गुरुवार, 2 दिसंबर 2021

अक्कमहादेवी के वचन | AKKA MAHADEVI | मुरझाये फूल में सुगंधि कौन ढूँढ़ेगा? | बच्चे में कौन खोट देखेगा?

अक्कमहादेवी के वचन 

मुरझाये फूल में सुगंधि कौन ढूँढ़ेगा?

बच्चे में कौन खोट देखेगा?

हे देव! विश्वास को ठेस लगने पर

फिर से सद्गुण कौन परखेगा?

हे प्रभु, जले पर कौन नमक छिड़केगा

सुनो, हे चन्नमल्लिकार्जुन

नदी पार करने के बाद मल्लाह को कौन पूछेगा?

कन्नड भाषा की श्रेष्ठ महिला वचनकारों में अक्कमहादेवी का नाम आदर के साथ लिया जाता है। अक्कमहादेवी महान भक्तिन एवं रहस्यवादी कवयित्री थी। चन्नमल्लिकार्जुन को इन्होंने पति के रूप में स्वीकार करके अपनी साधना की। चन्नमल्लिकार्जुन उनके वचनों का अंकित नाम है। इनके सैकड़ों वचन हैं। हिंदी में जो स्थान मीरा का है वही स्थान कन्नड में अक्कमहादेवी का है। उनके प्रस्तुत वचनों द्वारा ईश्वर पर अनन्य भक्ति तथा ज्ञानियों के साथ रहने से होनेवाले लाभों का मार्मिक वर्णन मिलता है।

अक्कमहादेवी के वचनों में नीति एवं वास्तविकता का संगम मिलता है। वे अपने वचनों के द्वारा निरर्थक जीवन डालते हुए कहती हैं - मनुष्य मुरझाए फूल में सुगंध को ढूँढ़ने का प्रयास नहीं करेगा। बच्चे में सच्चाई है या बुराई है, देखने का प्रयास कोई नहीं करेगा। अक्कमहादेवी कहती हैं विश्वास में धक्का लगने के बाद फिर सद्गुण दिखाई देने पर कोई विश्वास नहीं करेगा। कोई पहले ही दुखी है और भी उसे दुखी करने का कौन प्रयास करेगा? हे मेरे भगवान, सुनो जब इस संसार रूपी नदी पार करने पर उस मल्लाह रूपी भगवान को कौन याद करेगा अर्थात् सभी पथ-प्रदर्शक को भूल जायेंगे। यही आज की स्थिति है।

मंगलवार, 30 नवंबर 2021

कल्पना चावला | KALPANA CHAWLA | सितारों से आगे - कल्पना चावल

सितारों से आगे - कल्पना चावला

एक सामान्य सी दुबली-पतली करनाल (हरियाणा) की बिटिया, अपनी प्रतिबद्धता और साहस से इतना कुछ करती रही जो भारत की ही नहीं विश्व की बेटियों में अपनी पहचान कायम कर सकी। माता-पिता की चौथी संतान कल्पना चावला बचपन से नक्षत्र लोक को घंटों निहारा करती थी। वह एक अन्तरिक्ष-यात्री के रूप में स्पेस सटल ‘कोलम्बिया‘ में बैठकर अंतरिक्ष के गूढ़ रहस्य खोलने की यात्रा पर थी। जान जोखिम में डालने वाली इस यात्रा में यह सच है वह अपना जान गँवा बैठी पर एक जीवंत इतिहास अवश्य रच डाली। बचपन के इस वक्तव्य को उसने अपना बलिदान देकर साबित किया कि ‘जो काम लड़के कर सकते हैं वह मैं भी कर सकती हूँ।’

1 फरवरी 2003, विश्व के लोग अपने-अपने टेलीविजन सैट पर आँखें गड़ाए हुए थे। अमेरिका में फ्लोरिडा के केप केनेवरल अंतरिक्ष केंद्र के बाहर दर्शकों की भीड़ थी। सबकी आँखें आकाश की ओर लगी थीं। अवसर था कोलंबिया शटल के पृथ्वी पर लौटने का। भारत के लोग भी आतुरता से टी. वी. पर बैठे इस दृश्य को देख रहे थे। उनकी आतुरता का कारण यह भी था कि इस अंतरिक्ष अभियान में भारत की बेटी, इकतालीस वर्षीया कल्पना चावला भी शामिल थी। उसके परिवार के लोग तो फ्लोरिडा में ही अपनी बेटी के लौटने की प्रतीक्षा कर रहे थे। यहाँ भारत में उसके नगर करनाल में उसी के विद्यालय-टैगोर बाल निकेतन- के लगभग तीन सौ छात्र-छात्राएँ अपने विद्यालय की पूर्व छात्रा, कल्पना चावला के अंतरिक्ष से सकुशल वापस लौटने को उत्सव के रूप में मनाने के लिए एकत्र हुए थे।

प्रकृति के रहस्यों को खोजने में जान का जोखिम रहता ही है। एवरेस्ट विजय करने में दर्जनों पर्वतारोहियों ने अपनी जानें गँवाई हैं। उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव की खोज में भी अनेक सपूतों ने अपने बलिदान किए हैं। यही स्थिति अंतरिक्ष अभियान की भी है। जब तक अभियान पूरी तरह सफल न हो जाए, तब तक अंतरिक्ष यात्रियों, अंतरिक्ष केंद्र के संचालकों, दर्शकों के हृदय में धुकधुकी लगी रहती है। उस दिन भी केप केनेवरल में प्रातः 9 बजे दर्शकों की साँस ऊपर की ऊपर रह गई। पृथ्वी के वायुमंडल में प्रवेश के साथ ही कोलंबिया शटल का संपर्क अंतरिक्ष केंद्र से टूट गया। सहसा कुछ मिनटों के बाद टेक्सास के ऊपर एक जोरदार धमाका सुनाई दिया। ह्यूस्टन कमान केंद्र में घबराहट फैल गई। कोलंबिया स्पेस शटल में सवार सभी सातों अंतरिक्ष यात्रियों के शरीर के चिथड़े-चिथड़े होकर अमेरिका की भूमि पर यहाँ-वहाँ बिखर गए। भारत ने उस दिन अपने जाज्वल्यमान नक्षत्र, कल्पना चावला, को खो दिया। समूचे देश में, विशेष रूप से करनाल में, शोक की लहर दौड़ गई। टैगोर बाल निकेतन में आयोजित होनेवाला उत्सव, शोक-सभा में परिवर्तित हो गया। इस हादसे से एक अरब से अधिक देशवासियों के चेहरे मुरझा गए। करनाल की यह विलक्षण बेटी सफलतापूर्वक एक यात्रा पूरी कर चुकी थी, लेकिन दूसरी यात्रा में वही दुबली-पतली लड़की अपनी मधुर मुस्कान और दृढ़ संकल्प के साथ अपने सपनों को साकार न कर पाई। कल्पना के जीवन की यह कहानी करनाल से प्रारम्भ हुई और अंतरिक्ष में समाप्त हुई। आओ, इस कहानी का प्रारंभ देखें।

बनारसी दास चावला भारत विभाजन के बाद पाकिस्तान से भारत आकर करनाल में बसे थे। सन् 1961 में यहीं कल्पना का जन्म हुआ था। बनारसीदास चावला की यह चौथी संतान थी। माता-पिता अपनी दुलारी बेटी को मोंटू कहते थे। शिक्षा के क्षेत्र में मोंटू का परिवार काफी आगे था। मोंटू की स्कूली शिक्षा करनाल के टैगोर बाल निकेतन में ही हुई। गर्मी के दिनों में रात को खुले आसमान में तारागणों की ओर निहारती हुई कल्पना नक्षत्र-लोक में पहुँच जाती थी। शायद यहीं से उसे अंतरिक्ष-यात्रा की सूझी थी।

जागरुक पिता ने अपनी प्यारी बेटी मोंटू की रुचि को भाँप लिया था और जब वह आठवीं कक्षा में थी, तभी उसे पहली उड़ान कराई थी। एंट्रेंस की परीक्षा उत्तीर्ण करके कल्पना ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई शुरू की। इंजीनियरिंग में उसने अंतरिक्ष विषय लिया। चंडीगढ़ के पूर्वी पंजाब इंजीनियरिंग महाविद्यालय में उस समय तक एयरोनाटिक विभाग में कम छात्र-छात्राएँ ही दाखिला लेते थे। छात्राओं का प्रतिशत तो और भी कम रहता था। कॉलेज में पढ़ते समय कल्पना दत्तचित्त होकर अपना कोर्स तो तैयार करती ही थी, साथ ही कॉलेज के सभी क्रियाकलापों में भी भाग लेती थी। वह अक्सर कहती थी - ’’जो काम लड़के कर सकते हैं, वह मैं भी कर सकती हूँ।‘‘

कल्पना को जब एयरोनाटिक्स की डिग्री मिल गई, तब उसने अपनी आगे की पढ़ाई अमेरिका में करने का मन बनाया। उसे वहाँ प्रवेश भी मिल गया। वहीं उसका परिचय जीन पियरे से हुआ। दिसम्बर 1983 में वे दोनों विवाहसूत्र में बँध गए।

विवाह के उपरांत भी कल्पना ने अंतरिक्ष में उड़ने का अपना ध्येय अटल रखा। एक दिन उसे टेलिफोन पर नासा से समाचार मिला - ‘हमें खुशी होगी यदि आप यहाँ आकर एक अंतरिक्ष यात्री के रूप में अंतरिक्ष कार्यशाला में भाग लें।‘ कल्पना के लिए तो यह मनमाँगी मुराद पूरी होना था। नासा द्वारा अंतरिक्ष-यात्रा के लिए चुने जाने का गौरव बिरले ही लोगों के भाग्य में होता है।

6 मार्च 1995 से कल्पना का एकवर्षीय प्रशिक्षण कार्यक्रम प्रारंभ हुआ। तरह-तरह की प्रशिक्षण प्रणालियों के द्वारा इन अंतरिक्ष यात्रियों को तैयार करने में कई महीने लग जाते हैं। कल्पना को इस अवधि में जो उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य सौंपे जाते थे, वह उन्हें पूरी निष्ठा से करती थी।

19 सितम्बर 1997 को एस टी एस 87 के अभियान दल के सदस्यों का परीक्षण हुआ। इनमें कुछ पुराने अनुभवी सदस्य थे तो कुछ नए भी थे। कल्पना का यह पहला अभियान था। उड़ान से पहले अंतरिक्ष यात्री अपने-अपने परिजनों से मिले। इसके बाद सब एक-एक करके अंतरिक्ष-यान में सवार हुए। अंतरिक्ष-यान 17500 मील प्रति घंटे की गति से उड़ा। कल्पना के लिए इतनी ऊँचाई से विश्व की झलक देख पाना एक दैवी कृपा के समान था। यह यान सत्रह दिनों तक अंतरिक्ष में घूमता रहा और अंतरिक्ष यात्री अपने प्रयोग करते रहे। अंततः शुक्रवार प्रातः 6 बजे अंतरिक्ष-यान कैनेडी अंतरिक्ष केंद्र पर उतरा। दर्शक दीर्घा में बैठे अंतरिक्ष-यात्रियों के परिवार के लोगों ने यान के सकुशल वापस लौट आने पर ईश्वर को धन्यवाद दिया।

इस उड़ान में उपग्रह और कंप्यूटर प्रणाली में कुछ गड़बड़ी आ गई थी। इस गड़बड़ी का दोष कल्पना पर लगाया गया। जाँच दल के सामने कल्पना ने निर्भीक होकर अपनी बात कही। कल्पना के तर्क से सहमत होकर जाँच दल ने उसे पूर्ण रूप से दोषमुक्त कर दिया। अतः उसे इसके बाद दूसरे अभियान के लिए भी चुना गया। दूसरे अभियान की तिथि 16 जनवरी 2003 निश्चित की गई। इस अभियान का मुख्य उद्देश्य भौतिक क्रिया का अध्ययन करना था जिससे बदलते मौसम एवं जलवायु का ज्ञान सुलभ हो सके।

अपने निर्धारित समय पर यह अभियान चला। इस अभियान में कल्पना अपने साथ संगीत की कई सीडी ले गई थी। इस अभियान में अनेक धर्मों के अंतरिक्ष यात्री भाग ले रहे थे और वहाँ सर्वधर्म समभाव का माहौल बन गया था। कल्पना समय-समय पर सीडी के गाने सुनकर तरोताजा हो जाती थी। स्पेस शटल अपने निर्धारित कार्यक्रम, निर्धारित समय में पूरा करके वापस पृथ्वी की ओर आ रहा था। तभी 1 फरवरी 2003 का वह काला दिन आया जब स्पेस शटल तथा उसमें सवार सात अंतरिक्ष-यात्रियों के शरीर के क्षत-विक्षत अंग अमेरिका की धरती पर इधर-उधर बिखर गए। सम्पूर्ण विश्व में इस दुर्घटना से शोक की लहर फैल गई।

कल्पना का जन्म और जीवन सामान्य जैसा ही था किन्तु उसकी उपलब्धियाँ असामान्य थीं। वह सदा नई जानकारी, नए अनुभव, नए चमत्कार करना चाहती थी। सारे विश्व के बच्चों के लिए उसका यही संदेश था- ‘अपने विश्वास के धरातल से आगे बढ़कर चलो, तभी असंभव को संभव बनाया जा सकता है।‘ कल्पना के इसी संदेश को जीवंत रखने के लिए उसके परिवार ने ‘मोंट्यू फाउंडेशन‘ की स्थापना की है, जिसका उद्देश्य है प्रतिभावान नवयुवकों और नवयुवतियों को, जिन्हें धनाभाव के कारण उच्च शिक्षा से वंचित होना पड़ता है, विश्वविद्यालय की शिक्षा प्राप्त करने में सहायता करना।

बिजेंद्री पाल | BACHHENDRI PAL | महिला की साहसगाया–संकलित | 'एवरेस्ट' - मेरी शिखर यात्रा | 23 मई 1984

बिजेंद्री पाल 
महिला की साहसगाया (संकलित)

पाठ का आशय : इस पाठ से बच्चे साहन गुण, दृढ़ निश्चय, अथक परिश्रम, मुसीबतों का सामना करना इत्यादि आदर्श गुण सीखते हैं। इसके साथ हिमालय की ऊँची चोटियों की जानकारी भी प्राप्त करते है। यह पाठ सिद्ध करता है कि 'मेहनत का फल अच्छा होता है'।

इस लेख द्वारा छात्र यह जानकारी प्राप्त कर सकते हैं कि महिलाएँ भी साहस प्रदर्शन में पुरुषों से कुछ कम नहीं हैं। बिजेंद्री पाल इस विचार का एक निदर्शन है। ऐसी महीलाओं से प्रेरणा पाकर छात्र साहसी भाव अपना सकते हैं ।

पहली महिला एवरेस्ट विजेता बिछेद्री पाल को एवरेस्ट की चोटी पर चढ़नेवाली पहली भारतीय महिला होने का गौरव प्राप्त है। बिजेंद्री एक साधारण भारतीय परिवार में हुआ था। पिता किशनपाल सिंह और मां हंसादेई नेगी की पांच संतानों में यह तीसरी संतान हैं। बिछेद्री के बड़े भाई को पहाड़ों पर जाना अच्छा लगता था। भाई को देखकर उन्होंने निश्चय कर लिया कि वे भी वही करेंगी जो उनका भाई करते हैं। ये किसी से पीछे नहीं रहेंगी, उनसे बेहतर करके दिखलाएंगी। इसी जज़्वे से उन्होंने पर्वतारोहण का प्रशिक्षण लेना शुरू कर दिया। बिजेंद्री को बचपन में रोज़ पांच किलोमीटर पैदल चल कर स्कूल जाना पड़ता था। बाद पर्वतारोहण - प्रशिक्षण के दौरान उनका कठोर परिश्रम बहुत काम आया। सिलाई का काम सीख लिया और सिलाई करके पढ़ाई का खर्च जुटाने लगी। इस तरह उन्होंने संस्कृत में एम.ए तथा बी.एड तक की शिक्षा प्राप्त की। पढ़ाई के साथ-साथ विजेंद्री ने पहाड़ पर चढ़ने के अपने लक्ष्य को भी हमेशा अपने सामने रखा। इसी दौरान उन्होंने ने 'कालाताग' पर्वत की चढ़ाई की। सन् 1982 में उन्हेंने 'गंगोत्री ग्लेशियर' (6672 मी) तथा हड गेरों (5819 मी) की चढ़ाई की जिससे उनमें आत्मविश्वास और बढ़ा।

अगस्त 1983 में जब दिल्ली में हिमालय पर्वतारोहियों का सम्मेलन हुआ तब वे पहली बार तेनजिंग नोर्गे (एवरेस्ट पर चढ़नेवाले पहले पुष्प) तथा चुके तावी (एवरेस्ट पर चढ़नेवाली पहली महिला) से मिलीं। तब उन्होंने संकल्प लिया कि वे भी उनकी तरह एवरेस्ट पर पहुंचेगी और यह दिन भी आया, जब 23 मई 1984 को एपरेस्ट पहुंचकर भारत का झंडा फहरा दिया। उस समय उनके साय पर्वतारोही अंग दोरजी भी थे। भारत की इस महिला द्वारा लिखित यह इतिवृत्तांत बहुत प्रेरणादायक तया रोचक है। इसमें उन्होंने इस बात का वर्णन किया है कि ये एवरेस्ट के शिखर पर कैसे पहुंची कर्नल खुल्लर ने साउथ कोल तक की चढ़ाई के लिए तीन शिखर दलों के दो समूह बना दिए। मैं सुबह चार बजे उठ गई , बर्फ पिघलाई और चाय बनाई। कुछ बिस्कुट और आधी चॉकलेट का हल्का नाश्ता करने के पश्चात् मैं लगभग साढ़े पांच बजे अपने तंबू से निकल पड़ी। अंग दोरजी ने मुझसे पूछा क्या मैं उनके साथ चलना चाहूंगी। मुझे उन पर विश्वास था। साथ ही साथ मैं अपनी आरोहण क्षमता और कर्मठता के बारे में भी आश्वस्त थी। सुबह 6.20 पर जब अंग दोरजी और मैं साउथ कोल से बाहर निकले तो दिन ऊपर चढ़ आया था। हल्की-हल्की हवा चल रही थी और ठंड बहुत अधिक थी। हमने बगैर रस्सी के ही चढ़ाई की। अग दोरजी एक निश्चित गति से ऊपर चढ़ते गए। मुझे भी उनके साथ चलने में कोई कठिनाई नहीं हुई। जमी हुई बर्फ की सीधी व ढलाऊ चट्टानें इतनी सख्त और भुरभुरी थीं, मानो शीशे की चादर बिछी हो। हमें बर्फ काटने के लिए फावड़े का इस्तेमाल करना पड़ा। दो घंटे से कम समय में ही हम शिखर कैप पर पहुंच गए। अंग दोरजी ने पीछे मुड़कर पूछा, "क्या तुम थक गई हो?" मैंने जवाब दिया, "नहीं" ये बहुत अधिक आश्चर्यचकित और आनंदित हुए। थोड़ी चाय पीने के बाद हमने पुनः चढ़ाई शुरू कर दी। व्हाटू एक नायलॉन की रस्सी लाया था इसलिए अग दोरजी और मैं रस्सी के सहारे चढ़े, जबकि व्हाट्र एक हाथ से रस्सी पकड़े हुए बीच में चला। तभी व्हाटू ने गौर किया कि मैं इन ऊंचाईयों के लिए आवश्यक चार लीटर आक्सीजन की अपेक्षा लगभग ढाई लीटर यह सुनकर ऑक्सीजन प्रति मिनट की दर से लेकर चढ़ रही थी। मेरे रेगुलेटर पर जैसे ही उसने ऑक्सीजन की आपूर्ति बढ़ाई मुझे कठिन चढ़ाई आसान लगने लगी। दक्षिणी शिखर के ऊपर हवा की गति बढ़ गई थी। उस ऊंचाई पर तेज़ हवा के झोंके भुरभुरे बर्फ के कणों को चारों तरफ उड़ा रहे थे जिससे कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। मैंने देखा कि थोड़ी दूर तक कोई ऊंची चढ़ाई नहीं है। ढलान एकदम सीधी नीची चली गई है। मेरी सांस मानो एकदम रुक गई थी। मुझे लगा कि सफलता बहुत नज़दीक है। 23 मई, 1984 के दिन दोपहर के 1 बजकर 1 मिनट पर मैं एवरेस्ट की चोटी पर खड़ी थी। एवरेस्ट की चोटी पर पहुँचनेवाली में प्रथम भारतीय महिला थी। एवरेस्ट की चोटी पर इतनी जगह नहीं थी कि दो व्यक्ति साथ-साथ खड़े हो सकें। चारों तरफ हज़ारों मीटर लंबी सीधी ढलान को देखते हुए हमारे सामने मुख्य प्रश्न सुरक्षा का था। हमने फावड़े से पहले वर्फ की खुदाई कर अपने आपको सुरक्षित रूप से स्थिर किया। इसके बाद मैं अपने घुटनों के बल बैठी। बर्फ पर अपने माथे को गाकर मैने साग के ताज का चुंबन किया। बिना उठे ही मैंने अपने थैले से हनुमान चालीसा और दुर्गा माँ का चित्र निकाला। मैंने इन्हें अपने साथ लाए लाल कपड़े में लपेटा और छोटी-सी पूजा करके इनको बर्फ में दवा दिया। उठकर मै अपने रन्जु नेता अंग दोरजी के प्रति आदर भाव से झुकी। उन्होंने मुझे गले लगाया। कुछ देर बाद सोनम पुलजर पहुंचे और उन्होंने फोटो लिए।

इस समय तक ल्हाटू ने हमारे नेता को एवरेस्ट पर पहुंचने की सूचना दी थी। तब मेरे हाथ में वॉकी-टॉकी दिया गया। कर्नल खुल्लर ने मुझे बधाई दी और बोले, "देश को तुम पर गर्व है।" हमने शिखर पर 43 मिनट व्यतीत किए और अपनी वापसी यात्रा 1 बजकर 55 मिनट पर आरंभ की। अंग दोरजी और मैं साउथ कोल पर सायं पांच बजे तक पहुंच गए। सबने साउथ कोल से शिखर तक और पापस साउथ कोल तक की यात्रा (चोटी पर रुकने सहित) पूरे 10 घंटे 40 मिनट के अंदर पूरी करने पर बधाई दी। मैं जब तंबू में घुस रही थी, मैंने मेजर कुमार को कर्नल खुल्लर से वायरलैस पर बात करते सुना, "आप विश्वास करें या करें श्रीमान, बिजेंद्री पाल केवल तीन घंटे में ही वापिस आ गई है और वह उतनी ही चुस्त दिख रही है जितनी वह आज सुबह चढ़ाई शुरू करने से पहले थी। मुझे पर्वतारोहण में श्रेष्ठता के लिए भारतीय पर्वतारोहण संघ का प्रतिष्ठित स्वर्ण पदक तथा अन्य अनेक सम्मान और पुरस्कार प्रदान किए गए। पद्मश्री और प्रतिष्ठित अर्जुन पुरस्कार की घोषणा की गई। सबके आकर्षण और सम्मान का केंद्र होना मुझे बहुत अच्छा लगा। इस तरह बिजेंद्री को एवरेस्ट पर पहुंचनेवाली पहली भारतीय महिला होने का गौरव प्राप्त हुआ। 

(बिजेंद्री पाल द्वारा लिखित 'एवरेस्ट' - मेरी शिखर यात्रा पर आधारित)

मैया मोहिं दाऊ बहुत खिझायो। | सूर-श्याम | सूरदास के पद | SURDAS KE PAD

सूरदास के पद

प्रस्तुत पद में कवि सूरदास ने कृष्ण की बाल-लीला का वर्णन करते हुए उसके स्वभाव, भोलेपन एवं माता यशोदा के वात्सल्य का सुंदर चित्रण किया है।

मैया मोहिं दाऊ बहुत खिझायो।

मोसों कहत मोल को लीनो, तोहि जसुमति कब जायो।।

कहा कहौं इहि रिस के मारे, खेलन हौं नहिं जात।

पुनि पुनि कहत कौन है माता, को है तुमरो तात।।

गोरे नंद जसोदा गोरी, तुम कत स्याम सरीर।

चुटकी दै दै हँसत ग्वाल, सब सिखै देत बलबीर।।

तू मोहिं को मारन सीखी, दाउहि कबहुँ न खीझै।

मोहन को मुख रिस समेत लखि, जसुमति सुनि सुनि रीझे।।

सुनहु कान्ह बलभद्र चवाई, जनमत ही को धूत।

'सूर' स्याम मोहिं गोधन की सौं, हौं माता तू पूत।।

प्रस्तुत पंक्तियों में भाई बलराम के प्रति कृष्ण की शिकायत का मोहक वर्णन किया गया है। कृष्ण अपनी माँ यशोदा से शिकायत करता है कि भाई मुझे बहुत चिढ़ाता है। वह मुझसे कहता है कि तुम्हें यशोदा माँ ने जन्म नहीं दिया है बल्कि मोल लिया है। इसी गुस्से के कारण उसके साथ मैं खेलने नहीं जाता। वह मुझसे बार-बार पूछता है कि तुम्हारे माता-पिता कौन है? वह यह भी कहता है कि नंद और यशोदा तो गोरे हैं, लेकिन तुम्हारा शरीर क्यों काला है? उसकी ऐसी हँसी-मज़ाक सुनकर मेरे सब ग्वाल मित्र चुटकी बजा बजाकर हँसते हैं। उन्हें बलराम ने ही ऐसा करना सिखाया है। माँ, तुमने केवल मुझे ही मारना सीखा है और भाई पर कभी गुस्सा नहीं करती। (अपने भाई के प्रति क्रोधित और सखाओं द्वारा अपमानित) कृष्ण के क्रोधयुत मुख को देखकर और उसकी बातों को सुनकर यशोदा खुश हो जाती है। वह कहती है हे कृष्ण ! सुनो । बलराम जन्म से ही चुगलखोर है। मैं गोधन की कसम - खाकर कहती हूँ, मैं ही तेरी माता हूँ और तुम मेरे पुत्र हो।

इस पद में सूरदास ने वालकृष्ण के भोलेपन और यशोदा के वात्सल्य का मार्मिक चित्रण किया है।

शहीद बकरी - श्री अयोध्या प्रसाद गोयलीय | SHAHEED BAKAREE

शहीद बकरी - श्री अयोध्या प्रसाद गोयलीय

बहुधा यह बात रेखांकित की जाती है कि संगठन में शक्ति है। अगर कोई भी समूह संगठित है तो वह अत्याचार, अन्याय और उत्पीड़न का डट कर मुकाबला करते हुए उसे परास्त कर सकता है। लेकिन यह भी सच है कि पहल कोई एकाकी ही करता है। ऐसा ही एक पहल इस कहानी में एक युवा बकरी भेड़िये से डट कर मुकाबला करते हुए करती है। युवा बकरी मरने के भय से बाड़े में कैद होना स्वीकार नहीं करती बल्कि वह हत्यारे और निरीह बकरियों का खून करने वाले भेड़िये को घायल, पीड़ा और दर्द से छटपटाते हुए देखना चाहती है। बकरी अपने आक्रमण से भेड़िये को लहूलुहान और घायल कर देती है, यह अवश्य होता है कि इसमें वह अपने साथियों की अकर्मण्यता के कारण ढेर हो जाती है, पर एक उदाहरण अवश्य रख जाती है कि साहस से भरी सिर्फ एक बकरी भी भेड़िये को घायल और घावों के सड़न से मरने को बाध्य कर सकती है।)

हरे-भरे पहाड़ पर बकरियाँ चरने जातीं तो दूसरे-तीसरे रोज एक-न-एक बकरी कम हो जाती। भेड़िए की इस धूर्तता से तंग आकर चरवाहे ने, वहाँ बकरियाँ चराना बंद कर दिया और बकरियों ने भी मौत से बचने के लिए बाड़े में कैद रहकर जुगाली करते रहना ही श्रेष्ठ समझा। लेकिन न जाने क्यों एक युवा नई बकरी को यह बंधन पसंद नहीं आया। अत्याचारी से यों कब तक प्राणों की रक्षा की जा सकेगी? वह पहाड़ से उतरकर किसी रोज बाड़े में भी कूद सकता है। शिकारी के भय से मूर्ख शुतुरमुर्ग रेत में गर्दन छुपा लेता है। तब क्या शिकारी उसे बख़्श देता है? इन्हीं विचारों से ओत-प्रोत वह हसरत भरी नजरों से पर्वत की ओर देखती रहती। साथिनों ने उसे आँखों-आँखों में समझाने का प्रयत्न किया कि वह ऐसे मूर्खतापूर्ण विचारों को मन में न लाए। भोग्य सदैव से भोगने के लिए ही उत्पन्न होते रहे हैं। भेड़िए के मुँह हमारा खून लग चुका है, वह अपनी आदत से कभी बाज़ नहीं आएगा।

लेकिन नई युवा बकरी तो भेड़िए के मुँह में लगे खून को ही देखना चाहती थी। वह किस तरह छटपटाता है, यह करतब देखने की उसकी लालसा बलवती होती गई। आखिर एक रोज़ मौका पाकर बाड़े से वह निकल भागी और पर्वत पर चढ़कर स्वच्छंद विचरती, कूदती- फाँदती दिन भर पहाड़ पर चरती रही; मनमानी कुलेलें करती रही। भेड़िए को देखने की उसे उत्सुकता भी बनी रही, परन्तु उसके दर्शन न हुए। झुटपुटा होने पर लाचार, जब वह नीचे उतरने को बाध्य हुई तो रास्ते में दबे पाँव भेड़िया आता हुआ दिखाई दिया। उसकी रक्तरंजित आँखें, लपलपाती जीभ और आक्रमणकारी चाल से वह सब कुछ समझ गई। भेड़िया मुस्कराकर बोला, “तुम बहुत सुंदर और प्यारी मालूम होती हो। मुझे तुम्हारी जैसी साथिन की आवश्यकता थी। मैं कई रोज से अकेलापन महसूस कर रहा था। आओ, तनिक साथ-साथ पर्वतराज की सैर करें।“

बकरी को भेड़िए की बकवास सुनने का अवसर न था। उसने तनिक पीछे हटकर इतने जोर से टक्कर मारी कि असावधान भेड़िया सँभल न सका। यदि बीच का भारी पत्थर उसे सहारा न देता तो औंधे मुँह नीचे गिर गया होता।

भेड़िए की जिंदगी में यह पहला अवसर था। वह किंकर्तव्यविमूढ़-सा हो गया। टक्कर खाकर अभी वह सँभल भी न पाया था कि बकरी के पैने सींग उसके सीने में इतने जोर से लगे कि वह चीख उठा। क्षत-विक्षत सीने से लहू की बहती धार देख, भेड़िए के पाँव उखड़ गए। मगर एक निरीह बकरी के आगे भाग खड़ा होना उसे कुछ जँचा नहीं। वह भी साहस बटोरकर पूरे वेग से झपटा। बकरी तो पहले से ही सावधान थी; वह कतराकर एक ओर हट गई और भेड़िए का सिर दरख्त से टकराकर लहूलुहान हो गया।

लहू को देखकर अब भेड़िए के लहू में भी उबाल आ गया। वह जी-जान से बकरी के ऊपर टूट पड़ा। अकेली बकरी उसका कब तक मुकाबला करती? वह उसके दाँव-पेंच देखने की लालसा और अपने अरमान पूरे कर चुकी थी। साथियों की अकर्मण्यता पर तरस खाती हुई बेचारी ढेर हो गई।

पेड़ पर बैठे हुए तोते ने मुस्कराकर मैना से पूछा, “भेड़िए से भिड़कर भला बकरी को क्या मिला?“

मैना ने सगर्व उत्तर दिया, “वही जो अत्याचारी का सामना करने पर पीड़ितों को मिलता है। बकरी मर जरूर गई, परन्तु भेड़िए को घायल करके मरी है। वह भी अब दूसरों पर अत्याचार करने के लिए जीवित नहीं रह सकेगा। सीने और मस्तक के घाव उसे सड़-सड़कर मरने को बाध्य करेंगे। काश, बकरी की अन्य साथिनों ने उसकी भावनाओं को समझा होता। छिपने के बजाय एक साथ वार किया होता तो वे आज बाड़े में कैदी जीवन व्यतीत करने के बजाय पहाड़ पर निःशंक और स्वच्छंद विचरती होतीं।“ तोता अपना-सा मुँह लेकर चुपचाप शहीद बकरी की ओर देखने लगा।

सुब्रह्मण्य भारती | SUBRAMANIA BHARATI

सुब्रह्मण्य भारती 

देश के स्वाधीनता संग्राम में जहाँ कुछ देशभक्तों ने अपने तेजस्वी भाषणों, नारों से विदेशी सत्ता का दिल दहलाया, वहीं कुछ ऐसे साहित्यकार भी थे जिन्होंने अपने काव्य-बाणों से विपक्षी को आहत किया। हिंदी में यदि ‘मैथिलीशरण गुप्त‘, ‘सोहनलाल द्विवेदी‘, ‘सुभद्राकुमारी चौहान‘, ‘रामधारी सिंह ‘दिनकर‘ आदि ने अपनी काव्य-रचनाओं से भारतीय नवयुवकों के मन में देश-प्रेम के भाव भरे तो देश की अन्य भाषाओं में भी ऐसे देशभक्त कवि, साहित्यकार हुए जिनकी रचनाओं ने अँग्रेजी राज्य की जड़ें हिला दीं। तमिल भाषा के ऐसे ही कवि थे ‘सुब्रह्मण्य भारती‘।

सुब्रह्मण्य भारती बीसवीं सदी के महान तमिल कवि थे। उनका नाम भारत के आधुनिक इतिहास में एक उत्कट देशभक्त के रूप में लिया जाता है। देश के स्वतंत्रता-संग्राम के लिए उन्होंने जिस शस्त्र का प्रयोग किया, वह था उनका लेखन, विशेषतः कविता। उनकी कविताओं ने तमिलवासियों को जाग्रत कर स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के लिए प्रेरित किया।

सुब्रह्मण्य भारती का जन्म तमिलनाडु में एक मध्यवर्गीय परिवार में 11 दिसंबर, सन् 1882 को हुआ था। उनके पिता का नाम चिन्नास्वामी अय्यर और माँ का नाम लक्ष्मी अम्माल था। बचपन में भारती को सुब्बैया कहकर पुकारा जाता था। बचपन से ही वे कविताएँ लिखने और उनका पाठ करने के बहुत शौकीन थे। एट्टयपुरम् के राजा ने ग्यारह वर्षीय सुब्बैया को दरबार में कविता पाठ करने के लिए आमंत्रित किया। राजा के दरबार में एकत्र हुए विख्यात कवि उनका कविता पाठ सुनकर दंग रह गए। उन्होंने उन्हें ‘भारती‘ की उपाधि से सुशोभित किया। इस तरह वे ‘सुब्रह्मण्य भारती‘ के नाम से प्रसिद्ध हो गए।

जब सुब्बैया चौदह वर्ष के थे तभी उनका विवाह हो गया था। उनकी पत्नी चेल्लम्माल उस समय सात वर्ष की थीं। कुछ दिनों बाद सुब्बैया के माता-पिता का स्वर्गवास हो गया। सन् 1898 में भारती आगे पढ़ने के लिए वाराणसी (बनारस), अपनी काकी के पास, चले गए। बनारस में उन्होंने हिंदी, अँग्रेजी और संस्कृत भाषाएँ सीखीं।

बनारस में रहते हुए भारती के व्यक्तित्व में बहुत परिवर्तन आया। उन्होंने बड़ी-बड़ी पैनी मूँछें रख लीं। वे सिर पर पगड़ी पहनने लगे। उनकी विचारधारा में भी महान परिवर्तन आया। उनके हृदय में उग्र राष्ट्रीयता के बीज के कारण, उन्हें ब्रिटिश राज के बंधन में बँधे भारतीयों का दुःख व उनकी पीड़ा महसूस होने लगी।

अपने साथ देश-प्रेम की भावना सुलगाए, देशभक्त कवि भारती चार वर्ष बाद बनारस से घर लौटे। जीविका के लिए वे चेन्नई (तत्कालीन मद्रास) में प्रसिद्ध तमिल दैनिक ‘स्वदेशमित्रन्‘ में सहायक संपादक की हैसियत से नौकरी करने लगे, जिसके संस्थापक थे महान नेता जी.सुब्रह्मण्य अय्यर। अपने गीतों के माध्यम से भारतीय लोगों के हृदयों में राष्ट्रीयता की भावना जगाने लगे। जंगल की आग की तरह फैलते-फैलते ये गीत, शीघ्र ही राज्य के अधिकतम व्यक्तियों के हृदय तक पहुँच गए।

सन् 1907 में भारती ने सूरत में काँग्रेस के अधिवेशन में भाग लिया। उग्रवादी विचारों से प्रभावित होने के कारण, उन्हें यह विश्वास हो गया था कि नरमपंथी दृष्टिकोण से देश कभी भी स्वतंत्र नहीं हो सकता। उनके मन में बाल गंगाधर तिलक और विपिन चन्द्र पाल के प्रति बहुत सम्मान उत्पन्न हो गया। वे लोग क्रांतिकारियों की तरह भारत की स्वाधीनता के लिए संघर्ष करने को तत्पर थे। उन्हें लगा कि स्थिति क्रांतिकारी मोड़ लेना चाहती है।

भारती का देशभक्तिपूर्ण लेखन बहुत शक्तिशाली होता जा रहा था, फिर भी कोई उसे छापने को तैयार नहीं था। लोग सरकार के क्रोध से डरते थे। यहाँ तक कि ‘स्वदेशमित्रन्‘ के संपादक ने भी उनके दृढ़, उग्रवादी विचारों को छापने से इंकार कर दिया। इसलिए भारती ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया और सन् 1907 में वे अपना ही ‘इंडिया‘ नामक एक साप्ताहिक निकालने लगे। इसमें वे अपने विचारों को स्वतंत्रता से छापते और जनता उत्सुकता से उन्हें पढ़ती।

ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध आंदोलन भड़कता जा रहा था। शासकों ने इसे दबाने के लिए नेताओं और आंदोलनकर्त्ताओं को पकड़ना और जेल में बंद करना शुरू कर दिया। भारती किसी भी दिन अपनी गिरफ्तारी के वारंट का इंतजार कर रहे थे। उनके दोस्त और अनुयायी नहीं चाहते थे कि वे सींखचों के पीछे बंद हों इसलिए गिरफ्तारी से बचने के लिए, भारती सन् 1908 में पाण्डिचेरी चले गए। वहाँ भी ब्रिटिश सरकार के गुप्तचर, उनकी गतिविधियों पर कड़ी नजर रखे हुए थे। भारती को उन गुप्तचरों का पता लग गया था।

अपने दुखपूर्ण क्षणों में भी भारती का ईश्वरीय शक्ति पर से विश्वास नहीं हटा। इससे उन्हें पाण्डिचेरी में सबसे कठिन समय बिताने में सहायता मिली। जब उनके पास धन नहीं था, उनके प्रशंसकों ने आर्थिक रूप से और अन्य तरीकों से उनकी मदद की। यहाँ तक कि मकान का किराया न देने पर भी उनके मकान-मालिक ने उन्हें कुछ नहीं कहा।

भारती स्वयं किसी से सहायता नहीं माँगते थे। सहायता माँगने से उनके स्वाभिमान को ठेस लगती थी, किंतु गरीबी उनकी उदारता को कम नहीं कर पाई थी। एक बार उन्होंने अपना बहुमूल्य जरी के बॉर्डरवाला अंगवस्त्र तक, जिसे किसी अमीर प्रशंसक ने उन्हें दिया था, एक गरीब को दे दिया था। जब चेल्लम्माल ने इस बात के लिए उन्हें डाँटा तो वे हँस दिए और बोले कि उस गरीब आदमी पर वह अच्छा लग रहा था।

दूसरों की खुशी उनकी अपनी खुशी थी। वे अपने लेखन में अक्सर यह बात व्यक्त करते थे कि समस्त जीवित प्राणी उस सर्वोच्च शक्ति की अनुपम रचना हैं और उसकी नजर में हम सब बराबर हैं।

ऐसा लगता था कि जंगली जानवर भी भारती के सच्चे प्यार को पहचानते थे। एक बार, जब भारती और चेल्लम्माल चिड़ियाघर में घूम रहे थे, वे शेर के पिंजरे के बहुत करीब चले गए और जंगल के राजा को बुलाकर उससे बोले कि कविता का राजा तुमसे मिलने आया है। जवाब में शेर दहाड़ा और उसने भारती को अपना स्पर्श करने दिया। इस आश्चर्यजनक दृश्य को देखकर अन्य दर्शक भौंचक्के रह गए।

भारती को बच्चों से बहुत प्यार था। उन्होंने बच्चों के लिए ‘द चाइल्ड साँग‘ (बच्चे का गीत) लिखा, उसे धुन दी और गाया भी।

भागो और खेलो, भागो और खेलो,

आलसी मत बनो, मेरे प्यारे बच्चो,

मिलजुलकर खेलो, मिलजुलकर खेलो,

कभी भी घबराओ नहीं, मेरे प्यारे बच्चो।

यही जीवन का ढंग है, मेरे प्यारे बच्चो।

भारती ने स्वतंत्र भारत के ऐसे लोगों की कल्पना की थी जो उच्च विचारों को आत्मसात कर उन्हें बढ़ावा दें। वे सहज ही पिछड़ी जाति के हिंदुओं और मुसलमानों से हिलमिल जाते थे।

अब तक गांधी-जी का सार्वभौमिक प्रेम व भाईचारे का संदेश देशभर में चारों ओर फैलने लगा था। उससे प्रभावित होकर भारती ने लिखा -

“रे मेरे मन! मधुर

दया दिखा शत्रु पर“

उनका विजयनाद का गीत, जिस पर नृत्य भी किया जाता है, कहता है......

“मानव-मानव एक समान

एक जाति की हम संतान

यही दृष्टि है खुशी आज की

बजा नगाड़ा, करो घोषणा प्रेम-राज्य की।“

भारती ने गांधी-जी की प्रशंसा में कविता लिखी,‘बहुत वर्षों तक जीओ, गाँधी महात्मा...‘

भारती गांधी-जी से चेन्नई (मद्रास) में सन् 1919 में केवल एक बार मिले थे और वह भी कुछ क्षणों के लिए। गांधी-जी ने राजा-जी और अन्य काँग्रेसी नेताओं और देशभक्तों से कहा था, “भारती देश का एक ऐसा रत्न है जिसकी सुरक्षा और संरक्षण करना चाहिए।“

लेकिन बहुत जल्दी ही उनका अन्त आ गया। भारती नियमित रूप से मंदिर जाते थे। वहाँ मंदिर के हाथी को नारियल देने में उन्होंने कभी भी चूक नहीं की। एक दिन हाथी मस्ती में था। इस बात से अनभिज्ञ भारती हमेशा की तरह नारियल खिलाने उसके करीब गए। हाथी ने उनके अपनी विशाल सूँड़ मारी और वे एक उखड़े हुए पेड़ की तरह गिर गए। वे बुरी तरह घायल हो गए। भीड़ जमा हो गई और उन्हें देखने लगी, पर कोई भी पास जाकर उन्हें बचाने की हिम्मत न जुटा पाया। यह खबर जंगल की आग की तरह फैल गई। जैसे ही यह खबर भारती के घनिष्ठ मित्र कानन के कानों तक पहुँची, वे भागे हुए आए और उन्होंने भारती को बचाया।

अच्छी चिकित्सा होने के कारण भारती की हालत कुछ हद तक सुधर गई। वे मन से अपने आपको स्वस्थ मानते थे और इसलिए यह विश्वास करने से इंकार करते थे कि उनकी सेहत गिर रही है। वे तब तक अपने क्षीण स्वर में गाते रहे, जब तक कि 12 सितंबर, सन् 1921 को उनकी आवाज़ सदा के लिए शांत न हो गई।

जब भारत स्वतंत्र हुआ तब भारती की रचनाएँ विस्तृत रूप से प्रकाशित होने लगीं। आज विश्व के पुस्तकालयों में उनकी किताबें संगृहीत हैं। अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद होने के साथ-साथ अँग्रेजी, रूसी और फ्रेंच भाषा में भी उनकी पुस्तकों का अनुवाद हुआ है।

सुब्रह्मण्य भारती की याद में एट्टयपुरम् में ‘भारती मंडप’ स्थापित किया गया है। यहाँ, तमिल में महात्मा गांधी द्वारा लिखे शब्दों को पढ़ा जा सकता है, “जिन्होंने भारती को अमर बनाया, उन प्रयासों को मेरा आशीर्वाद।“

चेन्नई के समुद्रतट पर भारती की एक प्रतिमा है। ऐसा प्रतीत होता है कि अनंत लहरों का लयबद्ध नाद, उनकी कविताओं को गुनगुना रहा है।

भारती द्वारा रचित उनका आखिरी गीत, जो उन्होंने चेन्नई (मद्रास) के समुद्रतट पर हुई सभा में अपनी मृत्यु से कुछ सप्ताह पहले गाया था, उनके बहुत लोकप्रिय गीतों में से एक है-

“भारतीय समुदाय अमर हो

जय हो भारत-जन की जय हो।

भारत-जनता की जय-जय हो। 

 जय हो, जय हो, जय हो।“

रविवार, 28 नवंबर 2021

महिला की साहसगाया - संकलित | एवरेस्ट विजेता बिजेंद्री पाल

महिला की साहसगाया - संकलित

पाठ का आशय : इस पाठ से बच्चे साहन गुण, दृढ़ निश्चय, अथक परिश्रम, मुसीबतों का सामना करना इत्यादि आदर्श गुण सीखते हैं। इसके साथ हिमालय की ऊँची चोटियों की जानकारी भी प्राप्त करते है। यह पाठ सिद्ध करता है कि 'मेहनत का फल अच्छा होता है'।

इस लेख द्वारा छात्र यह जानकारी प्राप्त कर सकते हैं कि महिलाएँ भी साहस प्रदर्शन में पुरुषों से कुछ कम नहीं हैं। बिजेंद्री पाल इस विचार का एक निदर्शन है। ऐसी महीलाओं से प्रेरणा पाकर छात्र साहसी भाव अपना सकते हैं ।

पहली महिला एवरेस्ट विजेता बिछेद्री पाल को एवरेस्ट की चोटी पर चढ़नेवाली पहली भारतीय महिला होने का गौरव प्राप्त है। बिजेंद्री एक साधारण भारतीय परिवार में हुआ था। पिता किशनपाल सिंह और मां हंसादेई नेगी की पांच संतानों में यह तीसरी संतान हैं। बिछेद्री के बड़े भाई को पहाड़ों पर जाना अच्छा लगता था। भाई को देखकर उन्होंने निश्चय कर लिया कि वे भी वही करेंगी जो उनका भाई करते हैं। ये किसी से पीछे नहीं रहेंगी, उनसे बेहतर करके दिखलाएंगी। इसी जज़्वे से उन्होंने पर्वतारोहण का प्रशिक्षण लेना शुरू कर दिया। बिजेंद्री को बचपन में रोज़ पांच किलोमीटर पैदल चल कर स्कूल जाना पड़ता था। बाद पर्वतारोहण - प्रशिक्षण के दौरान उनका कठोर परिश्रम बहुत काम आया। सिलाई का काम सीख लिया और सिलाई करके पढ़ाई का खर्च जुटाने लगी। इस तरह उन्होंने संस्कृत में एम.ए तथा बी.एड तक की शिक्षा प्राप्त की। पढ़ाई के साथ-साथ विजेंद्री ने पहाड़ पर चढ़ने के अपने लक्ष्य को भी हमेशा अपने सामने रखा। इसी दौरान उन्होंने ने 'कालाताग' पर्वत की चढ़ाई की। सन् 1982 में उन्हेंने 'गंगोत्री ग्लेशियर' (6672 मी) तथा हड गेरों (5819 मी) की चढ़ाई की जिससे उनमें आत्मविश्वास और बढ़ा।

अगस्त 1983 में जब दिल्ली में हिमालय पर्वतारोहियों का सम्मेलन हुआ तब वे पहली बार तेनजिंग नोर्गे (एवरेस्ट पर चढ़नेवाले पहले पुष्प) तथा चुके तावी (एवरेस्ट पर चढ़नेवाली पहली महिला) से मिलीं। तब उन्होंने संकल्प लिया कि वे भी उनकी तरह एवरेस्ट पर पहुंचेगी और यह दिन भी आया, जब 23 मई 1984 को एपरेस्ट पहुंचकर भारत का झंडा फहरा दिया। उस समय उनके साय पर्वतारोही अंग दोरजी भी थे। भारत की इस महिला द्वारा लिखित यह इतिवृत्तांत बहुत प्रेरणादायक तया रोचक है। इसमें उन्होंने इस बात का वर्णन किया है कि ये एवरेस्ट के शिखर पर कैसे पहुंची कर्नल खुल्लर ने साउथ कोल तक की चढ़ाई के लिए तीन शिखर दलों के दो समूह बना दिए। मैं सुबह चार बजे उठ गई , बर्फ पिघलाई और चाय बनाई। कुछ बिस्कुट और आधी चॉकलेट का हल्का नाश्ता करने के पश्चात् मैं लगभग साढ़े पांच बजे अपने तंबू से निकल पड़ी। अंग दोरजी ने मुझसे पूछा क्या मैं उनके साथ चलना चाहूंगी। मुझे उन पर विश्वास था। साथ ही साथ मैं अपनी आरोहण क्षमता और कर्मठता के बारे में भी आश्वस्त थी। सुबह 6.20 पर जब अंग दोरजी और मैं साउथ कोल से बाहर निकले तो दिन ऊपर चढ़ आया था। हल्की-हल्की हवा चल रही थी और ठंड बहुत अधिक थी। हमने बगैर रस्सी के ही चढ़ाई की। अग दोरजी एक निश्चित गति से ऊपर चढ़ते गए। मुझे भी उनके साथ चलने में कोई कठिनाई नहीं हुई। जमी हुई बर्फ की सीधी व ढलाऊ चट्टानें इतनी सख्त और भुरभुरी थीं, मानो शीशे की चादर बिछी हो। हमें बर्फ काटने के लिए फावड़े का इस्तेमाल करना पड़ा। दो घंटे से कम समय में ही हम शिखर कैप पर पहुंच गए। अंग दोरजी ने पीछे मुड़कर पूछा, "क्या तुम थक गई हो?" मैंने जवाब दिया, "नहीं" ये बहुत अधिक आश्चर्यचकित और आनंदित हुए। थोड़ी चाय पीने के बाद हमने पुनः चढ़ाई शुरू कर दी। व्हाटू एक नायलॉन की रस्सी लाया था इसलिए अग दोरजी और मैं रस्सी के सहारे चढ़े, जबकि व्हाट्र एक हाथ से रस्सी पकड़े हुए बीच में चला। तभी व्हाटू ने गौर किया कि मैं इन ऊंचाईयों के लिए आवश्यक चार लीटर आक्सीजन की अपेक्षा लगभग ढाई लीटर यह सुनकर ऑक्सीजन प्रति मिनट की दर से लेकर चढ़ रही थी। मेरे रेगुलेटर पर जैसे ही उसने ऑक्सीजन की आपूर्ति बढ़ाई मुझे कठिन चढ़ाई आसान लगने लगी। दक्षिणी शिखर के ऊपर हवा की गति बढ़ गई थी। उस ऊंचाई पर तेज़ हवा के झोंके भुरभुरे बर्फ के कणों को चारों तरफ उड़ा रहे थे जिससे कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। मैंने देखा कि थोड़ी दूर तक कोई ऊंची चढ़ाई नहीं है। ढलान एकदम सीधी नीची चली गई है। मेरी सांस मानो एकदम रुक गई थी। मुझे लगा कि सफलता बहुत नज़दीक है। 23 मई, 1984 के दिन दोपहर के 1 बजकर 1 मिनट पर मैं एवरेस्ट की चोटी पर खड़ी थी। एवरेस्ट की चोटी पर पहुँचनेवाली में प्रथम भारतीय महिला थी। एवरेस्ट की चोटी पर इतनी जगह नहीं थी कि दो व्यक्ति साथ-साथ खड़े हो सकें। चारों तरफ हज़ारों मीटर लंबी सीधी ढलान को देखते हुए हमारे सामने मुख्य प्रश्न सुरक्षा का था। हमने फावड़े से पहले वर्फ की खुदाई कर अपने आपको सुरक्षित रूप से स्थिर किया। इसके बाद मैं अपने घुटनों के बल बैठी। बर्फ पर अपने माथे को गाकर मैने साग के ताज का चुंबन किया। बिना उठे ही मैंने अपने थैले से हनुमान चालीसा और दुर्गा माँ का चित्र निकाला। मैंने इन्हें अपने साथ लाए लाल कपड़े में लपेटा और छोटी-सी पूजा करके इनको बर्फ में दवा दिया। उठकर मै अपने रन्जु नेता अंग दोरजी के प्रति आदर भाव से झुकी। उन्होंने मुझे गले लगाया। कुछ देर बाद सोनम पुलजर पहुंचे और उन्होंने फोटो लिए।
इस समय तक ल्हाटू ने हमारे नेता को एवरेस्ट पर पहुंचने की सूचना दी थी। तब मेरे हाथ में वॉकी-टॉकी दिया गया। कर्नल खुल्लर ने मुझे बधाई दी और बोले, "देश को तुम पर गर्व है।" हमने शिखर पर 43 मिनट व्यतीत किए और अपनी वापसी यात्रा 1 बजकर 55 मिनट पर आरंभ की। अंग दोरजी और मैं साउथ कोल पर सायं पांच बजे तक पहुंच गए। सबने साउथ कोल से शिखर तक और पापस साउथ कोल तक की यात्रा (चोटी पर रुकने सहित) पूरे 10 घंटे 40 मिनट के अंदर पूरी करने पर बधाई दी। मैं जब तंबू में घुस रही थी, मैंने मेजर कुमार को कर्नल खुल्लर से वायरलैस पर बात करते सुना, "आप विश्वास करें या करें श्रीमान, बिजेंद्री पाल केवल तीन घंटे में ही वापिस आ गई है और वह उतनी ही चुस्त दिख रही है जितनी वह आज सुबह चढ़ाई शुरू करने से पहले थी। मुझे पर्वतारोहण में श्रेष्ठता के लिए भारतीय पर्वतारोहण संघ का प्रतिष्ठित स्वर्ण पदक तथा अन्य अनेक सम्मान और पुरस्कार प्रदान किए गए। पद्मश्री और प्रतिष्ठित अर्जुन पुरस्कार की घोषणा की गई। सबके आकर्षण और सम्मान का केंद्र होना मुझे बहुत अच्छा लगा। इस तरह बिजेंद्री को एवरेस्ट पर पहुंचनेवाली पहली भारतीय महिला होने का गौरव प्राप्त हुआ। 
(बिजेंद्री पाल द्वारा लिखित 'एवरेस्ट' - मेरी शिखर यात्रा पर आधारित) 

मेरी माँ - डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम | A. P. J. ABDUL KALAM | मिसाइलमैन | पीपल्स प्रेसिडेंट

 मेरी माँ - डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम


‘मिसाइलमैन’ के नाम से चर्चित पीपल्स प्रेसिडेंट डॉ.ए.पी.जे.अब्दुल कलाम एक ऐसे चमत्कारिक व्यक्तित्व रहे हैं जिन्होंने अपने कार्य और व्यवहार से देश ही नहीं, दुनियाँ के करोड़ों नवयुवाओं को प्रभावित किए हैं। ऐसे व्यक्तित्व की प्रेरणा स्रोत उनकी ममतामयी माँ आशियम्मा रहीं, जिन्होंने अभाव से भरे दिनों में कलाम को अपने हिस्से का सबकुछ बचा कर उसे संजोते हुए अतिरिक्त स्नेह, लाड़ प्यार के साथ देती रहीं। यही वह स्नेह का मूल भाव था, जो बाद में कलाम के व्यक्तित्व का स्रोत बन कर राष्ट्र के प्रत्येक बच्चों पर न्यौछावर होता रहा और उन्हें एक श्रेष्ठ भारतीय नागरिक बनाने की दिशा में आधार भूमि बन सका।

आज के इस युग में ऐसे लोग कम ही हैं जिन्होंने अपने काम और व्यवहार से करोड़ों युवाओं और सम्पूर्ण देशवासियों को प्रभावित किया हो, उनके दिल में एक खास जगह बनाई हो, ‘मिसाइलमैन’ नाम से चर्चित, चमत्कारिक प्रतिभा के धनी डॉक्टर ए.पी.जे. अब्दुल कलाम उन चुनिंदा हस्तियों में से एक हैं। इनका व्यक्तित्व इतना सरल और सहज रहा कि हर कोई उन्हें देखकर हैरान हो जाता उन्होंने अपने काम के सिवाय कभी भी अपने पद को अहम नहीं समझा अपनी सीधी सादी बातों और जीवन मूल्यों के कारण डॉ.कलाम ने दुनिया के चर्चित लोगों में एक अलग ही जगह बनाई इसलिए वह आज ‘पीपल्स प्रेसिडेंट’ के नाम से भी जाने जाते हैं। वे देश के ऐसे तीसरे राष्ट्रपति हैं, जिन्हें राष्ट्रपति बनने से पूर्व देश के सर्वोच्च सम्मान ‘भारतरत्न’ से सम्मानित किया गया। ऐसे दो अन्य पूर्व राष्ट्रपति हैं: सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन और डॉ. जाकिर हुसैन।

ऐसे महान व्यक्तित्व की प्रेरणा-स्रोत डॉ. कलाम की माँ आशियम्मा थीं। मन को छूने वाली अनेक घटनाओं में डॉ. कलाम ने अपनी माँ का बार-बार उल्लेख किया है। बचपन के अभाव भरे दिनों में, एक संयुक्त परिवार के सदस्य के रूप में उन्हें माँ का अधिक लाड़-प्यार, स्नेह और प्रोत्साहन मिला। उन्होंने बताया है कि हमारे घरों में बिजली नहीं थी तब मिट्टीतेल की चिमनी जलाया करते थे या घर में लालटेन से रोशनी होती थी, जिनका समय रात्रि 7 से 9 बजे तक नियत था। पर नन्हें कलाम माँ के अतिरिक्त स्नेह के कारण रात्रि 11 बजे तक दीपक का उपयोग करते थे क्योंकि माँ को कलाम की प्रतिभा पर भरोसा था इसलिए वह कलाम की पढ़ाई के लिए एक स्पेशल लैंप देती थीं जो रात तक पढ़ाई करने में कलाम की मदद करता था। रोशनी को दूसरों तक फैलाने की चाह कलाम के नन्हें मन में यहीं से उठने लगी थी जो समय के साथ विश्वव्यापी बनी।

एक अन्य घटना डॉ. कलाम को जीवनभर याद रही वह यह थी-कलाम की लगन और मेहनत के कारण उनकी माँ खाने-पीने के मामले में उनका विशेष ध्यान रखती थीं। दक्षिण में चावल की पैदावार अधिक होने के कारण वहाँ चावल अधिक खाया जाता है। लेकिन कलाम को रोटियों से विशेष लगाव था इसलिए उनकी माँ उन्हें प्रतिदिन खाने में दो रोटियाँ अवश्य दिया करती थीं। एक बार उनके घर में खाने में गिनी चुनीं रोटियाँ ही थीं। यह देखकर माँ ने अपने हिस्से की रोटी कलाम को दे दी। उनके बड़े भाई ने कलाम को धीरे से यह बात बता दी। इससे कलाम अभिभूत हो उठे और दौड़ कर माँ से लिपट गए।

माँ के विश्वास व प्रोत्साहन का ही परिणाम था कि डॉ. कलाम अपने जीवन को बहुत अनुशासन में जीना पसंद करते थे। वे शाकाहार और ब्रह्मचर्य का पालन करने वालों में से थे। कहा जाता है कि वे कुरान और भगवद्गीता दोनों का अध्ययन करते थे और उनकी गूढ़ बातों पर अमल किया करते थे। उनके संदेश व छात्रों से बातचीत में उनके जीवन के इन भावों और माँ की प्रेरणा का बार-बार उल्लेख मिलता है, जो भारत के तमाम बच्चों और बच्चियों तथा युवाओं को कुछ नया सोचने और नया करने को प्रोत्साहित और प्रेरित करते रहे हैं।

जब डॉ. कलाम आगे की पढ़ाई के लिए बाहर गए तो उन्हें घर छोड़ना पड़ा, उस समय माँ आशियम्मा का कलेजा भर आया, वे रो पड़ीं और अपने आपको शांत नहीं कर पाईं। तब नन्हें कलाम ने माँ के पास बैठकर उन्हें समझाया-‘माँ मैं तुमसे दूर कहाँ जा रहा हूँ। मैं अपनी माँ के बिना भला रह सकता हूँ! नन्हें कलाम के मुँह से ऐसी समझदारी की बात सुनकर माँ ने अपने आँसू पोंछ लिए। वे मुस्कुराईं और फिर हँसी-खुशी उन्हें विदा करने के लिए, कुछ हिदायतें देती हुईं, कुछ कदम कलाम के साथ चलीं। इसके बाद कलाम के पिता और परिवार के अन्य लोग, मित्र स्टेशन पर उन्हें छोड़ने आए थे। रेलगाड़ी में बैठकर स्कूल की ओर यात्रा करते हुए कलाम के मन में माँ की ममता थी, यादे थीं, माँ की हिदायतें, झिड़कियाँ, और शरारत करने पर की गईं सख्तियाँ थीं। कलाम का मन माँ की ममता से सराबोर था।

कोई भी बच्चा जब पहली बार घर छोड़कर बाहर अकेला रहने के लिए जाता है तो उसे सबसे ज्यादा घर से दूरी और माँ की कमी खलती है। माँ से बच्चे के मन का तार जुड़ा होता है, नन्हें बालक कलाम का माँ के प्रति यही भाव उनके बड़े होने के साथ-साथ और भी गहरा होता गया। यही भाव उनकी “माँ” कविता में दिखता है-

माँ

“समंदर की लहरें,

सुनहरी रेत,

श्रद्धानत तीर्थयात्री,

रामेश्वरम् द्वीप की वह छोटी-पूरी दुनिया।

सब में तू निहित है,

सब तुझमें समाहित।

तेरी बाँहों में पला मैं,

मेरी कायनात रही तू,

जब छिड़ा विश्वयुद्ध, छोटा-सा मैं,

जीवन बना था चुनौती, जिन्दगी अमानत,

मीलों चलते थे हम,

पहुँचते किरणों से पहले”

यह कविता उन्होंने तब लिखी जब उनकी माँ इस दुनियाँ में नहीं रहीं और यह सच जाहिर करती है कि वे कलाम के महान कामों के पीछे प्रेरणा रहीं। कलाम के बचपन को माँ ने कुछ इस तरह सँवारा और प्रोत्साहित किया कि बालमन के सभी सहज भाव डॉ. कलाम की प्रौढ़ अवस्था में छलकते रहते थे। नई चीज़ सीखने के लिए वे हमेशा तत्पर रहते थे। उनके अंदर सीखने की भूख थी और पढ़ाई पर घंटों ध्यान देना उनमें से एक था।

एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए डॉ.ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने जीवन के सबसे बड़े अफसोस का जिक्र किया था उन्होंने कहा था कि वह अपने माता-पिता को उनके जीवनकाल में 24 घंटे बिजली उपलब्ध नहीं करा सके; उन्होंने कहा था कि मेरे पिता (जैनुलाब्दीन) 103 साल तक जीवित रहे और माँ (आशियाम्मा) 93 साल तक जीवित रहीं। उन्होंने भारतीय छात्रों को अपना संदेश देते हुए कहा था -

“सपने वो नहीं होते जो रात को सोते समय नींद में आएँ, सपने वो होते हैं जो रातों में सोने नहीं देते।“

“इंतजार करने वालों को सिर्फ उतना ही मिलता है, जितना कोशिश करने वाले छोड़ देते हैं।“

प्रस्तुत लेख डॉ. ए.पी.जे.अब्दुल कलाम द्वारा लिखित पुस्तक ‘‘विंग्स ऑफ फायर’’ के हिंदी रूपान्तरण से संकलित है।

डॉ. जगदीश चन्द्र बोस | JAGADISH CHANDRA BOSE

डॉ. जगदीश चन्द्र बोस

भारतीय वैज्ञानिकों ने अपने अलौकिक आविष्कारों और अनुसंधानों से संसार को चमत्कृत किया है। डॉ. रमन, डॉ. श्रीनिवास रामानुजन की खोजों की ही तरह डॉ. जगदीश चन्द्र बोस की वनस्पतियों के संबंध में की गई खोज से संसार चमत्कृत हुआ। वृक्षों में भी जीवन होता है, यह तथ्य डॉ. बोस ने दुनिया को बताया। इस पाठ में हम डॉ. बोस का संक्षिप्त जीवन-परिचय और उनकी खोजों के संबंध में पढ़ेंगे।

सूर्य अस्त हो रहा था। चिड़ियाँ चहकती र्हुइं अपने-अपने घोंसलों में लौट रही थीं। ठंडक बढ़ती जा रही थी। गरम स्वेटर, मोजे, हॉफ पैण्ट पहने, हाथ में एक बेंत लिए विक्की अपने घर के बगीचे में टहल रहा था। वह कभी किसी पेड़ पर अपना बेंत जमा देता, कभी किसी फूलदार पौधे को झकझोर देता। उसके दादा जी बरामदे में बैठे चाय का घूँट ले रहे थे। उनकी दृष्टि विक्की की ओर ही थी। उसे पेड़-पौधों में उलझा देखकर वे बोले, ‘‘विक्की, अब इधर आ जाओ। पौधों को मत छेड़ो। यह उनके आराम करने का समय है।’’

विक्की ने कहा, ‘‘वाह दादा जी! आपने खूब कहा। मानो पेड़-पौधे भी सचमुच आराम करते हैं, सोते हैं।’’

‘‘हाँ, वे सचमुच आराम करते हैं, रात को सोते भी हैं और प्रातः जाग जाते हैं’’, दादा जी ने विक्की को समझाया।

‘‘दादा जी, यह आपने नई बात बताई। भला पेड़-पौधे भी कहीं सोते हैं! आपने कैसे जाना कि पेड़-पौधे सोते हैं? वे तो रात को भी हिलते-डुलते रहते हैं। सोनेवाला आदमी तो हिलता-डुलता नहीं।’’

‘‘अच्छा, यहाँ आओ। मैं तुम्हें इसकी कहानी सुनाता हूँ’’- दादा जी ने विक्की से कहा।

विक्की को कहानी सुनने का बड़ा शौक था। वह तुरंत आकर दादा जी की गोद में बैठ गया।

‘‘अब सुनाइए कहानी-’’ वह दादा जी से बोला।

(पेड़-पौधे मानव की तरह पैदा होते हैं, बढ़ते हैं, मरते हैं। उन पर भी सर्दी, गर्मी का प्रभाव पड़ता है। तोड़ने या काटने पर उन्हें भी पीड़ा होती है। कभी ऐसी बातें कल्पना की उड़ान मानी जाती थीं, बाद में भारतीय वैज्ञानिक डॉ. जगदीश चंद्र बोस ने अपने अनुसंधान से इन बातों को सत्य कर दिखाया।)

दादा जी ने चाय का प्याला रख दिया। वे एक हाथ से उसकी पीठ सहलाते हुए कहानी कहने लगे। ‘‘उस समय अपना देश बहुत बड़ा था। तब बांग्लादेश भी भारत का भाग हुआ करता था। बांग्लादेश की राजधानी ढाका है। ढाका के पास एक गाँव है, राढ़ीरवाल। वहाँ एक डिप्टी कलेक्टर के घर एक बालक का जन्म हुआ। उसका नाम रखा गया जगदीश चंद्र। जगदीश की पाठशाला में किसानों के बच्चे खेती-बाड़ी और पेड़-पौधों के बारे में अकसर बातें करते रहते थे। इस कारण बचपन में ही जगदीश चंद्र की रुचि पेड़-पौधों में हो गई।’’

‘‘बचपन में जगदीश ने देखा कि छुईमुई नाम के पौधे की पत्तियाँ हाथ लगाते ही सिकुड़ जाती हैं और थोड़ी देर के बाद वे पुनः खिल जाती हैं। सूरजमुखी नाम के पौधे के फूल का मुँह सदैव सूरज के सामने होता है। इस बालक ने बडे़ होकर पेड़-पौधों पर बहुत-से प्रयोग करके यह सिद्ध कर दिया था कि पेड़-पौधे भी हम सबकी तरह सोते, जागते हैं। उन्हें भी भोजन और पानी चाहिए। वे भी सुखी और दुखी होते हैं। वे भी रोते हैं।’’

‘‘दादा जी, आप तो जगदीश चंद्र बोस के बारे में पूरी बातें बताइए।’’ विक्की ने मचलते हुए कहा।

‘‘अच्छा, तो सुनो। जगदीश चंद्र जब छोटे थे तो रोते बहुत थे- तुम्हारी तरह।’’, दादा जी ने हँसते हुए कहा।

‘‘मैं कहाँ रोता हूँ।’’- विक्की बोला।

‘‘तुम्हें क्या पता? तुम तो तब बहुत छोटे थे। खैर! उसके माता-पिता ने उसके लिए एक तरकीब सोची। रात में जैसे ही वे रोना शुरू करते, वैसे ही ग्रामोफोन पर कोई गाना बजा दिया जाता था। गाना सुनते ही बालक जगदीश का रोना बंद हो जाता था और वह सो जाता था। जगदीश चंद्र की प्रारंभिक शिक्षा गाँव में ही हुई। पाठशाला के आसपास खूब पेड़-पौधो थे। बालक जगदीश का उनसे खूब लगाव हो गया था। गाँव की पढ़ाई पूरी होने पर जगदीश को आगे की शिक्षा के लिए कोलकाता भेज दिया गया। वे पढ़ने में बहुत होशियार थे, जैसे तुम हो।’’ विक्की यह सुनकर बहुत खुश हो गया। ‘‘फिर क्या हुआ?’’- उसने पूछा ।

‘‘जब कोलकाता में उसने पढ़ाई पूरी कर ली, उसे आगे की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड भेजा गया। वहाँ पढ़ते हुए उसका सम्पर्क बड़े-बडे़ वैज्ञानिकों से हुआ।’’

‘‘फिर क्या वे वहीं रहने लगे?’’ विक्की ने पूछा।

‘‘नहीं, वहाँ की पढ़ाई पूरी करके वे वापस कोलकाता आ गए और वहाँ के प्रेसीडेंसी कॉलेज में प्रोफेसर बन गए। बड़ी कक्षाओं को जो टीचर पढ़ाते हैं, उन्हें प्रोफेसर कहते हैं। जगदीश चंद्र अपने सिद्धांत के बड़े पक्के थे। वे गलत काम करते भी नहीं थे और गलत बात मानते भी नहीं थे। उस समय अपने देश पर अँग्रेजों का राज था। अँग्रेज भारतीयों पर तरह-तरह से अत्याचार करते थे। यह कॉलेज उन्हीं का था। उन्होंने यहाँ प्रोफेसरों के लिए दो नियम बना रखे थे।

अँग्रेज प्रोफेसरों को तो वेतन अधिक दिया जाता था, लेकिन भारतीय प्रोफेसरों को कम वेतन मिलता था। जगदीश चंद्र को यह दोहरा व्यवहार पसंद नहीं आया। उन्होंने इसका विरोध किया। कई वर्षों तक उन्होंने वेतन नहीं लिया, लेकिन पूरी ईमानदारी से अपना काम किया। अंत में कॉलेजवालों को झुकना पड़ा।’’

‘‘दादा जी, आपने यह तो बताया ही नहीं कि उन्होंने पेड़-पौधों पर क्या प्रयोग किए?’’- विक्की ने पूछा।

‘‘हाँ, वही तो बता रहा हूँ। उन्होंने अपना पूरा ध्यान पेड़-पौधों के जीवन के अध्ययन पर लगा दिया। उन्होंने इसके लिए कई यंत्र बनाए। इन यंत्रों की सहायता से उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि पेड़-पौधों में भी जीवन होता है। उन्हें भी हमारी तरह खाना चाहिए, वायु और सूर्य का प्रकाश चाहिए। उन पर भी गर्मी और सर्दी का प्रभाव पड़ता है। उन्हें भी सुख और दुःख होता है। आदमी और पशु-पक्षियों की तरह वे भी मरते हैं।’’

जगदीश चंद्र बोस द्वारा की गई खोजें संसार भर की प्रसिद्ध पत्रिकाओं में छपीं। लोगों को जब इसकी जानकारी मिली तो दुनिया भर में हड़कंप मच गया। कुछ वैज्ञानिकों को उनकी खोज पर विश्वास नहीं हुआ। उन्हें फ्रांस बुलाया गया और वहाँ अपने प्रयोग सिद्ध करने के लिए कहा गया। उन्होंने कहा, ‘‘जहर खाने से आदमी मर जाता है। यदि किसी पौधे पर जहर डाला जाए तो वह भी मुरझा जाएगा।’’

तुरंत वहाँ जहर मंगाया गया। वह जहर एक पौधे पर डाला गया तो उस पौधे पर कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ा। डॉ. जगदीश चंद्र बोस को तो अपने प्रयोग पर पूरा विश्वास था। उन्होंने कहा, ‘‘यदि यह जहर पौधे पर कोई प्रभाव नहीं डाल सका तो मेरे ऊपर भी नहीं डाल सकेगा।’’ यह कहकर उन्होंने बचा जहर स्वयं पी लिया। सचमुच उन पर कोई प्रभाव नहीं हुआ क्योंकि वह जहर था ही नहीं। यूरोप के कुछ वैज्ञानिकों ने उन्हें नीचा दिखाने के लिए यह शड्यंत्र रचा था। वे सब बहुत लज्जित हुए।

‘‘डाँ.जगदीश चंद्र बोस सही अर्थों में एक वैज्ञानिक थे। विज्ञान के प्रचार-प्रसार के लिए उन्होंने ‘बसु विज्ञान मंदिर’ नामक एक संस्था की स्थापना की। उन्होंने अपने प्रयोगों से अपने देश का नाम रोशन किया। अब तो तुम्हें विश्वास हो गया कि पेड़-पौधों में भी जीवन होता है।’’

‘‘हाँ, दादा जी, अब मैं जान गया। अब मैं किसी पेड़-पौधे को नुकसान नहीं पहुँचाऊँगा।’’

शनिवार, 27 नवंबर 2021

भारतीय गायिकाओं में बेजोड़ - लता मंगेशकर | कुमार गंधर्व | LATA MANGESHKAR | KUMAR GANDHARVA | KUMAR GANDHARVA | INDIAN PLAYBACK SINGER

भारतीय गायिकाओं में बेजोड़

लता मंगेशकर

कुमार गंधर्व


बरसों पहले की बात है। मै बीमार था। उस बीमारी में एक दिन मैंने सहज ही रेडियो लगाया और अचानक एक अद्वितीय स्वर मेरे कानों में पड़ा। स्वर सुनते ही मैंने अनुभव किया कि यह स्वर कुछ विशेष है, रोज़ का नहीं। यह स्वर सीधे और कलेज से जा भिड़ा। मैं तो हैरान हो गया। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि यह स्वर किसका है। मैं तन्मयता से सुनता ही रहा। गाना समाप्त होते ही गायिका नाम घोषित किया गया- लता मंगेशकर। नाम सुनते ही मैं चकित हो गया। मन-ही-मन एक संगति पाने का भी अनुभव हुआ। सुप्रसिद्ध गायक दीनानाथ मंगेशकर की अजब गायकी एक दूसरा स्वरूप लिए उन्हीं की बेटी की कोमल आवाज में सुनने का अनुभव हुआ।
मुझे लगता है 'बरसात' के भी पहले के किसी चित्रपट का वह कोई गाना था। तब से लता निरंतर गाती चली आ रही है और मैं भी उसका गाना सुनता आ रहा हूँ। लता के पहले प्रसिद्ध गायिका नूरजहाँ का चित्रपट संगीत में अपना जमाना था। परंतु उसी क्षेत्र में बाद में आई हुई लता उससे कहीं आगे निकल गई। कला के क्षेत्र में ऐसे चमत्कार कभी-कभी दीख पड़ते हैं। जैसे प्रसिद्ध सितारिये विलायत खाँ अपने सितारवादक पिता की तुलना में बहुत ही आगे चले गए।

मेरा स्पष्ट मत है कि भारतीय गायिकाओं में लता के जोड़ की गायिका हुई ही नहीं। लता के कारण चित्रपट संगीत को विलक्षण लोकप्रियता प्राप्त हुई है, यही नहीं लोगों का शास्त्रीय संगीत की ओर देखने का दृष्टिकोण भी एकदम बदला है। छोटी बात कहूंगा। पहले भी घर-घर छोटे बच्चे गाया करते थे पर उस गाने में और आजकल घरों में सुनाई देने वाले बच्चों के गाने में बड़ा अंतर हो गया। आजकल के नन्हे-मुन्ने भी स्वर में गुनगुनाते हैं। क्या लता इस जादू का कारण नहीं है? कोकिला का स्वर निरंतर कानों में पड़ने लगे तो कोई भी सुनने वाला उसका अनुकरण करने का प्रयत्न करेगा। ये स्वाभाविक ही है। चित्रपट संगीत के कारण सुंदर स्वर मालिकाएँ लोगों के कानों पर पड़ रही हैं। संगीत के विविध प्रकारों से उनका परिचय हो रहा है। उनका स्वर-ज्ञान बढ़ रहा है। सुरीलापन क्या इसकी समझ भी उन्हें होती जा रही है। तरह-तरह की लय के भी प्रकार उन्हें सुनाई पड़ने लगे हैं और आकारयुक्त लय के साथ उनकी जान-पहचान होती जा रही है। साधारण प्रकार के लोगों को भी उसकी सूक्ष्मता समझ में आने लगी है। इन सबका श्रेय लता को ही है। इस प्रकार उसने नयी पीढ़ी के संगीत को संस्कारित किया है और सामान्य मनुष्य में संगीत विषयक अभिरुचि पैदा करने में बड़ा हाथ बँटाया है। संगीत की लोकप्रियता, उसका प्रसार और अभिरुचि के विकास का श्रेय लता को ही देना पड़ेगा।

भारतीय गायिकाओं में बेजोड़ - लता मंगेशकर

सामान्य श्रोता को अगर आज लता की ध्वनिमुद्रिका ' और शास्त्रीय गायकी की ध्वनिमुद्रिका सुनाई जाए तो वह लता की ध्वनिमुद्रिका ही पसंद करेगा। गाना कौन से राग में गाया गया और ताल कौन-सा था, यह शास्त्रीय ब्योरा इस आदमी को सहसा मालूम नहीं रहता। उसे इससे कोई मतलब नहीं कि राग मालकोस था और ताल त्रिताल। उसे तो चाहिए वह मिठास, जो उसे मस्त कर दे, जिसका वह अनुभव कर सके और यह स्वाभाविक ही है। क्योंकि जिस प्रकार मनुष्यता हो तो वह मनुष्य है, वैसे ही गानपन हो तो वह संगीत है। और लता का कोई भी गाना लीजिए तो उसमें शत-प्रतिशत यह 'गानपन' मौजूद मिलेगा। 
लता की लोकप्रियता का मुख्य मर्म यह 'गानपन' ही है। लता के गाने की एक और विशेषता है, उसके स्वरों की निर्मलता। उसके पहले की पार्श्व गायिका नूरजहाँ भी एक अच्छी गायिका थी, इसमें संदेह नहीं तथापि उसके गाने में एक मादक उत्तान दीखता था। लता के स्वरों में कोमलता और मुग्धता है। ऐसा दीखता है कि लता का जीवन की ओर देखने का जो दृष्टिकोण है वही उसके गायन की निर्मलता में झलक रहा है। हाँ, संगीत दिग्दर्शकों ने स्वर की इस निर्मलता का जितना उपयोग कर लेना चाहिए था, उतना नहीं किया। मैं स्वयं संगीत दिग्दर्शक होता तो लता को बहुत जटिल काम देता, ऐसा कहे बिना रहा नहीं जाता।


लता के गाने की एक और विशेषता है, उसका नादमय उच्चार। उसके गीत के किन्हीं दो शब्दों का अंतर स्वरों के आलाप द्वारा बड़ी सुंदर रीति से भरा रहता है और ऐसा प्रतीत होता है कि वे दोनों शब्द विलीन होते-होते एक दूसरे में मिल जाते हैं। यह बात पैदा करना बड़ा कठिन है, परंतु लता के साथ यह बात अत्यंत सहज और स्वाभाविक हो बैठी है।

ऐसा माना जाता है कि लता के गाने में करुण रस विशेष प्रभावशाली रीति से व्यक्त होता है, पर मुझे खुद यह बात नहीं पटती। मेरा अपना मत है कि लता ने करुण | रस के साथ उतना न्याय नहीं किया है। बजाए इसके, मुग्ध शृंगार की अभिव्यक्ति करने वाले मध्य या द्रुतलय' के गाने लता ने बड़ी उत्कटता से गाए हैं। मेरी दृष्टि से उसके गायन में एक और कमी है; तथापि यह कहना कठिन होगा कि इसमें लता का दोष कितना है और संगीत दिग्दर्शकों का दोष कितना। लता का गाना सामान्यतः ऊँची पट्टी में रहता है। गाने में संगीत दिग्दर्शक उसे अधिकाधिक ऊँची पट्टी गवाते है और उसे अकारण ही चिलवाते हैं।

एक प्रश्न उपस्थित किया जाता है कि शास्त्रीय संगीत में लता का स्थान कौन-सा है। मेरे मत से यह प्रश्न खुद ही प्रयोजनहीन है। उसका कारण यह है कि शास्त्रीय संगीत और चित्रपट संगीत में तुलना हो ही नहीं सकती। जहाँ गंभीरता शास्त्रीय संगीत का स्थायीभाव है वहीं जलदलय और चपलता चित्रपट संगीत का मुख्य गुणधर्म है। चित्रपट संगीत का ताल प्राथमिक अवस्था का ताल होता है, जबकि शास्त्रीय संगीत में ताल अपने परिष्कृत रूप में पाया जाता है। चित्रपट संगीत में आधे तालों का उपयोग किया जाता है। उसकी लयकारी बिलकुल अलग होती है, आसान होती है। यहाँ गीत और आघात को ज्यादा महत्व दिया जाता है। सुलभता और लोच' को अग्र स्थान दिया जाता है; तथापि चित्रपट संगीत गाने वाले को शास्त्रीय संगीत की उत्तम जानकारी होना आवश्यक है और वह लता के पास नि:संशय है। तीन-साढ़े तीन मिनट के गाए हुए चित्रपट के किसी गाने का और एकाध गायक की तीन-साढ़े तीन घंटे की महफ़िल, इन दोनों का कलात्मक और चंदात्मक मूल्य एक ही है, ऐसा मैं मानता हूँ। किसी उत्तम लेखक का कोई विस्तृत लेख जीवन के रहस्य का विशद् रूप में वर्णन करता है तो वही रहस्य छोटे से सुभाषित का या नन्ही-सी कहावत में सुंदरता और परिपूर्णता से प्रकट हुआ भी दृष्टिगोचर होता है। उसी प्रकार तीन घंटों की रंगदार महफ़िल का सारा रस लता की तीन मिनट की ध्वनिमुद्रिका में आस्वादित किया जा सकता है। उसका एक-एक गाना एक संपूर्ण कलाकृति होता है। स्वर, लय, शब्दार्थ का वहाँ त्रिवेणी संगम होता है और महफिल की बेहोशी उसमें समाई रहती है। वैसे देखा जाए तो शास्त्रीय संगीत क्या और चित्रपट संगीत क्या, अंत में रसिक को आनंद देने की सामर्थ्य किस गाने में कितना है, इस पर उसका महत्व ठहराना उचित है। मैं तो कहूँगा कि शास्त्रीय संगीत भी रंजक न हो, तो बिलकुल ही नीरस ठहरेगा। अनाकर्षक प्रतीत होगा और उसमें कुछ कमी-सी प्रतीत होगी। गाने में जो गानपन प्राप्त होता है, वह केवल शास्त्रीय बैठक के पक्केपन की वजह से ताल सुर के निर्दोष ज्ञान के कारण नहीं। गाने की सारी मिठास, सारी ताकत उसकी रंजकता पर मुख्यतः अवलंबित रहती है और रंजकता का मर्म रसिक वर्ग के समक्ष कैसे प्रस्तुत किया जाए, किस रीति से उसकी बैठक बिठाई जाए और श्रोताओं से कैसे सुसंवाद साधा जाए. इसमें समाविष्ट है। किसी मनुष्य का अस्थिपंजर और एक प्रतिभाशाली कलाकार द्वारा उसी मनुष्य का तैलचित्र', इन दोनों में जो अंतर होगा वही गायन के शास्त्रीय ज्ञान और उसकी स्वरों द्वारा की गई सुसंगत अभिव्यक्ति में होगा। संगीत के क्षेत्र में लता का स्थान अव्वल दरजे के खानदानी गायक के समान ही मानना पड़ेगा। क्या लता तीन घंटों की महफ़िल जमा सकती है, ऐसा संशय व्यक्त करने वालों से मुझे भी एक प्रश्न पूछना है, क्या कोई पहली श्रेणी का गायक तीन मिनट की अवधि में चित्रपट का कोई गाना उसकी इतनी कुशलता और रसोत्कटता से गा सकेगा? नहीं, यही उस प्रश्न का उत्तर उन्हें देना पड़ेगा? खानदानी गवैयों का ऐसा भी दावा है कि चित्रपट संगीत के कारण लोगों की अभिरुचि बिगड़ गई है। चित्रपट संगीत ने लोगों के 'कान बिगाड़ दिए' ऐसा आरोप लगाया जाता है। पर मैं समझता हूँ कि चित्रपट संगीत ने लोगों के कान खराब नहीं किए हैं, उलटे सुधार दिए है। ये विचार पहले ही व्यक्त किए है और उनकी पुनरूक्ति नहीं करूंगा।

सच बात तो यह है कि हमारे शास्त्रीय गायक बड़ी आत्मसंतुष्ट वृत्ति के हैं। संगीत के क्षेत्र में उन्होंने अपनी हुकुमशाही स्थापित कर रखी है। शास्त्र-शुद्धता के कर्मकांड को उन्होंने आवश्यकता से अधिक महत्व दे रखा है। मगर चित्रपट संगीत द्वारा लोगों की अभिजात्य संगीत से जान-पहचान होने लगी है। उनकी चिकित्सक और चौकस वृत्ति अब बढ़ती जा रही है। केवल शास्त्र-शुद्ध और नीरस गाना उन्हें नहीं चाहिए, उन्हें तो सुरीला और भावपूर्ण गाना चाहिए। और यह क्रांति चित्रपट संगीत ही लाया है। चित्रपट संगीत समाज की संगीत विषयक अभिरुचि में प्रभावशाली मोड़ लाया है। चित्रपट संगीत की लचकदारी उसका एक और सामर्थ्य है, ऐसा मुझे लगता है। उस संगीत की मान्यताएँ, मर्यादाएँ, झझटे सब कुछ निराली है। चित्रपट संगीत का तंत्र ही अलग है। यहाँ नवनिर्मिति की बहुत गुंजाइश है। जैसा शास्त्रीय रागदारी का चित्रपट संगीत दिग्दर्शकों ने उपयोग किया, उसी प्रकार राजस्थानी, पंजाबी, बंगाली, प्रदेश के लोकगीतों के भंडार को भी उन्होंने खूब लूटा है, यह हमारे ध्यान में रहना चाहिए। धूप का कौतुक करने वाले पंजाबी लोकगीत, रूक्ष और निर्जल राजस्थान में पर्जन्य' की याद दिलाने वाले गीत पहाड़ों की घाटियों, खोरों में प्रतिध्वनित होने वाले पहाड़ी गीत, ऋतुचक्र समझाने वाले और खेती के विविध कामों का हिसाब लेने वाले कृषिगीत और ब्रजभूमि में समाविष्ट सहज मधुर गीतों का अतिशय मार्मिक व रसानुकूल उपयोग चित्रपट क्षेत्र के प्रभावी संगीत दिग्दर्शकों ने किया है और आगे भी करते रहेंगे। थोड़े में कहूँ तो संगीत का क्षेत्र ही विस्तीर्ण है। वहाँ अ तक अलक्षित, असंशोधित और अदृष्टिपूर्व ऐसा खूब बड़ा प्रांत है तथापि बड़े जोश से इसकी खोज और उपयोग चित्रपट के लोग करते चले आ रहे हैं। फलस्वरूप चित्रपट संगीत दिनोंदिन अधिकाधिक विकसित होता जा रहा है।

ऐसे इस चित्रपट संगीत क्षेत्र की लता अनभिषिक्त सम्राज्ञी है। और भी कई पाश्र्व गायक-गायिकाएँ हैं, पर लता की लोकप्रियता इन सभी से कहीं अधिक है। उसकी लोकप्रियता के शिखर का स्थान अचल है। बीते अनेक वर्षों से वह गाती आ रही है और फिर भी उसकी लोकप्रियता अबाधित है। लगभग आधी शताब्दी तक जन मन पर सतत प्रभुत्व रखना आसान नहीं है। ज्यादा क्या कहूँ, एक राग भी हमेशा टिका नहीं रहता। भारत के कोने-कोने में लता का गाना जा पहुँचे, यही नहीं परदेस में भी उसका गाना सुनकर लोग पागल हो उठें, यह क्या चमत्कार नहीं है? और यह चमत्कार हम प्रत्यक्ष देख रहे हैं।

ऐसा कलाकार शताब्दियों में शायद एक ही पैदा होता है। ऐसा कलाकार आज हम सभी के बीच है, उसे अपनी आँखों के सामने घूमता-फिरता देख पा रहे हैं। कितना बड़ा है हमारा भाग्य!