रविवार, 3 अप्रैल 2016

काव्य में शब्द–शक्तियों का प्रयोग

काव्य में शब्द–शक्तियों का प्रयोग

शब्द का अर्थ बोध कराने वाली शक्ति ही ‘शब्दशक्ति’ है। वह एक प्रकार से शब्द और अर्थ का समन्वय है। हिन्दी के रीतिकाल आचार्य चिंतामणि ने लिखा है:- “जो सुन पडे सो शब्द है, समुझि परै सो अर्थ” अर्थात जो सुनाई पडे वह शब्द है तथा उसे सुनकर जो समझ में आवे वह उसका अर्थ है। शब्द की तीन शक्तियाँ हैं---

अभिधा 2. लक्षणा 3. व्यंजना

अभिधा:

सांकेतिक अर्थ को बतलाने वाली शब्द की प्रथम शक्ति को‘अभिधा’ कहते है।वह शब्द वाचक कहलाता है।पं.जगन्नाथ कहते है–“शब्द एवं अर्थ के परस्पर संबंध को अभिधा कहते है”। यानि कि जो भी बात सीधा सीधा कह दें और समझ में आ जाय वह ‘अभिधा शक्ति’ होता है।

अभिधा तीन प्रकार के होते हैं:-

रूढ़िः रूढ़ि शब्द वे हैं, जिनकी व्युत्पत्ति नहीं की जा सकती,जो समुदाय के रूप में अर्थ की प्रतीति कराते हैं।

उदाहरण:-पेड़, चन्द्र, पशु, घर, धोड़ा आदि।

यौगिक: यौगिक शब्द वे हैं,जिनकी व्युत्पत्ति हो सकती है। इन शब्दों का अर्थ उनके अवयवों से ज्ञात होता है।

उदाहरण:-नरपति, भूपति, सुधांशु आदि।

व्युत्पत्ति—भू+पति

भूपति शब्द भू+पति से निर्मित है। भू का अर्थ ‘भूमि या पृथ्वी’, पति का अर्थ ‘स्वामी’ है। इन दोनों के मिलने से ‘पृथ्वी का स्वामी’ अर्थ होता है। योगरूढ़ि: ये शब्द वे हैं,जो यौगिक होते है किंतु उनका अर्थ रूढ़ होता है। उदाहरण:- पंकज व्युत्पत्तिà पंक+ज

यौगिक अर्थ है पंक से जन्म लेने वाला। पंक(कीचड़)से जन्म लेने वालें पदार्थों में सेवार,घोंघा,कमल आदि हैं। किंतु यह शब्द केवल ‘कमल’ के अर्थ में रूढ़ हो गया है।

लक्षणा:

शब्द का अर्थ अभिधा मात्र में ही सीमित नही रहता है। “लाक्षणिक अर्थ को व्यक्त करने वाली शक्ति का नाम लक्षणा है”। आशय यह है कि मुख्य अर्थ के ज्ञान में बाधा होते पर और उस (मुख्यार्थ) के साथ संबंध(योग)होने पर प्रसिद्धि या प्रयोजनवश अन्य अर्थ जिस शब्द शक्ति से विदित होता है,उसे ‘लक्षणा’ कहते हैं। लक्षणा के व्यापार के लिए तीन तत्व आवश्यक हैं---

---- मुख्यार्थ का बाधा

---- मुख्यार्थ और लक्ष्यार्थ का योग (संबंध)

---- रूढ़ि या प्रयोजना

अर्थात लक्षणा में मुख्यार्थ का बाधा तथा लक्ष्यार्थ का परस्पर योग आवश्यक है रूढ़ि अथवा प्रयोजन में किसी एक का होना भी आवश्यक है। मुख्य रूप से लक्षणा के दो भेद है:---

रूढ़िमूला लक्षणा: इस प्रकार के लक्षणा में, मुख्यार्थ के बाधा होने पर जिस लक्ष्यार्थ का हम उपयोग करते है उसे प्रसिद्ध होना आवश्यक है।

उदाहरण:- अगर एक दोस्त, दूसरे से ये कहे कि तुम पूर के पूरे गधे हो, तो इसका अर्थ ये नहीं कि उसका दोस्त गधा है। मनुष्य कैसे गधा हो सकता है। गधा अपनी मूर्खता के लिए प्रसिद्ध है। तो इसका अर्थ ये हुआ कि उसका दोस्त मूर्ख है।

प्रयोजनवती लक्षणा: साहित्य में इस लक्षणा का प्रयोग किसी विशेष प्रयोजन के लिए करते है। उदाहरण:–

“लहरै व्योम चूमती उठती, चपलाएँ असख्य नचती।
गरल जलद की खड़ी झड़ी में, बूँदें निज संसृति रचती”।।

                                                                                        (कामायनी)

व्योम चूमती शब्द में लक्षणा है। लहरों का व्योम चूमना संभव नहीं है किंतु इसका अर्थ है ‘स्पर्श करना’।कवि इस शब्द का प्रयोग एक विशेष प्रयोजन से करता है और वह है – ‘प्रलय की भयंकरता बताना’। यहाँ पर प्रयोजनवती लक्षणा है।प्रलय के समय समुद्र की लहरें मानो आकाश को छू रही थीं।

प्रयोजनवती लक्षणा दो प्रकार की होती है:- गौणी और शुद्धा। गौणी के दो भेद हैं:- सारोपा और साध्यवसाना। शुद्धा चार भेद हैं:- उपादान लक्षणा, लक्षण-लक्षणा, सारोपा लक्षणा और साध्यवसाना लक्षणा। इसका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है------

गौणी लक्षणा: गौणी लक्षणा में समान गुण या धर्म के कारण लक्ष्यार्थ की प्रतीति होती है। उदहरण:- ‘मुख कमल’ यानि कि मुख कमल के समान सौम्य और सुंदर है।

शुद्धा लक्षणा: इसमें सामीप्य या निकटवर्ती संबंध के कारण लक्ष्यार्थ की प्रतीति होती है। उदहरण:- अगर कोई कहे कि मैं गंगा में झोपडी डाल कर रहूँगा तो इसका अर्थ ये नहीं कि वह गंगा नदी में झोपडी डाल कर रहेगा, इसका सामीप्य संबंध गंगा की पवित्रता और शीतलता से है।

उपादान लक्षणा: अपने अर्थ को न छोड़ कर दूसरे के अर्थ को भी ग्रहण करने से उसे उपादान लक्षणा कहते हैं। उदहरण:- कुंता प्रविशंतिà भाले प्रवेश कर रहे हैं।

लक्षण-लक्षणा: अपने अर्थ को छोड़ कर दूसरे के अर्थ को ग्रहण करना। उदाहरण:- ‘कलिंग साहसिक’àकलिंग वासी साहसी है।

सारोपा लक्षणा: एक वस्तु से दूसरे वस्तु की अभेद प्रतीति को ‘आरोप लक्षणा’ कहते है।

साध्यवसाना लक्षणा: इसमें विषयी के द्धारा विषय का ज्ञान होने से साध्यवसाना लक्षणा होती है।

व्यंजना:

शब्द शक्तियों में तीसरी शब्द-शक्ति व्यंजना है। व्यंजना शब्द की निष्पत्ति वि – अंजना दो शब्दों से हुई है। वि उपसर्ग है तो अंज प्रकाशन धातु है। व्यंजना का अर्थ विशेष प्रकार का अंजना है। अंजना लगाने से नेत्रों की ज्योति बढ़ जाती है। इसी प्रकार काव्य में व्यंजना प्रयुक्त करने से उसकी शोभा बढ़ जाती है।

व्यंजना के लक्षण: जब अभिधा शाक्ति अर्थ बतलाने में असमर्थ होती है तो लक्षणा के द्धारा अर्थ को बतलाने की चोष्टा की जाती है, पर कुछ अर्थ ऐसे होते है जिनकी प्रतीति अभिधा और लक्षणा के द्धारा नही की जा सकती और तीसरी शब्द शक्ति को प्रयुक्त किया जाता है।

व्यंजना के भेद:

1.शाब्दी व्यंजना: शब्द के परिवर्तन के साथ ही अर्थ भी परिवर्तित हो जाता है। ये दो प्रकार के हैं

अभिधामूला शाब्दी व्यंजना: इस में संयोग आदि के द्धारा अनेक अर्थ वाले शब्दों का एक विशेष अर्थ निश्चित किया जाता है।

लक्षणमूला शाब्दी व्यंजना: जहाँ पर मुख्यार्थ की बाधा होने पर लक्षणा शक्ति से दूसरा अर्थ निकलता है, किन्तु जब उसके बाद भी दूसरे अर्थ की प्रतीति हो, वहाँ ‘लक्षणमूला शाब्दी’ व्यंजना होती है।

2.आर्थी व्यंजना: इसमें अर्थ की सहायता से व्यग्यार्थ का ज्ञान होता है। जहाँ पर व्यग्यार्थ किसी शब्द पर आधारित न हो, वरन् उस शब्द के अर्थ द्धारा ध्वनित होता है, वहाँ ‘आर्थी व्यंजना’ होती है।

व्यंजना शब्द शक्ति न तो अभिधा की तरह शब्द में सीमित है और न लक्षणा की तरह अर्थ में, अपितु यह शब्द और अर्थ दोनों में रहती है। अन्य महत्वपूर्ण तत्व यह भी है कि व्यंजना शब्द शक्ति के कारण ही काव्य अधिक मार्मिक सरस और ग्राह्य बन गया है।