गुरुवार, 9 दिसंबर 2021

अभिनव मनुष्य | रामधारीसिंह 'दिनकर' | RAMDHARI SINGH DINKAR

अभिनव मनुष्य 
रामधारीसिंह 'दिनकर'


इस पद्यभाग में वैज्ञानिक युग और आधुनिक मानव का विश्लेषण हुआ है। कवि दिनकर जी इस कविता द्वारा यह संदेश देना चाहते हैं कि आज के मानव ने प्रकृति के हर तत्व पर विजय प्राप्त कर ली है। परंतु कैसी विडबना है कि उसने स्वयं को नहीं पहचाना, अपने भाईचारे को नहीं समझा। प्रकृति पर विजय प्राप्त करना मनुष्य की साधना है, मानव-मानव के बीच स्नेह का बाँध बाँधना मानव की सिद्धि है। जो मानव दूसरे मानव से प्रेम का रिश्ता जोड़कर आपस की दुरी को मिटाए, वही मानव कहलाने का अधिकार होगा।

इस कविता के द्वारा बच्चे स्नेह, मानवीयता, भाईचारा आदि का महत्व समझ सकते हैं।

आज की दुनिया विचित्र, नवीन;

प्रकृति पर सर्वत्र है विजयी पुरुष आसीन।

है बंधे नर के करों में पारि, विद्युत, भाप,

हुक्म पर चढ़ता-उतरता है पवन का ताप।

नहीं बाकी कहीं व्यवधान

लाँच सकता नर सरित् गिरि सिन्धु एक समान।



यह मनुज,

जिसका गगन में जा रहा है यान,

कांपते जिसके करों को देख कर परमाणु।

यह मनुज, जो सृष्टि का शृंगार,

शान का, विज्ञान का, आलोक का आगार।

व्योम से पाताल तक सब कुछ इसे है ज्ञेय,

पर, न यह परिचय मनुज का, यह न उसका श्रेय।


श्रेय उसका, बुद्धि पर चैतन्य उर की जीत,

श्रेय मानव की असीमित मानवों से प्रीत;

एक नर से दूसरे के बीच का व्यवधान

तोड़ दे जो, बस, वही ज्ञानी, वही विद्वान, और मानव भी यहीं।

चलना हमारा काम है | शिवमंगल सिंह 'सुमन' | SHIVMANGAL SINGH SUMAN

चलना हमारा काम है 
शिवमंगल सिंह 'सुमन'

बच्चे इस कविता के द्वारा यह सीखते हैं कि जीवन के सफर में अनेक रुकावटें आती हैं और उनका सामना करते हुए लक्ष्य प्राप्ति तक कदम बढ़ानेवाला व्यक्ति आदरणीय होता है।

गति प्रबल पैरों में भरी

फिर क्यों रहूँ दर दर खड़ा

जब आज मेरे सामने

है रास्ता इतना पड़ा

जब तक न मंजिल पा सकूँ,

तब तक मुझे न विराम है,

चलना हमारा काम है।


मैं पूर्णता की खोज में

दर-दर भटकता ही रहा

प्रत्येक पग पर कुछ न कुछ

रोड़ा अटकता ही रहा

पर हो निराशा क्यों मुझे ?

जीवन इसी का नाम है,

चलना हमारा काम है।


कुछ साथ में चलते रहे

कुछ बीच ही से फिर गए,

पर गति न जीवन की रुकी

जो गिर गए सो गिर गए

जो रहे हर दम,

उसी की सफलता अभिराम है,

चलना हमारा काम है।

मंगलवार, 7 दिसंबर 2021

वृक्षप्रेमी तिम्मक्का | सालुमरदा तिम्मक्का | VRUKSHA PREMI THIMMAKKA | THIMMAKKA

वृक्षप्रेमी तिम्मक्का

इस पाठ में 'सालुमरदा तिम्मक्का' के अमूल्य पर्यावरण प्रेम का परिचय दिया गया है, जिससे बच्चे पर्यावरण की रक्षा करने में अपना निष्ठापूर्ण सहयोग दे सकते हैं।

सालुमरदा तिम्मक्का का नाम आज कर्नाटक के कोने-कोने में व्याप्त है। कर्नाटक सरकार ने उन्हें इतने सारे पुरस्कारों से सम्मानित किया है कि समाज-सेवा के क्षेत्र में यह महिला एक मिसाल बन गयी है। इस आदर्श महिला के जीवन के बारे में हम कितना जानते हैं ! आइए, ग्रामीण प्रदेश के गरीब परिवार में जन्म लेनेवाली एक अनपढ़ महिला के उदात्त व्यक्तित्व एवं कार्य का परिचय पावें।

तिम्मक्का का जन्म तुमकूरु जिला, गुब्बी तालुका में से गाँव कक्केनहल्ली में हुआ। उनके पिता चिक्करगय्या और माता विजयम्मा थे। तिम्मक्का इनकी छ: संतानों में से एक एक छोटे थी। तिम्मक्का के मां-बाप मेहनत-मजदूरी करते हुए अपना पेट पालते थे।

तिम्मरका के पति का नाम बिक्कला चिक्कय्या था। वे भी अनपढ़ थे। रोज़ दूसरों के खेत में पसीना बहाकर काम किया करते थे। इस दंपति को एक-एक कौर के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती थी। कमाई भी बहुत कम थी। यदि एक दिन मजदूरी नहीं करते तो उन्हें भूखे रहना पड़ता था।

तिम्मक्का निस्संतान थीं। पति-पत्नी बच्चों के लिए तरस जाते थे। अंत में उन्होंने एक बच्चे को गोद लिया। दत्तक पुत्र के सगे मां बाप को लोगों की कटु निंदा सुननी पड़ी। उन्होंने अपने बेटे को वापस ले लिया। अपना दत्तक पुत्र खोकर तिम्मक्का बहुत दुःखी हुई। लेकिन सन् 2005 में उन्होंने बल्लूरु के उमेश बी.एन. को पुत्र के रूप में अपनाया जो अब उनकी देखभाल कर रहे हैं।

तिम्मक्का और चिक्कय्या दोनों ने निश्चय किया कि अपने आप को किसी धर्म-कार्य में लगा लें। उनके गाँव के पास ही श्रीरंगस्वामी का मंदिर था, जहां हर साल मेला लगता था। वहाँ आनेवाले जानवरों के लिए पीने के पानी का इंतज़ाम किया।

तिम्मरका ने रास्ते के दोनों ओर पेड़ लगाने, सींचने, बढ़ाने की बात सोची। यह काम आसान नहीं था। फिर भी उन्होंने हुलिकल और कुदूर के बीच के चार कि.मी. के रास्ते के दोनों ओर के डाल लगाये। उन पेड़ा को भेड़-बकरियों से रक्षा करने की व्यवस्था की।

पहले साल दस, दूसरे साल पंद्रह और तीसरे साल में नब्बे पेड़ लगाये। उन्हें अपने बच्चों की तरह प्रेम से पाला-पोसा। यह काम निरंतर दस सालों तक चलता रहा। पेड़ राहगीरों को छाया देने के साथ-साथ, पक्षियों के आश्रयधाम भी बन गए।

तिम्मक्का के जीवन में मुसीबत की घड़ियां शुरू हुईं। तिम्मक्का के पति की तबीयत खराब हुई। बुरी हालत में चिक्कय्या चल बसे। तिम्मक्का अब अकेली पड़ गयीं। फिर भी हिम्मत न हारी और अपने कार्य में तल्लीन रहीं।

तिम्मक्का ने अब तक 8000 से अधिक पेड़ लगाये हैं। अब हमारी कर्नाटक सरकार ने उन पेड़ों की रक्षा करने का बीड़ा उठाया है। तिम्मक्का को उनकी निष्ठा, त्याग तथा सेवा के लिए नाडोज पुरस्कार, राष्ट्रीय नागरिक पुरस्कार, इंदिरा प्रियदर्शिनी वृक्ष मित्र, वीर चक्र, कर्नाटक कल्पवल्ली, गाड़ फ्री फिलिप्स धैर्य पुरस्कार, विशालाक्षी पुरस्कार, डॉ.कारंत पुरस्कार, कर्नाटक सरकार के महिला और शिशु कल्याण विभाग के द्वारा सम्मान पत्र आदि अनेकानेक पुरस्कारों से अलंकृत किया गया है। तिम्मक्का जी सन् 2012 में संपन्न प्रथम राष्ट्रीय पर्यावरण सम्मेलन की अध्यक्षा रही।

पर्यावरण संरक्षण के साथ-साथ तिम्मक्का अन्य सामाजिक कार्य भी कर रही हैं। अपने पति की याद में उन्होंने हुलिकल ग्राम में गरीबों की निःशुल्क चिकित्सा के लिए एक अस्पताल के निर्माण कराने का संकल्प किया है। जो भी धनराशि पुरस्कार के रूप में तिम्मनका को मिली है, उसे वह सामाजिक कार्य तथा दीन-दुखियों की सेवा के लिए अर्पित कर रही हैं।

अपने जीवन में दर्द और तकलीफ उठाने के बावजूद सार्थक कार्य करनेवाली तिम्मक्का का व्यक्तित्व सबके लिए आदर्श है। सरकारी संसाधनों के अभाव में भी कोई एक व्यक्ति केवल अपनी निष्ठा व श्रद्धा की बदौलत किस तरह सामाजिक कार्य के लिए स्वयं को समर्पित कर सकता है, इसके लिए एक अत्युत्तम निदर्शन हैं तिम्मक्का।

तिम्मक्का ने अपने जीवन काल में बहुत सारे पेड़ लगाकर उनकी देख-रेख की है। कतारों में शोभायमान बरगद के पेड़ लगाने के कारण वे सालुमरदा तिम्मक्का नाम से जानी जाती हैं।

गिल्लू | महादेवी वर्मा | GILLU | MAHADEVI VERMA | HINDI STORY

गिल्लू
महादेवी वर्मा

पाठ का आशय : कौन कह सकता है कि पशु-पक्षी भावहीन प्राणी हैं? वे भी हमारी तरह कभी-कभी हमसे भी अधिक भावानुकूल, विचारयान् और सहृदय व्यवहार करते हैं। महादेवी वर्मा ने एक छोटा-सा जीप, गिलहरी के बच्चे का रेखांकन कर प्राणी-जगत् की मानव-सहज जीवन शैली का प्रभावशाली चित्रण किया है। आज के संदर्भ में जहाँ मानय के स्वार्थ के कारण पशु-पक्षी की जातियाँ लुप्त होती जा रही है, यहाँ महादेवी वर्मा जी का यह 'संस्मरण' उनकी रक्षा करने और उनके प्रति प्रेमभाव जगाने की दिशा में एक सार्थक प्रयत्न सिद्ध होता है।
***
इस पाठ से लेहमाव तथा प्राणी-दया की सीख मिलती है । पशु-पक्षियों के स्वभाव और उनकी जीवन-शैली के साथ-साथ उनके प्रति महादेवी वर्मा के प्रेम से परिचित होते हैं। 
अचानक एक दिन सवेरे कमरे से बरामदे में आकर मैंने देखा दो कौए एक गमले के चारों ओर चोंचों से छुआ-छुऔवल जैसा खेल खेल रहे हैं। यह काकभुशुण्डि भी विचित्र पक्षी है - एक साथ समादरित, अनादरित, अति सम्मानित, अति अवमानित। हमारे वेचारे पुरखे न गल्ड के रूप में आ सकते हैं, न मयूर के, न हंस के। उन्हें पितरपक्ष में हमसे कुछ पाने के लिए काक बनकर ही अवतीर्ण होना पड़ता है। इतना नहीं, हमारे दूरस्थ प्रियजनों को भी आने का मधुर संदेश इनके कर्कश स्वर में ही देना पड़ता है। दूसरी ओर हम कौआ और कांव-कांय करने को अवमानना के अर्थ में ही प्रयुक्त करते है।

मेरे काकपुराण के विवेचन में अचानक बाधा आ पड़ी, क्योंकि गमले और दीपार की संधि में छिपे एक छोटे-से जीव पर मेरी पृष्टि रुक गयी। निकट जाकर देखा, गिलहरी का एक छोटा-सा बच्चा है, जो सम्भवतः घोसले से गिर पड़ा है और अब कौए जिसमें सुलभ आहार खोज रहे हैं। काकद्वय की चोंचों के दो घाव उस लघुप्राण के लिए बहुत थे, अतः वह निश्चेष्ट-सा गमले से चिपका पड़ा था। सबने कहा, कौए की चोंच का पाय लगने के बाद यह बच नहीं सकता, अतः इसे ऐसे ही रहने दिया जाये। परन्तु मन नहीं माना - उसे हौले से उठाकर अपने कमरे में लायी, फिर रुई से रक्त पोंछकर घावों पर पेन्सिलिन का मरहम लगाया। कई घंटे के उपचार के उपरान्त उसके मुह में एक बूंद पानी टपकाया जा सका। तीसरे दिन यह इतना अच्छा और आश्वस्त हो गया कि मेरी उंगली अपने दो नन्हें पंजों से पकड़कर, नीले कांच के मोतियों जैसी आँखों से इधर-उधर देखने लगा। तीन-चार मास में उसके स्निग्ध रोयें, झब्बेदार पूंछ और चंचल-चमकीली आंखें सबको विस्मित करने लगीं। हम उसे गिल्लू कहकर बुलाने लगे। मैंने फूल रखने की एक हल्की इलिया में रुई बिछाकर उसे तार खिड़की पर लटका दिया। वर्ष वही गिल्लू का घर रहा। वह स्वयं हिलाकर अपने घर और अपनी कांच के मनकों-सी आंखों से कमरे के भीतर और खिड़की से बाहर न जाने क्या देखता-समझता रहता था। परन्तु उसकी समझदारी और कार्य कलाप पर सबको आश्चर्य होता था। जन में लिखने बैठती तव अपनी ओर मेरा ध्यान आकर्षित करने की उसे इतनी तीव्र इच्छा होती थी कि उसने एक अच्छा उपाय खोज निकाला।

वह मेरे पैर तक आकर सर्र से परदे पर चढ़ जाता और फिर उसी तेजी से उतरता। उसका यह दौड़ने का क्रम तब तक चलता, जब तक मैं उसे पकड़ने के लिए न उठती। कभी मैं गिल्लू को पकड़कर एक लंबे लिफ़ाफ़े में इस प्रकार रख देती कि उसके अगले दो पंजों और सिर के अतिरिक्त सारा लघु गात लिफाफे के भीतर बंद रहता। इस अद्भुत स्थिति में कभी-कभी घंटों मेज़ पर दीवार के सहारे खड़ा रहकर वह अपनी चमकीली आंखों से मेरा कार्य-कलाप देखा करता। भूख लगने पर चिक-चिक करके मानो वह मुझे सूचना देता और काजू या बिस्कुट मिल जाने पर उसी स्थिति में लिफ़ाफ़े से बाहरवाले पंजों से पकड़कर उसे कुतरता रहता। फिर गिल्लू के जीवन का प्रथम वसंत आया। बाहर की गिलहरियां खिड़की की जाली के पास आकर चिक-चिक करके न जाने क्या कहने लगीं। गिल्लू को जाली के पास बैठकर अपनेपन से बाहर झांकते देखकर मुझे लगा कि इसे मुक्त करना आवश्यक है। मैने कीलें निकालकर जाली का एक कोना खोल दिया और इस मार्ग से गिल्लू ने बाहर जाने पर सचमुच ही मुक्ति की सांस ली। इतने छोटे जीव को घर में पले कुत्ते-विल्लियों से बचाना भी एक समस्या ही थी। कमरे से बाहर जाने पर वह भी खिड़की की खुली जाली की राह वाहर चला जाता और दिन भर गिलहरियों के झुण्ड का नेता बना, हर डाल पर उछलता-कूदता रहता और ठीक चार बजे वह खिड़की से भीतर आकर अपने झूले में झूलने लगता। मुझे चौंकाने की इच्छा उसमें न जाने कब और कैसे उत्पन्न हो गयी थी। कभी फूलदान के फूलों में छिप जाता, कभी परदे की चुप्तट में और कभी सोनजुही की पत्तियों में।

मेरे पास बहुत से पशु-पक्षी हैं और उनका मुझसे लगाव भी कम नहीं है। परन्तु उनमें से किसी को मेरे साथ मेरी थाली में खाने की हिमत छु  है, ऐसा मुझे स्मरण नहीं आता। गिल्लू इनमें अपवाद था। में जैसे ही खाने के कमरे में पहुंचती, यह खिड़की से निकलकर आंगन की दीवार बरामदा पार करके मेज पर पहुंच जाता और मेरी थाली में बैठ जाना चाहता। बड़ी कठिनाई से मैंने उसे थाली के पास बैठना सिखाया, जहां बैठकर यह मेरी थाली में से एक-एक चावल उठाकर बड़ी सफाई से खाता रहता। काजू उसका प्रिय खाद्य था और कई दिन काजू न मिलने पर यह अन्य खाने की चीजें या तो लेना बंद कर देता था या भूले से नीचे फेंक देता था। उसी बीच मुझे मोटर-दुर्घटना में आहत होकर कुछ दिन अस्पताल में रहना पड़ा। उन दिनों जब मेरे कमरे का दरवाज़ा खोला जाता, गिल्लू अपने झूले से उतरकर दौड़ता और फिर किसी दूसरे को देखकर तेजी से अपने घोंसले में जा बैठता। सब उसे काजू दे जाते, परंतु अस्पताल से लौटकर जब मैंने उसके झूले की सफाई की तो उसमें काजू भरे मिले, जिनसे ज्ञात होता था कि यह उन दिनों अपना प्रिय खाद्य कितना कम खाता रहा। मेरी अस्वस्थता में वह तकिये पर सिरहाने बैठकर अपने नन्हे-नन्हे पंजों से मेरे सिर और बालों को हौले-हौले सहलाता रहता।

गर्मियों में जब मैं दोपहर में काम करती रहती तो गिल्लू न बाहर जाता, न अपने झूले में बैठता। यह मेरे पास रखी सुराही पर लेट जाता और इस प्रकार समीप भी रहता और ठंडक में भी रहता। गिलहरियों के जीवन की अवधि दो वर्ष से अधिक नहीं होती, अतः गिल्लू की जीवन-यात्रा का अंत आ ही गया। दिन भर उसने न कुछ खाया, न वह बाहर गया। पंजे इतने ठंडे हो रहे थे कि मैने जागकर हीटर जलाया और उसे उष्णता देने का प्रयत्न किया। परन्तु प्रभात की प्रथम किरण के साथ ही यह चिर निद्रा में सो गया। उसका झूला उतारकर रख दिया गया है और खिड़की की जाली बंद कर दी गई है, परन्तु गिलहरियों की नयी पीढ़ी जाली के उस पार चिक-चिक करती ही रहती है और सोनजुही खिलती ही रहती है। सोनजुही की लता के नीचे गिल्लू की समाधि है। इसलिए भी कि उसे वह लता सबसे अधिक प्रिय थी, इसलिए भी कि उस लघु गात का, किसी वासन्ती दिन, जुही के पीताभ छोटे फूल के रूप में खिल जाने का विश्वास, मुझे संतोष देता है। 
***
महादेवी वर्मा जी विश्व स्तर की कवयित्री हैं। उन्हें 'आधुनिक मीरा' भी कहा जाता है। उनका जन्म 24 मार्च, 1907 को फरुखाबाद में हुआ। उनके पिता गोविंद प्रसाद वर्मा और माता हेमारानी थीं। उन्होंने प्रयाग के विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम.ए. उपाधि प्राप्त कर प्रयाग के महिला विद्यापीठ में प्रधानाध्यापिका का पद संभाला। महादेवी वर्मा जी ने गन्य और की रचना की है। इनकी प्रमुख रचनाएं हैं : यामा, सांध्यगीत, दीपशिखा, नीरजा, नीहार, अतीत के चलचित्र, स्मृति की रेखाएं, पथ के साथी, मेरा परिवार, श्रृंखला की कड़ियां आदि। महादेवी वर्मा जी को सेक्सरिया, मंगल प्रसाद, द्विवेदी पदक आदि अनेक पुरस्कार प्राप्त हैं। उनकी 'यामा' के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त है। इस महान् रचनाकार का निधन सितंबर , सन् 1987 को हुआ।

सोमवार, 6 दिसंबर 2021

कोई नहीं पराया | श्री गोपाल दास ’नीरज‘ | GOPALDAS NEERAJ

कोई नहीं पराया 
श्री गोपाल दास ’नीरज‘ 

प्रस्तुत कविता मनुष्य-मनुष्य के बीच के बंटवारे, विभेद, जाति, लिंग, धर्म, रंग, वर्ण जनित विभिन्न तरह की संकीर्णताओं पर मन में सवाल खड़ा करता है। कवि प्रस्तुत कविता के जरिए धर्म और जाति से जुड़ी तमाम नफरत की दीवारों को गिराने का आह्वान करते हैं। कवि एकता का संदेश देते हुए कहते हैं कि उसका आराध्य मनुष्य मात्र है और उसके लिए देवालय हर इंसान का घर है। कवि स्पष्ट कहते हैं कि इस संसार में कोई पराया नहीं है सब ईश्वर की संतान हैं।

ईश्वर को लोग अपनी समझ और सन्दर्भ से अल्लाह, गॉड, राम, रहीम कहते हैं। जिस तरह से फूल, बाग की शोभा पहले है, डाल की शोभा बाद में है, वैसे ही मनुष्य जाति, धर्म, प्रान्त अथवा राष्ट्र की शोभा बाद में है, पहले विश्व की शोभा है। इस तरह से कवि “वसुधैव कुटुम्बकम” के सहज संदेश को कविता के जरिए सम्प्रेषित करते हैं।

कोई नहीं पराया, मेरा घर सारा संसार है।

मैं न बँधा हूँ, देश-काल की जंग लगी जंजीर में,

मैं न खड़ा हूँ जात-पाँत की ऊँची-नीची भीड़ में,

मेरा धर्म न कुछ स्याही-शब्दों का सिर्फ गुलाम है,

मैं बस कहता हूँ कि प्यार है तो घट-घट में राम है,

मुझसे तुम न कहो मंदिर-मस्जिद पर सर मैं टेक दूँ,

मेरा तो आराध्य आदमी, देवालय हर द्वार है।

कोई नहीं पराया, मेरा घर सारा संसार है।।


कहीं रहे कैसे भी मुझको प्यारा यह इंसान है,

मुझको अपनी मानवता पर बहुत-बहुत अभिमान है,

अरे नहीं देवत्व, मुझे तो भाता है मनुजत्व ही,

और छोड़कर प्यार नहीं स्वीकार, सकल अमरत्व भी,

मुझे सुनाओ तुम न स्वर्ग-सुख की सुकुमार कहानियाँ,

मेरी धरती सौ-सौ स्वर्गों से ज्यादा सुकुमार है।

कोई नहीं पराया, मेरा घर सारा संसार है।।


मैं सिखलाता हूँ कि जिओ और जीने दो संसार को,

जितना ज्यादा बाँट सको तुम बाँटो अपने प्यार को,

हँसो इस तरह, हँसे तुम्हारे साथ दलित यह धूल भी,

चलो इस तरह कुचल न जाए पग से कोई फूल भी,

सुख न तुम्हारा सुख, केवल जग का भी इसमें भाग है,

फूल डाल का पीछे, पहले उपवन का शृंगार है। 

कोई नहीं पराया, मेरा घर सारा संसार है।।

कुछ और भी दूँ | श्री रामावतार त्यागी | RAMAVTAR TYAGI

कुछ और भी दूँ 
श्री रामावतार त्यागी 

राष्ट्रीय भावों से ओत.प्रोत यह कविता बच्चों के कोमल मन में स्वदेश प्रेम की भावना को सहज ही जागृत करती है। कवि देश के लिए सर्वस्व न्यौछावर करने का प्रस्ताव रखा पर इतने से ही उनका मन संतुष्ट नहीं होता। कवि.मन में हर पल राष्ट्र के लिए कुछ और भी अर्पित करने की उत्कट चाहता है। स्वयं को अकिंचन मानते हुए भी कवि अपने हर भावए चाहत और अपनी हर चेष्टा को राष्ट्र माता के चरणों में समर्पित करने को कृत संकल्पित है और देशवासियो को भी प्रेरित करते हैं।

मन समर्पित, तन समर्पित,

और यह जीवन समर्पित,

चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ।

माँ, तुम्हारा ऋण बहुत है, मैं अकिंचन,

किन्तु इतना कर रहा, फिर भी निवेदन

थाल में लाऊँ सजाकर भाल जब,

कर दया स्वीकार लेना वह समर्पण,

गान अर्पित, प्राण अर्पित,

रक्त का कण-कण समर्पित

चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ।

भाँज दो तलवार को लाओ न देरी,

बाँध दो कसकर, कमर पर ढाल मेरी,

भाल पर मल दो चरण की धूल थोड़ी,

शीश पर आशीष की छाया घनेरी,

स्वप्न अर्पित, प्रश्न अर्पित,

आयु का क्षण-क्षण समर्पित,

चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ।

तोड़ता हूँ मोह का बंधन, क्षमा दो,

गाँव मेरे, द्वार-घर-आँगन क्षमा दो,

आज सीधे हाथ में तलवार दे दो,

और बायें हाथ में ध्वज को थमा दो।

ये सुमन लो, यह चमन लो,

नीड़ का तृण-तृण समर्पित,

चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ।

वर्षा-बहार | श्री मुकुटधर पांडेय | MUKUTDHAR PANDEY

वर्षा-बहार - श्री मुकुटधर पांडेय 

छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध और प्रकृति के चितेरे कवि श्री मुकुटधर पाण्डेय जी की प्रस्तुत कविता वर्षा बहार, वर्षा ऋतु के मनोरम दृश्यों और भावों को सहज रूपों में अभिव्यक्त करती है। वर्षा के कारण संपूर्ण प्राकृतिक परिवेश में जिस तरह के मोहक और आकर्षक परिवर्तन को कवि देखते और महसूस करते हैं उसे सरल भाव-लय में कविता में व्यक्त करते चलते हैं। कवि की दृष्टि मेघमय आसमान से लेकर हवा, पानी बादल, बिजली, जीव, जलचर, सौरभ, सुगीत, हंस, किसान सभी पर पडती चलती है। अंत में कवि का आतुर मन गा उठता है-“इस भाँति है अनोखी, वर्षा बहार भू पर, सारे जगत की शोभा है, निर्भर है इसके ऊपर”।

वर्षा बहार सबके, मन को लुभा रही है

नभ में छटा अनूठी, घनघोर छा रही है।

बिजली चमक रही है, बादल गरज रहे हैं

पानी बरस रहा है, झरने भी बह रहे हैं।

चलती हवा है ठंडी, हिलती हैं डालियाँ सब,

बागों में गीत सुंदर, गाती हैं मालिनें अब।

तालों में जीव जलचर, अति हैं प्रसन्न होते,

फिरते लाखो पपीहे, हैं ग्रीष्म ताप खोते।

करते हैं नृत्य वन में, देखो ये मोर सारे,

मेंढक लुभा रहे हैं, गाकर सुगीत प्यारे।

खिलता गुलाब कैसा, सौरभ उड़ा रहा है,

बागों में खूब सुख से, आमोद छा रहा है।

चलते कतार बाँधे, देखो ये हंस सुंदर,

गाते हैं गीत कैसे, लेते किसान मनहर।

इस भाँति है अनोखी, वर्षा बहार भू पर, 

सारे जगत की शोभा, निर्भर है इसके ऊपर।

मातृभूमि | भगवतीचरण वर्मा | MATHRUBHUMI | BHAGWATI CHARAN VERMA

मातृभूमि - भगवतीचरण वर्मा 

भगवतीचरण वर्मा के नाम को हिन्दी साहित्य में आदर के साथ लिया जाता है। प्रस्तुत कविता में कवि के देशप्रेम की झलक दिखायी देती है। वे मातृभूमि को प्रणाम करते हुए उसमें विद्यमान अपार वन-संपदा, खनिज संपत्ति का वर्णन करते हुए भारत के महान् विभूतियों का स्मरण करते हैं। इस कविता से भारत की महानता का परिचय प्राप्त होता है।

इस कविता के द्वारा कवि मातृभूमि की विशेषता का परिचय देते हुए छात्रों के मन में देशप्रेम का भाव जगाना चाहते हैं।

मातृ-भू, शत-शत बार प्रणाम!

अमरों की जननी, तुमको शत-शत बार प्रणाम!

मातृ-भू, शत-शत बार प्रणाम!

तेरे उर में शायित गांधी, वुद्ध और राम,

मातृ-भू शत-शत बार प्रणाम।

हरे-भरे हैं खेत सुहाने, फल-फूलों से युत वन-उपवन,

तेरे अंदर भरा हुआ है। खनिजों का कितना व्यापक धन।

मुक्त-हस्त तू बांट रही है सुख-संपत्ति, धन-धाम,

मातृ-भू, शत-शत बार प्रणाम।

एक हाथ में न्याय- पताका, शान-दीप दूसरे हाथ में,

जग का रूप बदल दे, हे माँ, कोटि-कोटि हम आज साथ में।

गूंज उठे जय-हिंद नाद से सकल नगर और ग्राम,

मातृ-भू शत-शत बार प्रणाम।

शनिवार, 4 दिसंबर 2021

महात्मा गाँधी | श्री सत्यकाम विद्यालंकार | MAHATMA GANDHI

महात्मा गाँधी 
श्री सत्यकाम विद्यालंकार 

(आशय: अपने जीवन के कष्टों को झेलने पर भी सत्य, अहिंसा, कर्तव्य आदि के पथ से विचलित न होकर, शांति का उपदेश देनेवाले राष्ट्रपिता महात्मा गांधीजी का संक्षिप्त परिचय पाना इस पाठ का आशय है।)

“एक विशाल काया-मूर्ति की तरह बापू भारत के इतिहास की आधी शताब्दी में पांव फैलाए खड़े हैं। यह मूर्ति भौतिक नहीं, आत्मिक है...

यह समय विश्व में युद्धों और क्रांतियों का रहा है। किन्तु हमारे देश की घटनाएँ उनसे बिलकुल अलग और स्पष्ट दिखाई देती हैं, क्योंकि उनकी रचना दूसरे ही धरातल पर हुई थी। इस युग में भारत के विषय में केवल यही आश्चर्य की बात नहीं थी कि सारे देश ने दुनिया के रास्ते से अलग चलकर, सबसे भिन्न और ऊंचे स्तर पर काम किया, बल्कि यह भी कि इतने लम्बे समय तक किया। यह एक चमत्कार से कम नहीं था। कि इतने इस चमत्कार के रहस्य को तब तक कोई नहीं समझ सकता, जब तक हम उस महान् पुरुष के चमत्कारी जीवन पर दृष्टि नहीं डालते, जिसने अपने हाथों इस युग को बनाया था। यही महान् पुरुष महात्मा गांधी थे।

उनके कठिन कार्यों, संघर्षों, विषम साहसों से परिपूर्ण दीर्घ जीवन में कोई भी ऐसा स्वर नहीं निकला, जो बेसुरा लगे। उनकी समस्त विविध प्रवृत्तियों में आश्चर्यजनक एकरसता भरी थी, जिसमें उनके मुख से निकला हुआ प्रत्येक शब्द और उनका प्रत्येक कार्य ठीक प्रकार से सज जाता था। इस प्रकार बिना जाने ही वे पूर्ण कलाकार बन गए थे, क्योंकि उन्होंने जीने की कला का अभ्यास किया था। यह दुनिया के जीने की कला से सर्वथा भिन्न थी - फिर भी दुनिया उन्हें मानती थी।

जैसे-जैसे वृद्ध होते गए, उनका शरीर उनके भीतर की शक्तिशाली आत्मा का वाहन-मात्र दिखाई देने लगा। उनकी बात सुनते हुए या उन्हें देखते हुए लोग उनके बाह्य शरीर को देखना ही भूल जाते थे। इसलिए, “जहाँ वे बैठते थे, वह स्थान मन्दिर के समान पवित्र बन जाता था और जहां वे चलते थे, वह मार्ग पूजा की जगह बन जाता था।"

ये उद्गार हैं, जो नेहरु ने गांधीजी की मृत्यु के बाद उनके प्रति व्यक्त किए थे। इनसे हम गांधीजी के विशाल व्यक्तित्व का कुछ अनुमान लगा सकते हैं। फिर भी हम उनके इतने निकट हैं कि उनकी महानता को हमारी आंखें स्पष्ट रुप से नहीं देख पातीं। आनेवाली पीढ़ियाँ शायद उन्हें और अधिक स्पष्ट रुप से देख सकेंगी और विश्व वैज्ञानिक आइन्स्टाइन के शब्दों में : "उन्हें आश्चर्य होगा कि ऐसा विलक्षण व्यक्ति सदेह रूप में कभी पृथ्वी पर रहता था।"

हमारे देश को यह सौभाग्य प्राप्त है कि उसने एक ऐसी महान् आत्मा को जन्म दिया, जिसकी गणना शताब्दियों तक संसार के श्रेष्ठतम महापुरुषों में होगी।

गांधीजी का वास्तविक नाम मोहनदास करमचंद गांधी था। इनके पिता राजकोट के दीवान थे। सन् 1869 की 2 अक्तूबर को, पोरबन्दर नामक नगर में गाँधीजी का जन्म हुआ। धर्मभीरु माता-पिता के आचार-विचारों का प्रभाव गांधीजी पर भी पड़ा और वे बचपन से ही सत्य के पुजारी बन गए ।

पिता के देहान्त के बाद गांधीजी 4 सितम्बर, 1888 बैरिस्टरी की परीक्षा के लिए विलायत गए। जाने से पूर्व गांधीजी अपनी माता से यह प्रतिज्ञा कर गए थे कि वे मांस-मदिरा आदि सब व्यसनों से दूर रहेंगे। इस प्रतिज्ञा ने आपको बड़ा आत्मिक बल दिया। इंग्लैंड के उत्तेजक वातावरण का आकर्षण भी आपको अपनी ओर आकृष्ट नहीं कर सका। फैशन की ओर थोड़ा-सा झुकाव हुआ था, किन्तु माँ को दी गई प्रतिज्ञा ने उन्हें फिर सादे जीवन की ओर झुका दिया। इंग्लैंड में आपने 'टालस्टाय' और 'रस्किन' की पुस्तकों का भी अध्ययन किया। इनके अध्ययन तथा गीता-बाइबल आदि के चिन्तन-मनन ने आपके धार्मिक भावों को और भी दृढ़ कर दिया।

तीन साल की पढ़ाई के बाद सन् 1891 में गांधीजी बैरिस्टर बनकर भारत वापस आ गए और राजकोट में वकालत शुरु कर दी। यहाँ वकालत कर ही रहे थे कि पोरबंदर की एक बड़ी व्यापारी संस्था ‘अब्दुल्ला एण्ड कम्पनी' के मुकदमें की पैरवी के लिए आपको दक्षिण अफ्रीका जाना पड़ा।

दक्षिण अफ्रीका से ही गांधीजी का वास्तविक जीवन शुरु होता है। अब तक जो संस्कार उनके मन में थे, उनकी परीक्षा का समय आ गया।

दक्षिण अफ्रीका में उन दिनों भारतीयों के साथ बड़ा बुरा व्यवहार किया जाता था। आपका मन इस व्यवहार से विद्रोही हो उठा। अदालत में जब आप अपने केस की पैरवी करने गए, तो जज ने आपसे पगड़ी उतारने को कहा। आपने इसे अपना अपमान समझा और आप बिना पगड़ी उतारे बाहर चले आए। यह घटना अखबारों में छपी। दक्षिण अफ्रीका के भारतीयों का ध्यान आपकी ओर खिंच गया। इसके कुछ दिनों और घटना हो गई। आप रेलगाड़ी के प्रथम दर्जे के डिब्बे में यात्रा कर रहे थे। एक अंग्रेज ने आकर आपको उतारना चाहा। आपने उसे टिकट दिखाया। अंग्रेज ने टिकट की परवाह किए बिना उन्हें धकेलकर नीचे उतार दिया। वहाँ अंग्रेजों द्वारा उनका कई बार अपमान हुआ। इन अपमानों के बाद गांधीजी उद्विग्न रहने लगे।

अन्त में अपने मुवक्किल के केस का फैसला अदालत की सहायता के बिना करवाकर आप दक्षिण अफ्रीका के भारतीयों का संगठन करने के काम में लग गए। गांधीजी चाहते थे कि वे अंग्रेजों के अपमानपूर्ण व्यवहार का सामूहिक रूप से उत्तर दे सकें। गांधीजी ने उसी उद्देश्य से वहाँ 'नेटाल इण्डियन कांग्रेस' की स्थापना की। इस संस्था द्वारा वहाँ के भारतीयों ने आत्मसम्मान का पाठ सीखा।

संगठन के इन प्रयत्नों ने वहाँ के अंग्रेजों को गांधीजी का शत्रु बना दिया। कई बार उन्होंने गांधीजी की हत्या के प्रयत्न किए किन्तु गांधीजी हर बार बच गए। हत्यारों की इन चेष्टाओं का जिक्र पार्लियामेंट में भी हुआ। ब्रिटेन के प्रधानमन्त्री ने दक्षिण अफ्रीका की सरकार को हत्या की चेष्टा करनेवालों पर मुकदमा चलाने को भी लिखा, किन्तु गांधीजी ने किसी पर मुकदमा चलाने से इनकार कर दिया।

अंग्रेज़ों के दुर्व्यवहार होते हुए भी गांधीजी ने अंग्रेज़ों के विरुद्ध अफ्रीका के आदिम निवासी 'बोअर' लोगों के युद्ध में अंग्रेज़ों को सहायता के दी। घायलों की सेवा का काम आपने अपने हाथों में ले लिया। इस सेवा-कार्य से अंग्रेज़ तथा भारतीय दोनों गांधीजी को मानने लगे।

दक्षिण अफ्रीका से लौटकर आपने बम्बई में वकालत प्रारम्भ कर दी, किन्तु कुछ ही महीनों बाद दक्षिण अफ्रीका के लोगों का बुलावा आ गया। आप फिर दक्षिण अफ्रीका पहुँचे। वहाँ आपने भारतीयों के लिए अपमानजनक कानून के प्रति विरोध प्रदर्शित करने के लिए सत्याग्रह आरम्भ कर दिया। सत्याग्रह का यह सबसे पहला प्रयोग जनरल स्मट्स ने गांधीजी को बुलाकर उन्हें कानून रद्द करने का वचन दिया, किन्तु स्मट्स ने अपना वचन पूरा नहीं किया। गांधीजी का फिर सत्याग्रह करना पड़ा। इसकी चर्चा अफ्रीका के बाहर के देशों में भी हुई। सत्याग्रह का यह युद्ध कई वर्ष चला। अन्त में स्मट्स को उक्त कानून में सुधार करने पड़े, की यह पहली जीत थी।

सत्याग्रह ग्यारह वर्ष दक्षिण अफ्रीका में रहने के बाद गांधीजी भारत लौटे। ग्यारह वर्षों में उन्होंने दो व्रत लिए थे; पहला यह कि भविष्य में वे ब्रह्मचारी रहेंगे, दूसरा यह कि उनका शेष जीवन लोकसेवा में व्यतीत होगा। गांधीजी का शेष सारा जीवन इन दो व्रतों की साधना का इतिहास है।

भारत आते ही आपने गोखले की सलाह मानकर भारत का भ्रमण आरम्भ कर दिया। वीरमगाम में जकात के सम्बन्ध में जनता बड़ी दुःखी थी। आपने उनका दुःख वायसराय के सामने रखा। वायसराय ने इन शिकायतों पर उचित ध्यान दिया। इससे काठियावाड़ तथा भारत की जनता आपकी ओर आकृष्ट हुई।

वर्ष-भर देश का दौरा करने के बाद आप अहमदाबाद लौट आए यहाँ आकर आपने साबरमती नदी के किनारे 'सत्याग्रह आश्रम' की नींव रखी। किन्तु देश के दुःखी किसानों की पुकार ने आपको चैन से नहीं बैठने दिया। सबसे पहले बिहार के चम्पारन जिले के किसानों ने आकर गांधीजी से शिकायत की कि वहाँ के अंग्रेज़ ज़मींदार उन पर बड़ा अत्याचार करते हैं। आपने स्वयं चम्पारन जांच की और किसानों की शिकायतें सरकार के सामने रखीं। पहले तो सरकार ने ध्यान नहीं दिया, किन्तु जब सत्याग्रहियों के जत्थे जेलों में भरने लगे तो सरकार को गांधीजी के सुझाव मानने पड़े। जे गांधीजी का यश देश-भर में फैला दिया ।

चम्पारने से आपको अहमदाबाद की मिलों के मालिकों व मज़दूरों का झगड़ा निबटाने के लिए आना पड़ा। आपने मिल-मालिकों को समझाने का बहुत प्रयत्न किया, किन्तु वे नहीं माने। तब आपने मज़दूरों को हड़ताल करने की सलाह दी। हड़ताल का आन्दोलन कुछ मन्द होने लगा, तो आपने उपवास की घोषणा की। यह आपके जीवन का पहला सार्वजनिक उपवास था। तीन दिन के उपवास के बाद ही मिल-मालिकों ने मज़दूरों से समझौता कर लिया।

सन् 1914 में जब पहला महायुद्ध आरम्भ हुआ तो गांधीजी ने धन और जन से अंग्रेज़ों की सहायता की। उस समय आपको अंग्रेज़ों की सच्चाई में विश्वास था। अंग्रेज़ों ने युद्ध में विजयी होने के बाद भारत को स्वतंत्रता देने का वचन दिया था, किंतु युध्द समाप्त होने पर भारत को स्वतन्त्रता के स्थान पर दमनकारी ‘रौलट एक्ट' का कानून भेंट किया गया। अंग्रेज़ों की इस कृतघ्नता पर आपको बड़ा दुःख हुआ। रौलट एक्ट के विरोध में आपने असहयोग और सत्याग्रह करने का निश्चय किया। 30 मार्च, सन् 1919 से यह आन्दोलन शुरू हो गया। सरकार ने निःशस्त्र जनता पर लाठियों और गोलियों की बौछार की| अमृतसर के जलियांवाला बाग में सैकड़ों निर्दोष नर-नारी गोलियों से भून दिए गए। आपने इस घटना की जाँच के कांग्रेस की ओर से एक कमिटी बनाई। गाँव-गाँव में भ्रमण किय रिपोर्ट ने दुनिया की आंखें खोल दी।

अमृतसर की कांग्रेस में आपने देश के सामने असहयोग की योजना रखी। कुछ महीने बाद कलकत्ता में कांग्रेस का विशेष अधिवेशन बुलाया गया। उसमें असहयोग का प्रस्ताव स्वीकार हो समस्त देश की जनता ने पहली बार गांधीजी का नेतृत्व मान लिया। गांधीजी ने देश की बागडोर अपने हाथों से की भारत में अपने का यह पहला आन्दोलन था। हज़ारों शिक्षित, वकील, विद्यार्थी, व्यापारी अपने काम-धन्धे छोड़कर जेल की यात्रा को तैयार हो गए। जेलें भर गईं। किसानों ने भी जत्थे बनाकर जेल यात्रा शुरु कर दी। किन्तु बीच में ही चौरी-चौरा का कांड हो गया। कुछ कष्ट पीड़ित किसानों ने सिपाहियों को जिन्दा जला दिया था। इस घटना से दुःखी होकर गांधीजी ने अपना आन्दोलन वापस ले लिया। अहिंसा उनके आन्दोलन की पहली शर्त थी। अहिंसात्मक रीति से ही वे सत्य का युद्ध करते थे।

सत्याग्रह स्थगित हो गया, किंतु देश को अपने धर्मयुद्ध के लिए तैयार करने का काम चलता रहा। रचनात्मक कार्यों में आपने अपनी सारी शक्ति लगा दी, किन्तु सरकार को यह भी सह्य नहीं था। आपको छः साल की सज़ा दे दी गई। आपके जेल जाने के बाद साम्प्रदायिक दंगों का आरम्भ हुआ। देश-भर में हिन्दू-मुस्लिम उपद्रवों का दौर शुरू हो गया। जेल से छूटकर आपने इन दंगों को सदा के लिए शांत करने के निमित्त इक्कीस दिन के उपवास की घोषणा की। इस घोषणा ने दोनों जातियों के नेताओं का ध्यान साम्प्रदायिक शान्ति की ओर आकृष्ट किया।

सन् 1924 में आप पहली बार बेलगांव कांग्रेस के प्रधान अध्यक्ष बनने के बाद आपने फिर देश का भ्रमण किया। इस भ्रमण में उन्हें यह अनुभव हुआ कि देश के लिए राजनीतिक स्वतन्त्रता भी अधिक आवश्यक कार्य हरिजनों के उद्धार का है। उन्हें भी अन्य वर्गों के समान अधिकार मिलने चाहिए। खादी की कल्पना ने भी इसी दौरे में महत्त्व पकड़ा। परिणाम स्वरूप आपने 'हरिजन संघ की स्थापना की और इन दोनों कार्यों का समावेश भी कांग्रेस के कार्यों में कर दिया। इसके अतिरिक्त मद्यनिषेध, हिंदी-प्रचार, शिक्षा-सुधार आदि रचनात्मक कार्यों में भी आपने पथ-प्रदर्शक का काम किया।

सन् 1930 में गांधीजी ने दूसरे सत्याग्रह युद्ध का आरम्भ किया। इसका आरम्भ 12 मार्च, सन् 1930 के दिन साबरमती आश्रम से दांडी के लिए प्रस्थान करके किया गया था । नमक-कानून तोड़ना इस प्रस्थान का तात्कालिक ध्येय था। ६ अप्रैल को गांधीजी ने दांडी पहुंचकर स्वयं नमक तैयार किया। अगले ही दिन सरकार ने आपको गिरफ्तार कर लिया। गांधीजी की गिरफ्तारी ने आंदोलन की आग में घी का काम किया। हज़ारों सत्याग्रही जेलों में गए। अन्त में सरकार ने लंदन में गोलमेज़ परिषद बुलाई। गांधीजी भी उसमें भाग लेने के लिए लंदन पहुंचे। इस परिषद् से गांधीजी को बहुत निराशा हुई। वे निराश लौटे और लौटते ही 4 जनवरी, सन् 1932 को गिरफ्तार कर लिए गए।

जिन दिनों आप जेल में थे, सरकार ने देश को निर्बल बनाने के लिए एक नई चाल चली। हरिजनों को हिन्दुओं से अलग करने के लिए सरकार ने धारा-सभा में उनको पृथक् प्रतिनिधित्व देने का विचार किया। गांधीजी ने इस निश्चय के विरोध में जेल में ही उपवास शुरु कर दिया। इस उपवास ने सरकार को हिला दिया और उसे अपना निश्चय बदलना पड़ा। इसके बाद ३० अप्रैल, सन् 1933 को गांधीजी ने आत्मशुद्धि के लिए इक्कीस दिन उपवास किया। इस उपवास में आपकी मृत्यु इतनी निकट आ गई थी कि देश-भर में शोक छा गया। किन्तु किसी दिव्य शक्ति ने उनके जीवन की रक्षा कर ली। इक्कीस दिन कार उपवास भी सफलतापूर्वक समाप्त हुआ। हरिजनों को पृथक् प्रतिनिधित्व देने के विरुद्ध अनशन करने के बाद आपने हरिजनों की सेवा का दृढ़ संकल्प किया। 7 नवम्बर, सन् 1033 को आप हरिजन सेवा के लिए धन-संग्रह करने के निमित्त देश के दौरे पर निकल पड़े। इस दौरे में आपको आशातीत सफलता मिली। कुछ ही दिनों में आठ लाख रुपये एकत्र हो गए। 'हरिजन सेवा संघ' स्थापित करके आपने हरिजनों को सेवा का केन्द्र बना दिया।

महायुद्ध ने आपका ध्यान फिर देश की राजनीति की ओर मोड़ा। भारत की जनता से बिना पूछे भारत सरकार ने विश्वयुद्ध में जब जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी, तो आपने सरकार के इस कार्य को भारतीय जनता और जन के चुने हुए प्रतिनिधियों का अपमान समझा। इस अपमान का प्रतिकार यही था कि कांग्रेस के मंत्री और व्यवस्थापिका सभाओं के सदस्य अपने पदों से इस्तीफे दे दें।

इस्तीफे दे दिए गए। गांधीजी ने फिर पूर्ण स्वतन्त्रता की माँग पेश की। सरकार की ओर से इस मांग का अपमानपूर्ण उत्तर मिलने के बाद आपने देश के सामने 'भारत छोड़ो' का प्रस्ताव रखा । 9 अगस्त, सन् 1942 के ऐतिहासिक दिन वह प्रस्ताव पास हो गया। सरकार ने उसी दिन सब नेताओं के साथ गांधीजी को भी गिरफ्तार कर लिया।

जेल में आपको अनेक कष्ट सहने पड़े। जेलयात्रा के प्रथम सप्ताह में ही श्री महादेव देसाई के स्वर्गवास और कुछ महीने बाद कस्तूरबा की विदाई ने आपको दुःखी कर दिया। आपका स्वास्थ्य भी बहुत गिर गया । सन् १९४४ के मई महीने में सरकार ने आपको मुक्त कर दिया। जेल से छूटने के बाद आपने मुस्लिम लीग के नेता मि. जिन्ना से मिलकर देश को अविभक्त रखने का यत्न किया, किन्तु मि. जिन्ना अपनी जिद पर अड़े रहे।

15 अगस्त, 1947 के दिन, जब भारत के शहरों की अट्टालिकाएं अगणित दीपों से जगमगा रही थीं, भारत का भाग्य निर्माता बंगाल में हिन्दू-मुस्लिम दुःखी जनों के साथ आंसू बहा रहा था।

वहाँ से दिल्ली की आग को बुझाने के लिए आप वहाँ पहुंचे। प्रतिदिन शाम को प्रार्थना सभा में शान्ति का उपदेश देते रहे। रक्तपात शान्त न हुआ तो आपने अनशन व्रत ले लिया। तीन-चार दिन के अनशन ने जादू का काम किया। उपद्रव शान्त हो गया।

किन्तु कुछ धर्मान्ध हिन्दू युवकों का खून शान्त नहीं हुआ था। उनके मन में यह धारणा समा गई थी कि गांधीजी मुसलमानों का पक्ष लेते हैं। वे युवक गांधीजी के शत्रु हो गए। उनमें से एक युवक नाथूराम गोडसे ने 30 जनवरी, सन् 1948 की शाम को छः बजे प्रार्थना सभा में जाकर गांधीजी को रिवाल्वर की गोलियों का निशाना बना दिया। तीन बार 'राम', 'राम', 'राम' कहने के बाद गांधीजी ने प्राण छोड़ दिए। गांधीजी की देह अग्नि के अर्पण हो गई, किन्तु उनकी आत्मा आज भी भारत का पथ-प्रदर्शन कर रही है।

सारे जहाँ से अच्छा | डॉ. इकबाल | MUHAMMAD IQBAL | महम्मद इकबाल नूरमहम्मद शेख

सारे जहाँ से अच्छा...
डॉ. इकबाल


कवि परिचय : डॉ. इकबाल (१८७३-१९३८)

इस गीत के रचयिता है उर्दू साहित्य के श्रेष्ठ कवि डॉ. इकबाल। आपका पूरा नाम महम्मद इकबाल नूरमहम्मद शेख है। आप लंदन के केंब्रिज विश्वविद्यालय के कला स्नातक थे और आपने वहीं से स्नातकोत्तर पदवी भी प्राप्त की। फिर विधि पदवी प्राप्त कर के बैरिस्टर बने। जर्मनी के म्यूनिक विश्वविद्यालय से आपने पीएच.डी. की उपाधि भी प्राप्त की। आपकी अप्रतिम काव्य-प्रतिभा के लिए आपको "अल्लामा" उपाधि से सम्मानित किया गया। आज आपको अल्लामा (महान् पंडित) डॉ. इकबाल के नाम से जाना जाता है।

इस प्यारी सी कविता में कवि ने अपने देश का, अर्थात् भारत बखान किया है। अमिट देशप्रेम का यह एक उत्कृष्ट अभिव्यंजन है। स्वर्ग भी ईर्ष्या करे ऐसा प्राकृतिक सौंदर्य यहां का है। यहां के लोग बहुधर्मीय होने भी, बड़े स्नेह के साथ रहते हैं।

सारे जहाँ से अच्छा हिंदोसताँ हमारा

हम बुलबुलें हैं इसकी ये गुलसिताँ हमारा।

गुरबत में हों अगर हम, रहता है दिल वतन में

समझो वहीं हमें भी दिल हो जहाँ हमारा।

परबत वो सब से ऊँचा, हमसाया आसमाँ का

वो संतरी हमारा, वो पासबाँ हमारा।

गोदी में खेलती हैं इसकी हज़ारों नदियाँ

गुलशन है जिनके दमसे रशके जिनाँ हमारा।

मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना

हिंदी हैं हम, वतन है हिंदोसताँ हमारा।