी, डॉक्टरों ने जवाब दे दिया, सेठ जी के हाथ-पाँव फूल गए, चारों ओर अँधेरा दिखाई पड़ने लगा।

“क्या करूँ, एक ही बच्चा है? इतने दिनों बाद मिला भी तो मृत्यु उसको अपने चंगुल में दबा रही है; इसे कैसे बचाऊँ?“

सहसा उनको अंधी का ध्यान आया। पत्नी को बाहर भेजा कि देखो कहीं वह अब तक द्वार पर न बैठी हो। परंतु वह यहाँ कहाँ? सेठ जी ने घोड़ागाड़ी तैयार कराई और बस्ती से बाहर उसकी झोंपड़ी पर पहुँचे। झोंपड़ी बिना द्वार के थी, अंदर गए। देखा कि अंधी एक फटे-पुराने टाट पर पड़ी है और उसके नेत्रों से अश्रुधारा बह रही है। सेठ जी ने धीरे-से उसको हिलाया। उसका शरीर भी अग्नि की भाँति तप रहा था।

सेठ जी ने कहा - “बुढ़िया! तेरा बच्चा मर रहा है; डॉक्टर निराश हो गए हैं, रह-रहकर वह तुझे पुकारता है। अब तू ही उसके प्राण बचा सकती है। चल और मेरे............नहीं, नहीं अपने बच्चे की जान बचा ले।“ अंधी ने उत्तर दिया - “मरता है तो मरने दो, मैं भी मर रही हूँ। हम दोनों स्वर्ग-लोक में फिर माँ-बेटे की तरह मिल जाएँगे। इस लोक में सुख नहीं है। वहाँ मेरा बच्चा सुख में रहेगा। मैं वहाँ उसकी सुचारु रूप से सेवा-सुश्रुषा करूँगी।“ सेठ जी रो दिए। आज तक उन्होंने किसी के सामने सिर न झुकाया था, किन्तु इस समय अंधी के पाँवों पर गिर पड़े और रो-रोकर बोले - “ममता की लाज रख लो, आखिर तुम भी उसकी माँ हो। चलो, तुम्हारे चलने से वह बच जायगा।“

ममता शब्द ने अंधी को विकल कर दिया। उसने तुरंत कहा - “अच्छा चलो।“

सेठ जी सहारा देकर उसे बाहर लाए और घोड़ागाड़ी पर बिठा दिया। गाड़ी घर की ओर दौड़ने लगी। उस समय सेठ और अंधी भिखारिन दोनों की एक ही दशा थी। दोनों की यही इच्छा थी कि शीघ्र-से-शीघ्र अपने बच्चे के पास पहुँच जाएँ।

कोठी आ गई; सेठ जी ने सहारा देकर अंधी को उतारा और अंदर ले जाकर मोहन की चारपाई के समीप उसको खड़ा कर दिया। उसने टटोलकर मोहन के माथे पर हाथ फेरा। मोहन पहचान गया कि यह उसकी माँ का हाथ है। उसने तुरंत नेत्र खोल दिए और उसे अपने समीप खड़े हुए देखकर कहा - “माँ, तुम आ गईं।“

अंधी ने स्नेह से भरे हुए स्वर में उत्तर दिया - “हाँ बेटा, तुम्हें छोड़कर कहाँ जा सकती हूँ।“

अंधी भिखारिन मोहन के सिरहाने बैठ गई और उसने उसका सिर अपनी गोद में रख लिया। मोहन को बहुत सुख अनुभव हुआ और वह उसी की गोद में सो गया।

दूसरे दिन से मोहन की दशा अच्छी होने लगी और दस-पंद्रह दिनों में वह बिल्कुल स्वस्थ हो गया। जो काम हकीमों के जोशांदे, वैद्यों की पुड़ियाँ और डॉक्टर की दवाइयाँ न कर सकीं थीं, वह अंधी की स्नेहमयी सेवा ने पूरा कर दिया।

मोहन के पूरी तरह स्वस्थ हो जाने पर अंधी ने विदा माँगी। सेठ जी ने बहुत कुछ कहा - सुना कि वह उन्हीं के पास रह जाए, परंतु वह सहमत न हुई। विवश होकर विदा करना पड़ा। जब वह चलने लगी तो सेठ जी ने रुपयों की एक थैली उसके हाथों में दे दी। अंधी ने पूछा, “इसमें क्या है?“

सेठ जी ने कहा - “इसमें तुम्हारी धरोहर है, तुम्हारे रुपये। मेरा वह अपराध.............“

अंधी ने बात काटकर कहा - “यह रुपये तो मैंने तुम्हारे मोहन के लिए ही इकट्ठे किए थे, उसी को दे देना।“

अंधी ने वह थैली वहीं छोड़ दी और लाठी टेकती हुई चल दी। बाहर निकलकर फिर उसने उस घर की ओर नेत्र उठाए। उसके नेत्रों से अश्रु बह रहे थे, किंतु वह भिखारिन होते हुए भी सेठ से महान थी। इस समय सेठ याचक था और वह दाता थी।

साथी, हाथ बढ़ाना | साहिर लुधियानवी | SAHIR LUDHIANVI | गीत

साथी हाथ बढ़ाना (गीत) 
साहिर लुधियानवी

एक दूसरे के साथ मिलकर रहने से मुश्किल काम भी आसान हो जाता है। नये नये मार्ग खुलने लगते हैं। इस कविता में मिलजुलकर रहने से प्राप्त होनेवाले परिणामों के बारे में बताया गया है।


साथी हाथ बढ़ाना

एक अकेला थक जाएगा, मिलकर बोझ उठाना।

साथी हाथ बढ़ाना।

हम मेहनतवालों ने जब भी, मिलकर कदम बढ़ाया

सागर ने रस्ता छोड़ा, परबत ने सीस झुकाया

फ़ौलादी हैं सीने अपने, फ़ौलादी हैं बाँहें

हम चाहें तो चट्टानों में पैदा कर दें राहें

साथी हाथ बढ़ाना।

मेहनत अपने लेख की रेखा, मेहनत से क्या डरना

कल गैरों की खातिर की, आज अपनी खातिर करना

अपना दुख भी एक है साथी, अपना सुख भी एक

अपनी मंजिल सच की मंज़िल, अपना रस्ता नेक

साथी हाथ बढ़ाना ।



एक से एक मिले तो कतरा, बन जाता है दरिया

एक से एक मिले तो ज़र्रा, बन जाता है सेहरा

एक से एक मिले तो राई, बन सकती है परबत

एक से एक मिले तो इंसाँ, बस में कर ले किस्मत

साथी हाथ बढ़ाना।

पर्यावरण बचाओ - डॉ. परशुराम शुक्ल | PARSHURAMSHUKLA

पर्यावरण बचाओ 
 डॉ. परशुराम शुक्ल


परिसर के बिना मानव का जीवन असंभव है। शुद्ध पर्यावरण जीव व जगत् के लिए आवश्यक है। आजकल जल, वायु और ध्वनि का प्रदूषण निरंतर बढ़ते जाने के कारण परिसर का संतुलन बिगड़ रहा है। इसलिए पर्यावरण की रक्षा करना सबका आद्य कर्तव्य है। प्रस्तुत कविता में शुक्ल जी ने इस ज्वलंत समस्या की ओर हमारा ध्यान आकर्षित किया है।

आज समय की माँग यही है,

पर्यावरण बचाओ।


तब तक जीव है जगत में,

जब तक जग में पानी।

जब तक वायु शुद्ध रहती है,

सोंधी मिट्टी रानी।

तब तक मानव का जीवन है,

यह सबको समझाओ।


ध्वनि, मिट्टी, जलवायु आदि,

जीव जगत के मित्र सभी।

इनकी रक्षा करना,

अब कर्तव्य हमारा।

शोर और मिट्टी का संकट,

दूर करेंगे सारा।


एक वृक्ष यदि कट जाय तो,

ग्यारह वृक्ष लगाओ।

एक वृक्ष हम नित रोपेंगे,

आज शपथ यह खाओ।

आज समय की माँग यही है,

पर्यावरण बचाओ।

जय-जय भारत माता | मैथिलीशरण गुप्त | MAITHILI SHARAN GUPT

जय-जय भारत माता 
मैथिलीशरण गुप्त 


कवि इस कविता में भारत माता का गुणगान कर रहे हैं। कवि प्रार्थना कर रहे हैं कि इस देश के पावन आँगन में अंधेरा हटे और ज्ञान मिले। सब लोग मिलजुल कर भारत माता के यश की गाथा गाएँ।

जय-जय भारत माता।

ऊँचा हिया हिमालय तेरा

उसमें कितना स्नेह भरा

दिल में अपने आग दबाकर

रखता हमको हरा-भरा,

सौ-सौ सोतों से बह-बहकर

सौ-सौ सोतों से बह-बहकर

है पानी फूटा आता,

जय-जय भारत माता ।



कमल खिले तेरे पानी में

धरती पर हैं आम फले,

इस धानी आँचल में देखो

कितने सुंदर भाव पले,

भाई-भाई मिल रहें सदा ही

टूटे कभी न नाता,

जय-जय भारत माता।



तेरी लाल दिशा में ही माँ

चंद्र-सूर्य चिरकाल रहें,

तेरे पावन आँगन में

अंधकार हटे और ज्ञान मिले,

मिलजुल कर ही हम सब गाएँ

तेरे यश की गाथा, जय जय भारत माता।

अभिनव मनुष्य | रामधारीसिंह 'दिनकर' | RAMDHARI SINGH DINKAR

अभिनव मनुष्य 
रामधारीसिंह 'दिनकर'


इस पद्यभाग में वैज्ञानिक युग और आधुनिक मानव का विश्लेषण हुआ है। कवि दिनकर जी इस कविता द्वारा यह संदेश देना चाहते हैं कि आज के मानव ने प्रकृति के हर तत्व पर विजय प्राप्त कर ली है। परंतु कैसी विडबना है कि उसने स्वयं को नहीं पहचाना, अपने भाईचारे को नहीं समझा। प्रकृति पर विजय प्राप्त करना मनुष्य की साधना है, मानव-मानव के बीच स्नेह का बाँध बाँधना मानव की सिद्धि है। जो मानव दूसरे मानव से प्रेम का रिश्ता जोड़कर आपस की दुरी को मिटाए, वही मानव कहलाने का अधिकार होगा।

इस कविता के द्वारा बच्चे स्नेह, मानवीयता, भाईचारा आदि का महत्व समझ सकते हैं।

आज की दुनिया विचित्र, नवीन;

प्रकृति पर सर्वत्र है विजयी पुरुष आसीन।

है बंधे नर के करों में पारि, विद्युत, भाप,

हुक्म पर चढ़ता-उतरता है पवन का ताप।

नहीं बाकी कहीं व्यवधान

लाँच सकता नर सरित् गिरि सिन्धु एक समान।



यह मनुज,

जिसका गगन में जा रहा है यान,

कांपते जिसके करों को देख कर परमाणु।

यह मनुज, जो सृष्टि का शृंगार,

शान का, विज्ञान का, आलोक का आगार।

व्योम से पाताल तक सब कुछ इसे है ज्ञेय,

पर, न यह परिचय मनुज का, यह न उसका श्रेय।


श्रेय उसका, बुद्धि पर चैतन्य उर की जीत,

श्रेय मानव की असीमित मानवों से प्रीत;

एक नर से दूसरे के बीच का व्यवधान

तोड़ दे जो, बस, वही ज्ञानी, वही विद्वान, और मानव भी यहीं।

चलना हमारा काम है | शिवमंगल सिंह 'सुमन' | SHIVMANGAL SINGH SUMAN

चलना हमारा काम है 
शिवमंगल सिंह 'सुमन'

बच्चे इस कविता के द्वारा यह सीखते हैं कि जीवन के सफर में अनेक रुकावटें आती हैं और उनका सामना करते हुए लक्ष्य प्राप्ति तक कदम बढ़ानेवाला व्यक्ति आदरणीय होता है।

गति प्रबल पैरों में भरी

फिर क्यों रहूँ दर दर खड़ा

जब आज मेरे सामने

है रास्ता इतना पड़ा

जब तक न मंजिल पा सकूँ,

तब तक मुझे न विराम है,

चलना हमारा काम है।


मैं पूर्णता की खोज में

दर-दर भटकता ही रहा

प्रत्येक पग पर कुछ न कुछ

रोड़ा अटकता ही रहा

पर हो निराशा क्यों मुझे ?

जीवन इसी का नाम है,

चलना हमारा काम है।


कुछ साथ में चलते रहे

कुछ बीच ही से फिर गए,

पर गति न जीवन की रुकी

जो गिर गए सो गिर गए

जो रहे हर दम,

उसी की सफलता अभिराम है,

चलना हमारा काम है।

मंगलवार, 7 दिसंबर 2021

वृक्षप्रेमी तिम्मक्का | सालुमरदा तिम्मक्का | VRUKSHA PREMI THIMMAKKA | THIMMAKKA

वृक्षप्रेमी तिम्मक्का

इस पाठ में 'सालुमरदा तिम्मक्का' के अमूल्य पर्यावरण प्रेम का परिचय दिया गया है, जिससे बच्चे पर्यावरण की रक्षा करने में अपना निष्ठापूर्ण सहयोग दे सकते हैं।

सालुमरदा तिम्मक्का का नाम आज कर्नाटक के कोने-कोने में व्याप्त है। कर्नाटक सरकार ने उन्हें इतने सारे पुरस्कारों से सम्मानित किया है कि समाज-सेवा के क्षेत्र में यह महिला एक मिसाल बन गयी है। इस आदर्श महिला के जीवन के बारे में हम कितना जानते हैं ! आइए, ग्रामीण प्रदेश के गरीब परिवार में जन्म लेनेवाली एक अनपढ़ महिला के उदात्त व्यक्तित्व एवं कार्य का परिचय पावें।

तिम्मक्का का जन्म तुमकूरु जिला, गुब्बी तालुका में से गाँव कक्केनहल्ली में हुआ। उनके पिता चिक्करगय्या और माता विजयम्मा थे। तिम्मक्का इनकी छ: संतानों में से एक एक छोटे थी। तिम्मक्का के मां-बाप मेहनत-मजदूरी करते हुए अपना पेट पालते थे।

तिम्मरका के पति का नाम बिक्कला चिक्कय्या था। वे भी अनपढ़ थे। रोज़ दूसरों के खेत में पसीना बहाकर काम किया करते थे। इस दंपति को एक-एक कौर के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती थी। कमाई भी बहुत कम थी। यदि एक दिन मजदूरी नहीं करते तो उन्हें भूखे रहना पड़ता था।

तिम्मक्का निस्संतान थीं। पति-पत्नी बच्चों के लिए तरस जाते थे। अंत में उन्होंने एक बच्चे को गोद लिया। दत्तक पुत्र के सगे मां बाप को लोगों की कटु निंदा सुननी पड़ी। उन्होंने अपने बेटे को वापस ले लिया। अपना दत्तक पुत्र खोकर तिम्मक्का बहुत दुःखी हुई। लेकिन सन् 2005 में उन्होंने बल्लूरु के उमेश बी.एन. को पुत्र के रूप में अपनाया जो अब उनकी देखभाल कर रहे हैं।

तिम्मक्का और चिक्कय्या दोनों ने निश्चय किया कि अपने आप को किसी धर्म-कार्य में लगा लें। उनके गाँव के पास ही श्रीरंगस्वामी का मंदिर था, जहां हर साल मेला लगता था। वहाँ आनेवाले जानवरों के लिए पीने के पानी का इंतज़ाम किया।

तिम्मरका ने रास्ते के दोनों ओर पेड़ लगाने, सींचने, बढ़ाने की बात सोची। यह काम आसान नहीं था। फिर भी उन्होंने हुलिकल और कुदूर के बीच के चार कि.मी. के रास्ते के दोनों ओर के डाल लगाये। उन पेड़ा को भेड़-बकरियों से रक्षा करने की व्यवस्था की।

पहले साल दस, दूसरे साल पंद्रह और तीसरे साल में नब्बे पेड़ लगाये। उन्हें अपने बच्चों की तरह प्रेम से पाला-पोसा। यह काम निरंतर दस सालों तक चलता रहा। पेड़ राहगीरों को छाया देने के साथ-साथ, पक्षियों के आश्रयधाम भी बन गए।

तिम्मक्का के जीवन में मुसीबत की घड़ियां शुरू हुईं। तिम्मक्का के पति की तबीयत खराब हुई। बुरी हालत में चिक्कय्या चल बसे। तिम्मक्का अब अकेली पड़ गयीं। फिर भी हिम्मत न हारी और अपने कार्य में तल्लीन रहीं।

तिम्मक्का ने अब तक 8000 से अधिक पेड़ लगाये हैं। अब हमारी कर्नाटक सरकार ने उन पेड़ों की रक्षा करने का बीड़ा उठाया है। तिम्मक्का को उनकी निष्ठा, त्याग तथा सेवा के लिए नाडोज पुरस्कार, राष्ट्रीय नागरिक पुरस्कार, इंदिरा प्रियदर्शिनी वृक्ष मित्र, वीर चक्र, कर्नाटक कल्पवल्ली, गाड़ फ्री फिलिप्स धैर्य पुरस्कार, विशालाक्षी पुरस्कार, डॉ.कारंत पुरस्कार, कर्नाटक सरकार के महिला और शिशु कल्याण विभाग के द्वारा सम्मान पत्र आदि अनेकानेक पुरस्कारों से अलंकृत किया गया है। तिम्मक्का जी सन् 2012 में संपन्न प्रथम राष्ट्रीय पर्यावरण सम्मेलन की अध्यक्षा रही।

पर्यावरण संरक्षण के साथ-साथ तिम्मक्का अन्य सामाजिक कार्य भी कर रही हैं। अपने पति की याद में उन्होंने हुलिकल ग्राम में गरीबों की निःशुल्क चिकित्सा के लिए एक अस्पताल के निर्माण कराने का संकल्प किया है। जो भी धनराशि पुरस्कार के रूप में तिम्मनका को मिली है, उसे वह सामाजिक कार्य तथा दीन-दुखियों की सेवा के लिए अर्पित कर रही हैं।

अपने जीवन में दर्द और तकलीफ उठाने के बावजूद सार्थक कार्य करनेवाली तिम्मक्का का व्यक्तित्व सबके लिए आदर्श है। सरकारी संसाधनों के अभाव में भी कोई एक व्यक्ति केवल अपनी निष्ठा व श्रद्धा की बदौलत किस तरह सामाजिक कार्य के लिए स्वयं को समर्पित कर सकता है, इसके लिए एक अत्युत्तम निदर्शन हैं तिम्मक्का।

तिम्मक्का ने अपने जीवन काल में बहुत सारे पेड़ लगाकर उनकी देख-रेख की है। कतारों में शोभायमान बरगद के पेड़ लगाने के कारण वे सालुमरदा तिम्मक्का नाम से जानी जाती हैं।

गिल्लू | महादेवी वर्मा | GILLU | MAHADEVI VERMA | HINDI STORY

गिल्लू
महादेवी वर्मा

पाठ का आशय : कौन कह सकता है कि पशु-पक्षी भावहीन प्राणी हैं? वे भी हमारी तरह कभी-कभी हमसे भी अधिक भावानुकूल, विचारयान् और सहृदय व्यवहार करते हैं। महादेवी वर्मा ने एक छोटा-सा जीप, गिलहरी के बच्चे का रेखांकन कर प्राणी-जगत् की मानव-सहज जीवन शैली का प्रभावशाली चित्रण किया है। आज के संदर्भ में जहाँ मानय के स्वार्थ के कारण पशु-पक्षी की जातियाँ लुप्त होती जा रही है, यहाँ महादेवी वर्मा जी का यह 'संस्मरण' उनकी रक्षा करने और उनके प्रति प्रेमभाव जगाने की दिशा में एक सार्थक प्रयत्न सिद्ध होता है।
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इस पाठ से लेहमाव तथा प्राणी-दया की सीख मिलती है । पशु-पक्षियों के स्वभाव और उनकी जीवन-शैली के साथ-साथ उनके प्रति महादेवी वर्मा के प्रेम से परिचित होते हैं। 
अचानक एक दिन सवेरे कमरे से बरामदे में आकर मैंने देखा दो कौए एक गमले के चारों ओर चोंचों से छुआ-छुऔवल जैसा खेल खेल रहे हैं। यह काकभुशुण्डि भी विचित्र पक्षी है - एक साथ समादरित, अनादरित, अति सम्मानित, अति अवमानित। हमारे वेचारे पुरखे न गल्ड के रूप में आ सकते हैं, न मयूर के, न हंस के। उन्हें पितरपक्ष में हमसे कुछ पाने के लिए काक बनकर ही अवतीर्ण होना पड़ता है। इतना नहीं, हमारे दूरस्थ प्रियजनों को भी आने का मधुर संदेश इनके कर्कश स्वर में ही देना पड़ता है। दूसरी ओर हम कौआ और कांव-कांय करने को अवमानना के अर्थ में ही प्रयुक्त करते है।

मेरे काकपुराण के विवेचन में अचानक बाधा आ पड़ी, क्योंकि गमले और दीपार की संधि में छिपे एक छोटे-से जीव पर मेरी पृष्टि रुक गयी। निकट जाकर देखा, गिलहरी का एक छोटा-सा बच्चा है, जो सम्भवतः घोसले से गिर पड़ा है और अब कौए जिसमें सुलभ आहार खोज रहे हैं। काकद्वय की चोंचों के दो घाव उस लघुप्राण के लिए बहुत थे, अतः वह निश्चेष्ट-सा गमले से चिपका पड़ा था। सबने कहा, कौए की चोंच का पाय लगने के बाद यह बच नहीं सकता, अतः इसे ऐसे ही रहने दिया जाये। परन्तु मन नहीं माना - उसे हौले से उठाकर अपने कमरे में लायी, फिर रुई से रक्त पोंछकर घावों पर पेन्सिलिन का मरहम लगाया। कई घंटे के उपचार के उपरान्त उसके मुह में एक बूंद पानी टपकाया जा सका। तीसरे दिन यह इतना अच्छा और आश्वस्त हो गया कि मेरी उंगली अपने दो नन्हें पंजों से पकड़कर, नीले कांच के मोतियों जैसी आँखों से इधर-उधर देखने लगा। तीन-चार मास में उसके स्निग्ध रोयें, झब्बेदार पूंछ और चंचल-चमकीली आंखें सबको विस्मित करने लगीं। हम उसे गिल्लू कहकर बुलाने लगे। मैंने फूल रखने की एक हल्की इलिया में रुई बिछाकर उसे तार खिड़की पर लटका दिया। वर्ष वही गिल्लू का घर रहा। वह स्वयं हिलाकर अपने घर और अपनी कांच के मनकों-सी आंखों से कमरे के भीतर और खिड़की से बाहर न जाने क्या देखता-समझता रहता था। परन्तु उसकी समझदारी और कार्य कलाप पर सबको आश्चर्य होता था। जन में लिखने बैठती तव अपनी ओर मेरा ध्यान आकर्षित करने की उसे इतनी तीव्र इच्छा होती थी कि उसने एक अच्छा उपाय खोज निकाला।

वह मेरे पैर तक आकर सर्र से परदे पर चढ़ जाता और फिर उसी तेजी से उतरता। उसका यह दौड़ने का क्रम तब तक चलता, जब तक मैं उसे पकड़ने के लिए न उठती। कभी मैं गिल्लू को पकड़कर एक लंबे लिफ़ाफ़े में इस प्रकार रख देती कि उसके अगले दो पंजों और सिर के अतिरिक्त सारा लघु गात लिफाफे के भीतर बंद रहता। इस अद्भुत स्थिति में कभी-कभी घंटों मेज़ पर दीवार के सहारे खड़ा रहकर वह अपनी चमकीली आंखों से मेरा कार्य-कलाप देखा करता। भूख लगने पर चिक-चिक करके मानो वह मुझे सूचना देता और काजू या बिस्कुट मिल जाने पर उसी स्थिति में लिफ़ाफ़े से बाहरवाले पंजों से पकड़कर उसे कुतरता रहता। फिर गिल्लू के जीवन का प्रथम वसंत आया। बाहर की गिलहरियां खिड़की की जाली के पास आकर चिक-चिक करके न जाने क्या कहने लगीं। गिल्लू को जाली के पास बैठकर अपनेपन से बाहर झांकते देखकर मुझे लगा कि इसे मुक्त करना आवश्यक है। मैने कीलें निकालकर जाली का एक कोना खोल दिया और इस मार्ग से गिल्लू ने बाहर जाने पर सचमुच ही मुक्ति की सांस ली। इतने छोटे जीव को घर में पले कुत्ते-विल्लियों से बचाना भी एक समस्या ही थी। कमरे से बाहर जाने पर वह भी खिड़की की खुली जाली की राह वाहर चला जाता और दिन भर गिलहरियों के झुण्ड का नेता बना, हर डाल पर उछलता-कूदता रहता और ठीक चार बजे वह खिड़की से भीतर आकर अपने झूले में झूलने लगता। मुझे चौंकाने की इच्छा उसमें न जाने कब और कैसे उत्पन्न हो गयी थी। कभी फूलदान के फूलों में छिप जाता, कभी परदे की चुप्तट में और कभी सोनजुही की पत्तियों में।

मेरे पास बहुत से पशु-पक्षी हैं और उनका मुझसे लगाव भी कम नहीं है। परन्तु उनमें से किसी को मेरे साथ मेरी थाली में खाने की हिमत छु  है, ऐसा मुझे स्मरण नहीं आता। गिल्लू इनमें अपवाद था। में जैसे ही खाने के कमरे में पहुंचती, यह खिड़की से निकलकर आंगन की दीवार बरामदा पार करके मेज पर पहुंच जाता और मेरी थाली में बैठ जाना चाहता। बड़ी कठिनाई से मैंने उसे थाली के पास बैठना सिखाया, जहां बैठकर यह मेरी थाली में से एक-एक चावल उठाकर बड़ी सफाई से खाता रहता। काजू उसका प्रिय खाद्य था और कई दिन काजू न मिलने पर यह अन्य खाने की चीजें या तो लेना बंद कर देता था या भूले से नीचे फेंक देता था। उसी बीच मुझे मोटर-दुर्घटना में आहत होकर कुछ दिन अस्पताल में रहना पड़ा। उन दिनों जब मेरे कमरे का दरवाज़ा खोला जाता, गिल्लू अपने झूले से उतरकर दौड़ता और फिर किसी दूसरे को देखकर तेजी से अपने घोंसले में जा बैठता। सब उसे काजू दे जाते, परंतु अस्पताल से लौटकर जब मैंने उसके झूले की सफाई की तो उसमें काजू भरे मिले, जिनसे ज्ञात होता था कि यह उन दिनों अपना प्रिय खाद्य कितना कम खाता रहा। मेरी अस्वस्थता में वह तकिये पर सिरहाने बैठकर अपने नन्हे-नन्हे पंजों से मेरे सिर और बालों को हौले-हौले सहलाता रहता।

गर्मियों में जब मैं दोपहर में काम करती रहती तो गिल्लू न बाहर जाता, न अपने झूले में बैठता। यह मेरे पास रखी सुराही पर लेट जाता और इस प्रकार समीप भी रहता और ठंडक में भी रहता। गिलहरियों के जीवन की अवधि दो वर्ष से अधिक नहीं होती, अतः गिल्लू की जीवन-यात्रा का अंत आ ही गया। दिन भर उसने न कुछ खाया, न वह बाहर गया। पंजे इतने ठंडे हो रहे थे कि मैने जागकर हीटर जलाया और उसे उष्णता देने का प्रयत्न किया। परन्तु प्रभात की प्रथम किरण के साथ ही यह चिर निद्रा में सो गया। उसका झूला उतारकर रख दिया गया है और खिड़की की जाली बंद कर दी गई है, परन्तु गिलहरियों की नयी पीढ़ी जाली के उस पार चिक-चिक करती ही रहती है और सोनजुही खिलती ही रहती है। सोनजुही की लता के नीचे गिल्लू की समाधि है। इसलिए भी कि उसे वह लता सबसे अधिक प्रिय थी, इसलिए भी कि उस लघु गात का, किसी वासन्ती दिन, जुही के पीताभ छोटे फूल के रूप में खिल जाने का विश्वास, मुझे संतोष देता है। 
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महादेवी वर्मा जी विश्व स्तर की कवयित्री हैं। उन्हें 'आधुनिक मीरा' भी कहा जाता है। उनका जन्म 24 मार्च, 1907 को फरुखाबाद में हुआ। उनके पिता गोविंद प्रसाद वर्मा और माता हेमारानी थीं। उन्होंने प्रयाग के विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम.ए. उपाधि प्राप्त कर प्रयाग के महिला विद्यापीठ में प्रधानाध्यापिका का पद संभाला। महादेवी वर्मा जी ने गन्य और की रचना की है। इनकी प्रमुख रचनाएं हैं : यामा, सांध्यगीत, दीपशिखा, नीरजा, नीहार, अतीत के चलचित्र, स्मृति की रेखाएं, पथ के साथी, मेरा परिवार, श्रृंखला की कड़ियां आदि। महादेवी वर्मा जी को सेक्सरिया, मंगल प्रसाद, द्विवेदी पदक आदि अनेक पुरस्कार प्राप्त हैं। उनकी 'यामा' के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त है। इस महान् रचनाकार का निधन सितंबर , सन् 1987 को हुआ।

सोमवार, 6 दिसंबर 2021

कोई नहीं पराया | श्री गोपाल दास ’नीरज‘ | GOPALDAS NEERAJ

कोई नहीं पराया 
श्री गोपाल दास ’नीरज‘ 

प्रस्तुत कविता मनुष्य-मनुष्य के बीच के बंटवारे, विभेद, जाति, लिंग, धर्म, रंग, वर्ण जनित विभिन्न तरह की संकीर्णताओं पर मन में सवाल खड़ा करता है। कवि प्रस्तुत कविता के जरिए धर्म और जाति से जुड़ी तमाम नफरत की दीवारों को गिराने का आह्वान करते हैं। कवि एकता का संदेश देते हुए कहते हैं कि उसका आराध्य मनुष्य मात्र है और उसके लिए देवालय हर इंसान का घर है। कवि स्पष्ट कहते हैं कि इस संसार में कोई पराया नहीं है सब ईश्वर की संतान हैं।

ईश्वर को लोग अपनी समझ और सन्दर्भ से अल्लाह, गॉड, राम, रहीम कहते हैं। जिस तरह से फूल, बाग की शोभा पहले है, डाल की शोभा बाद में है, वैसे ही मनुष्य जाति, धर्म, प्रान्त अथवा राष्ट्र की शोभा बाद में है, पहले विश्व की शोभा है। इस तरह से कवि “वसुधैव कुटुम्बकम” के सहज संदेश को कविता के जरिए सम्प्रेषित करते हैं।

कोई नहीं पराया, मेरा घर सारा संसार है।

मैं न बँधा हूँ, देश-काल की जंग लगी जंजीर में,

मैं न खड़ा हूँ जात-पाँत की ऊँची-नीची भीड़ में,

मेरा धर्म न कुछ स्याही-शब्दों का सिर्फ गुलाम है,

मैं बस कहता हूँ कि प्यार है तो घट-घट में राम है,

मुझसे तुम न कहो मंदिर-मस्जिद पर सर मैं टेक दूँ,

मेरा तो आराध्य आदमी, देवालय हर द्वार है।

कोई नहीं पराया, मेरा घर सारा संसार है।।


कहीं रहे कैसे भी मुझको प्यारा यह इंसान है,

मुझको अपनी मानवता पर बहुत-बहुत अभिमान है,

अरे नहीं देवत्व, मुझे तो भाता है मनुजत्व ही,

और छोड़कर प्यार नहीं स्वीकार, सकल अमरत्व भी,

मुझे सुनाओ तुम न स्वर्ग-सुख की सुकुमार कहानियाँ,

मेरी धरती सौ-सौ स्वर्गों से ज्यादा सुकुमार है।

कोई नहीं पराया, मेरा घर सारा संसार है।।


मैं सिखलाता हूँ कि जिओ और जीने दो संसार को,

जितना ज्यादा बाँट सको तुम बाँटो अपने प्यार को,

हँसो इस तरह, हँसे तुम्हारे साथ दलित यह धूल भी,

चलो इस तरह कुचल न जाए पग से कोई फूल भी,

सुख न तुम्हारा सुख, केवल जग का भी इसमें भाग है,

फूल डाल का पीछे, पहले उपवन का शृंगार है। 

कोई नहीं पराया, मेरा घर सारा संसार है।।

कुछ और भी दूँ | श्री रामावतार त्यागी | RAMAVTAR TYAGI

कुछ और भी दूँ 
श्री रामावतार त्यागी 

राष्ट्रीय भावों से ओत.प्रोत यह कविता बच्चों के कोमल मन में स्वदेश प्रेम की भावना को सहज ही जागृत करती है। कवि देश के लिए सर्वस्व न्यौछावर करने का प्रस्ताव रखा पर इतने से ही उनका मन संतुष्ट नहीं होता। कवि.मन में हर पल राष्ट्र के लिए कुछ और भी अर्पित करने की उत्कट चाहता है। स्वयं को अकिंचन मानते हुए भी कवि अपने हर भावए चाहत और अपनी हर चेष्टा को राष्ट्र माता के चरणों में समर्पित करने को कृत संकल्पित है और देशवासियो को भी प्रेरित करते हैं।

मन समर्पित, तन समर्पित,

और यह जीवन समर्पित,

चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ।

माँ, तुम्हारा ऋण बहुत है, मैं अकिंचन,

किन्तु इतना कर रहा, फिर भी निवेदन

थाल में लाऊँ सजाकर भाल जब,

कर दया स्वीकार लेना वह समर्पण,

गान अर्पित, प्राण अर्पित,

रक्त का कण-कण समर्पित

चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ।

भाँज दो तलवार को लाओ न देरी,

बाँध दो कसकर, कमर पर ढाल मेरी,

भाल पर मल दो चरण की धूल थोड़ी,

शीश पर आशीष की छाया घनेरी,

स्वप्न अर्पित, प्रश्न अर्पित,

आयु का क्षण-क्षण समर्पित,

चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ।

तोड़ता हूँ मोह का बंधन, क्षमा दो,

गाँव मेरे, द्वार-घर-आँगन क्षमा दो,

आज सीधे हाथ में तलवार दे दो,

और बायें हाथ में ध्वज को थमा दो।

ये सुमन लो, यह चमन लो,

नीड़ का तृण-तृण समर्पित,

चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ।