रविवार, 23 मई 2021

लंका में हनुमान | बाल रामकथा |वाल्मीकि रामायण | LANKA MAI HANUMAN | BAL RAMKADHA | VALMIKI RAMAYAN

लंका में हनुमान 
बाल रामकथा 
वाल्मीकि रामायण 

हनुमान उठे। अंगड़ाई ली। झुककर धरती को छुआ। और एक ही छलाँग में महेंद्र पर्वत पर जा खड़े हुए। जामवंत सफल हो गए थे। हनुमान को उनकी शक्ति की याद दिलाने में। पर्वत शिखर पर खड़े हनुमान ने विराट समुद्र की ओर देखा। उनकी आँखों में चुनौती का भाव नहीं था। समर्पण का था। राम के प्रति। समुद्र यह देखकर डर गया। उसकी गरिमा नष्ट होने को थी। हनुमान ने पूर्व दिशा की ओर मुँह करके अपने पिता को प्रणाम किया। हाथ हवा में उठाए। पर्वत पर झुककर उसे हाथ-पैर से कसकर दबाया और छलाँग लगा दी। अगले ही पल वह आकाश में थे। समुद्र के ऊपर। तेज़ी से आगे बढ़ते हुए। छलाँग के समय बड़े शिलाखंड आसमान में उड़ गए। कुछ दूर हनुमान के साथ गए। जैसे परिजन किसी को विदा करने जाते हैं। 

हनुमान की गति अधिक थी। पत्थर पीछे छूटे और समुद्र में जा गिरे। महेंद्र पर्वत सुंदर था। वनस्पतियों और जीव-जंतुओं से भरा। उसका शिखर पथरीला था। लेकिन नीचे घाटी में मनमोहक वृक्ष थे। लताएँ थीं। हनुमान के छलाँग लगाने तक पर्वत शांत था। निश्चल। छलाँग के दबाव से पर्वत दरक गया। वृक्ष काँपकर गिर गए। वन थर्रा गया। बड़ी-बड़ी चट्टानें नीचे लुढ़कने लगीं। पशु-पक्षी चीत्कार करते हुए भागे। कई स्थानों पर जल-स्रोत फूट पड़े। कहीं धुआँ उठने लगा। चट्टानें दहक उठीं। लाल हो गईं। आग के गोलों की तरह। हनुमान इससे बेखबर थे। वायु की गति से आगे बढ़ रहे थे। मार्ग में उन्होंने दिशा बदली। लंका जाने के लिए। उनका शरीर हिला तो बादलों की सी गड़गड़ाहट हुई। वे जहाँ से निकलते सब कुछ अस्थिर हो जाता। समुद्र में ऊँची लहरें उठने लगतीं। उनकी परछाईं समुद्र में विराट नाव की तरह दिखती। बिना आवाज़ चलती हुई। समुद्र के अंदर एक पर्वत था। मैनाक। सुनहरा। चमकता हुआ। वह जलराशि को चीरकर ऊपर उठा। मैनाक चाहता था कि हनुमान कुछ पल वहाँ विश्राम कर लें। थक गए होंगे। हनुमान नहीं रुके। उन्हें मैनाक की सदिच्छा बाधा लगी। राम काज में। वह मैनाक से टकराते हुए निकल गए। हाथ ऊपरी हिस्से पर लगा तो पर्वत शिखर टूट गया। वह कुछ और ऊपर उठकर उड़ने लगे। हनुमान के रास्ते में कई बाधाएँ आईं। राक्षसी सुरसा मिली। विराट शरीर। वह हनुमान को खा जाना चाहती थी। पवन पुत्र ने उसे चकमा दिया। उसके मुँह में घुसकर निकल आए। आगे एक और राक्षसी टकराई। उसका नाम सिंहिका था। छाया राक्षसी। उसने जल में हनुमान की परछाईं पकड़ ली। वह अचानक आसमान में ठहर गए। क्रुद्ध हनुमान ने सिंहिका को मार डाला। आगे बढ़े। अब गंतव्य दूर नहीं था। दूर क्षितिज पर लंका दिखाई पड़ने लगी थी। 

रावण की राजधानी। सोने की लंका। आकाश में उठते हुए कंगूरे। उसकी प्राचीर। लंका जगमगा रही थी। हनुमान समुद्र के किनारे उतर गए। अब वह लंका को और निकट से देख पा रहे थे। हनुमान को थकान रंचमात्र नहीं थी। इतनी लंबी यात्रा का उन पर कोई प्रभाव नहीं था। चिंता थी कि सीता को कैसे ढूँढेंगे। कैसे पहचानेंगे ? लंका नगरी को ठीक से देखने के लिए हनुमान एक पहाड़ी पर चढ़ गए। दृष्टि दौड़ाई। चारों ओर वृक्ष। सुवासित उद्यान। भव्य भवन। हवा में लहराती संगीत धाराएँ। वे चकित थे। राक्षस नगरी में इतनी सुंदरता! उन्होंने ऐसा नगर पहले कभी नहीं देखा था। वह उस नगर का एक-एक विवरण आँखों में भर लेना चाहते थे। ताकि बाद में वह सीता की खोज में काम आए। दिन के समय लंका में प्रवेश करना हनुमान को उचित नहीं लगा। उन्होंने प्रतीक्षा की। समुद्र तट पर ही। शाम ढलने पर नगरी में प्रवेश किया। उनके सामने पहला प्रश्न सीता का पता लगाना था। उस विराट नगर में यह काम आसान नहीं था। वृक्षों-डालियों से कूदते-फाँदते वह नगर के मध्य में पहुँच गए। राजमहल वहीं था। उनका अनुमान था कि सीता महल में ही होंगी। रावण ने उन्हें छिपाकर रखा होगा। किसी कोने में। महल में पहरेदार थे। अस्त्र-शस्त्र लिए हुए। सबकी आँख बचाकर वह चुपचाप अंदर आ गए। राजमहल विराट था। वैभवपूर्ण। वे बचते-बचाते महल में घूमने लगे। भटकते रहे। रात का समय था। 

अधिकतर राक्षस सो रहे थे। उन्होंने निकट जाकर एक-एक चेहरा देखा। सीता जैसी कोई स्त्री उन्हें नहीं दिखाई पड़ी। वे रावण के कक्ष में गए। वहाँ रावण था। उसकी रानी मंदोदरी थी। सीता नहीं थीं। 'न जाने सीता को कहाँ छिपा रखा है, 'सोचते हुए हनुमान अंत : पुर से बाहर निकल आए। एक-एक करके उन्होंने राक्षसों के सारे घर छान मारे। पशुशालाएँ भी देख लीं। सीता का कहीं पता न था। सीता के लंका में होने की सूचना पर उन्हें संदेह नहीं था। पर वह दुखी हो गए। सोचने लगे। 'रावण ने अवश्य सीता को कहीं छिपा दिया है। किसी गुप्त स्थान पर। मैं उन्हें ढूँढ निकालूँगा। उनसे मिले बिना नहीं लौटूंगा, 'उन्होंने तय किया। अंत: पुर के बाहर हनुमान ने रावण का रथ देखा। स्वर्ण रथ। रत्नों से सजा हुआ। वे चकित रह गए। तभी उनका ध्यान अंत:पुर से लगी वाटिका की ओर गया। वहाँ अशोक के ऊँचे-ऊँचे वृक्ष थे। आकाश छूने को आतुर। यही अशोक वाटिका थी। दीवार लाँघकर वे वहाँ पहुँचे। लंका में यही एक स्थान बचा था, जो उन्होंने नहीं देखा था। उन्हें लगा सीता वाटिका में नहीं हो सकतीं। रावण उन्हें इतनी खुली जगह क्यों रखेगा? हनुमान में निराशा घर करती जा रही थी। वह एक वृक्ष पर चढ़कर बैठ गए। दिन चढ़ आया था। ऐसे में नीचे उतरना उन्हें उचित नहीं लगा। पेड़ घना था। वे उसके पत्तों में छिप गए। उन्हें वहाँ से सब कुछ दिखता था। लेकिन उन्हें कोई नहीं देख सकता था। रात हो आई। अचानक वाटिका के एक कोने से उन्हें अट्टहास सुनाई पड़ा। वे राक्षसियाँ थीं। हनुमान उधर ही देखने लगे। एक वृक्ष के नीचे राक्षसियों का झुंड था। वे किसी बात पर ठहाके लगा रही थीं। हनुमान को लगा कि वे सीता पर हँस रहीं हैं। वह पेड़ से चिपककर नीचे की डाली पर आए। ध्यान से देखा। 

राक्षसियों के बीच एक स्त्री बैठी है। चेहरा मुरझाया हुआ। उदास। दयनीय। दुर्बल। शोकग्रस्त। 'यही माँ सीता है, 'उन्होंने मन में सोचा। उन्हें अब कोई संदेह नहीं था। राक्षसियाँ वहीं थीं। हट नहीं रही थीं। हनुमान उतावले थे। पर नीचे उतरने में डर था। स्वयं उनके लिए। सीता के लिए भी। तभी उन्होंने रावण को आते देखा। राजसी ठाट-बाट के साथ। दासियों सहित। हनुमान सीता से भेंट किए बिना लौटना नहीं चाहते थे। ‘ऐसे लौटा तो राम को क्या बताऊँगा?' उन्होंने सोचा। नीचे उतरने का अवसर ही नहीं मिल रहा था। वे डाल से चिपक गए। साँस रोककर। रावण के लौटने की प्रतीक्षा में। रावण ने सीता को बहलाया। फुसलाया। लालच दिया। सीता नहीं डिगीं। वह डर से काँप रही थीं पर उन्होंने रावण की एक न सुनी। तिरस्कार किया। रावण ने कहा, 'तुम्हें डरने की आवश्यकता नहीं है, सुमुखी! मैं तुम्हें स्पर्श नहीं करूँगा, जब तक तुम स्वयं ऐसा नहीं चाहोगी। मैं तुम्हें अपनी रानी बनाना चाहता हूँ। मेरी बात मान लो और सुख भोग करो। अन्यथा मैं तुम्हें तलवार से काट डालूँगा। सोच लो, तुम्हारे पास अब केवल दो महीने बचे हैं।" "ऐसा कभी नहीं होगा, दुष्ट! राम के सामने तुम्हारा अस्तित्व ही क्या है? मुझे राम के पास पहुँचा दो। वे तुम्हें क्षमा कर देंगे। तुमने ऐसा नहीं किया तो सर्वनाश निश्चित है। तुमने अपराध किया है। तुम्हें कोई नहीं बचा सकता। मूर्ख राक्षस! तुम्हारा अंत निकट है।" रावण क्रोध में पैर पटकता हुआ चला गया। रात गाढ़ी………….. होती जा रही थी। रावण के जाने पर राक्षसियों ने सीता को घेर लिया। उन्हें डराने-धमकाने लगीं। बोलीं, "तुम मूर्ख हो। रावण का प्रस्ताव अस्वीकार कर रही हो। यह रावण की नगरी है। तुम्हारा राम यहाँ कभी नहीं पहुँच सकता। तुम्हें कोई नहीं बचा सकता। "राक्षसियों में एक त्रिजटा थी। सबसे भिन्न। उसने कहा, "मैंने एक सपना देखा है। पूरी लंका समुद्र में डूब गई है। सब नष्ट हो गया है। यह सपना अच्छा नहीं है। कहीं यह सीता के दुख से जुड़ा तो नहीं है?" सीता की हिचकियाँ बँध गईं। वह विलाप करने लगीं। देर रात राक्षसियाँ एक-एक कर चली गईं। सीता वाटिका में अकेली थीं। यह अच्छा अवसर था। पर हनुमान पेड़ से नहीं उतरे।' कहीं सीता मुझे भी राक्षस न समझ लें। मायावी चाल मान लें,' उन्होंने सोचा। पेड़ पर बैठे-बैठे उन्होंने राम-कथा प्रारंभ की। राम का गुणगान। रावण की लंका में राम-चर्चा सुनकर सीता चौंकीं। उन्होंने ऊपर देखा, जिधर से आवाज़ आ रही थी। पूछा, 'कौन हो तुम?" हनुमान नीचे उतर आए। उन्होंने सीता को प्रणाम किया। राम की अंगूठी उन्हें दी। कहा, "हे माता! मैं श्रीराम का दास हूँ। किष्किंधा के वानरराज सुग्रीव का अनुचर। उन्होंने मुझे यहाँ भेजा है। आपका समाचार लेने। "हनुमान को लेकर सीता के मन में अब भी शंका थी। उन्होंने पर्वत पर फेंके आभूषणों की याद दिलाकर संदेह दूर कर दिया। सीता ने राम का कुशल-क्षेम पूछा। कई प्रश्न किए। हनुमान उन्हें कंधे पर बैठाकर राम के पास ले जाना चाहते थे। सीता ने प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया। उन्होंने कहा, "यह उचित नहीं होगा, पुत्र। पकड़े गए तो मेरा संदेश भी राम तक नहीं पहुँचेगा।"


हनुमान ने सीता से विदा ली। वह पूरी सूचना तत्काल राम तक पहुँचाना चाहते थे। चलते समय सीता ने अपना एक आभूषण उन्हें दे दिया। उनकी आँखें नम थीं। हनुमान ने कहा, “निराश न हों, माते! श्रीराम दो माह में यहाँ अवश्य पहुँच जाएँगे।" हनुमान राम के पास लौटने को उद्यत थे। उत्तर दिशा की ओर जाना था। पर कुछ सोचकर रुक गए। उन्होंने रावण का उपवन तहस-नहस कर दिया। अशोक वाटिका उजाड़ दी। वृक्ष उखाड़ दिए। और विरोध करने वाले सभी राक्षसों को मार डाला। रावण के कई महाबली मारे गए। हनुमान से लड़ते हुए रावण का पुत्र अक्षकुमार भी प्राण गँवा बैठा। राक्षस भागे-भागे राजमहल गए। रावण को इसकी सूचना दी। एक वानर के उत्पात के बारे में बताया। रावण तिलमिला गया। उसके क्रोध का ठिकाना नहीं रहा। उसने मेघनाद को भेजा। अपने सबसे बड़े बेटे को। कहा, "उस वानर को मेरे सामने उपस्थित करो। उसने जघन्य अपराध किया है। "मेघनाद ने हनुमान से भीषण युद्ध किया। वह इंद्रजित था। एक बार इंद्र को परास्त कर चुका था। उसने अंततः हनुमान को बाँध लिया। राक्षस उन्हें खींचते हुए रावण के दरबार में ले आए।

"शक्तिशाली रावण सिंहासन पर बैठा था। उसके सेनापति ने पूछा , " कौन हो तुम? किसने तुम्हें यहाँ भेजा है?" हनुमान के मन में भय नहीं था, "मैं श्रीराम का दास हूँ। मेरा नाम हनुमान है। आप श्रीराम की पत्नी सीता को हर लाए हैं। मैं उन्हीं की खोज में आया था। उनसे मैं मिल चुका। आपके दर्शन करना चाहता था। इसलिए उत्पात करना पड़ा। इसमें मेरा कोई अपराध नहीं है। दंड के भागी तो राक्षस हैं। उन्होंने मुझे रोकने का प्रयास किया। ' क्रोध में रावण हनुमान को मारने उठा। छोटे भाई विभीषण ने उसे रोक दिया। कहा, “आप नीतिवान हैं, राजन्! नीति के अनुसार दूत का वध अनुचित है। आप उसे कोई दूसरा दंड दे दें।" हनुमान ने रावण को पुनः प्रणाम किया "मेरा एक निवेदन है। आप सीता को सम्मान सहित लौटा दें। इसी में आपका कुशल है। धनुर्धर राम से आप युद्ध नहीं जीत सकते। "रावण ने हनुमान की पूँछ में आग लगा देने की आज्ञा दी। राक्षसों ने आग लगा दी। जलती हुई पूँछ के साथ उन्हें नगर में घुमाया। राक्षस ठिठोली कर रहे थे। 

इसी बीच हनुमान ने बंधन तोड़ दिए। एक भवन पर चढ़कर उसमें आग लगा दी। एक से दूसरी अटारी पर कूदते उन्होंने सभी भवन जला दिए। हाहाकार मच गया। लंका जल रही थी। धू-धू कर। राक्षस विलाप करने लगे। अचानक हनुमान को सीता की चिंता हुई। वे अशोक वाटिका की ओर भागे। डर था कि कहीं आग उन तक न पहुँच गई हो। सीता सकुशल थीं। पेड़ के नीचे बैठी हुईं। आग से अप्रभावित। हनुमान ने उन्हें प्रणाम किया। आशीर्वाद माँगा। और उत्तर दिशा की ओर चल पड़े। राम के पास। दूसरे तट पर सभी हनुमान की प्रतीक्षा कर रहे थे। अंगद। जामवंत। अन्य वानर। आते ही उन्हें सबने घेर लिया। हनुमान ने संक्षेप में लंका का हाल सुनाया। सीता से भेंट का क्रम बताया। कहा, "मैंने उन्हें देखा। बात की। यह समाचार शीघ्र श्रीराम तक पहुँचाना चाहिए। समय अधिक नहीं है।" वानर किलकारियाँ भरने लगे। प्रसन्नता में वानरों का उत्पात बढ़ गया। उन्होंने मार्ग के कई वन उजाड़े। फल खाए और फेंके। दौड़ते हुए चले। और किष्किंधा पहुँच गए। राम के पास। वानरों को साथ लेकर सुग्रीव वहाँ पहुँचे। हनुमान ने राम को सीता द्वारा दिया गया आभूषण दिया। राम की आँखों में आँसू आ गए। उन्होंने हनुमान से कई प्रश्न किए। वे कैसी हैं? कैसे रहती हैं? उन्होंने कोई संदेश भेजा है? हनुमान ने पूरी बात विस्तार से कही। कहा, "मैंने उनसे भेंट की। वे व्याकुल हैं। चिंतित हैं। हर समय राक्षसों से घिरी रहती हैं। आपकी प्रतीक्षा कर रही हैं। उन्होंने कहा, 'यदि श्रीराम दो माह में यहाँ नहीं आए तो पापी रावण मुझे मार डालेगा'। "राम शोक में डूब गए। भाव विह्वल होकर उन्होंने हनुमान को गले से लगा लिया। आँसू रोक नहीं पाए। लक्ष्य स्पष्ट था। लंका पर आक्रमण। समय कम था। सुग्रीव ने युद्ध की तैयारियाँ तत्काल प्रारंभ करने का निर्देश दिया। वानर सेना इसके लिए पहले से तैयार थी। उत्साहित थी। इस बार उन्हें अलग-अलग टोलियों में बाँटने की आवश्यकता नहीं थी। अलग दिशाओं में नहीं जाना था। सबका लक्ष्य एक था। दिशा एक थी। दक्षिण। सुग्रीव ने लक्ष्मण के साथ बैठकर युद्ध की योजना पर विचार किया। योग्यता और उपयोगिता के आधार पर भूमिकाएँ निर्धारित हुईं। हनुमान, अंगद, जामवंत, नल और नील को आगे रखा गया। समुद्र पर चर्चा हुई। उसे कैसे पार करेंगे? सेना का हर वानर हनुमान नहीं था। यह एक चुनौती थी। देर रात तक चर्चा का विषय रही।