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मंगलवार, 6 अप्रैल 2021

कबीर की साखी | स्पर्श | भाग-2 | कक्षा-10 | द्वितीय भाषा | पद्य-खंड | पाठ-1 | कबीर दास के दोहे - KABIR DAS KE DOHE | CBSE | HINDI | CALSS X

 


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कबीर की साखी
स्पर्श भाग-2
कक्षा-10 (द्वितीय भाषा)
पद्य-खंड पाठ-1

कबीर का जन्म 1398 में काशी में हुआ माना जाता है। गुरु रामानंद के शिष्य कबीर ने 120 वर्ष की आयु पाई। जीवन के अंतिम कुछ वर्ष मगहर में बिताए और वहीं चिरनिद्रा में लीन हो गए।

कबीर का आविर्भाव ऐसे समय में हुआ था जब राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक क्राँतियाँ अपने चरम पर थीं। कबीर क्रांतदर्शी कवि थे। उनकी कविता में गहरी सामाजिक चेतना प्रकट होती है। उनकी कविता सहज ही मर्म को छू लेती है। एक ओर धर्म के बाह्याडंबरों पर उन्होंने गहरी और तीखी चोट की है तो दूसरी ओर आत्मा-परमात्मा के विरह-मिलन के भावपूर्ण गीत गाए हैं। कबीर शास्त्रीय ज्ञान की अपेक्षा अनुभव ज्ञान को अधिक महत्त्व देते थे। उनका विश्वास सत्संग में था और वे मानते थे कि ईश्वर एक है, वह निर्विकार है, अरूप है।

कबीर की भाषा पूर्वी जनपद की भाषा थी। उन्होंने जनचेतना और जनभावनाओं को अपने सबद और साखियों के माध्यम से जन-जन तक पहुँचाया।

कबीर दास के दोहे - KABIR DAS KE DOHE

ऐसी बाणी बोलिए, मन का आपा खोइ।
अपना तन सीतल करै, औरन कौ सुख होइ॥

कस्तूरी कुण्डली बसै मृग ढ़ूँढ़ै बन माहि।
ऐसे घटी घटी राम हैं दुनिया देखै नाँहि॥

जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाँहि।
सब अँधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माँहि॥

सुखिया सब संसार है, खाए अरु सोवै।
दुखिया दास कबीर है, जागै अरु रोवै॥

बिरह भुवंगम तन बसै मन्त्र न लागै कोई।
राम बियोगी ना जिवै जिवै तो बौरा होई।।

निंदक नेडा राखिए आँगन कुटी बंधाई।
बिना सांबण पांणी बिना, निरमल करै सुभाइ॥

पोथी पढि-पढि जग मुवा, पंडित भया न कोइ।
एकै आखिर पीव का, पढै सो पंडित होइ॥

हम घर जाल्या आपणाँ लिया मुराड़ा हाथि।
अब घर जालौं तास का, जे चलै हमारे साथि॥




गुरू कुम्हार शिष कुंभ है, गढि-गढि काढै खोट। अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट।। (कबीर दास के दोहे - KABIR DAS KE DOHE)

कबीर दास के दोहे - KABIR DAS KE DOHE


गुरू कुम्हार शिष कुंभ है, गढि-गढि काढै खोट।
अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट।।

कबीरदास ने उपर्युक्त दोहे में गुरू का महत्व समझाया है।

कबीरदास जी कहते हैं कि गुरु कुम्हार है और शिष्य मिट्टी के कच्चे घडे के समान है। गुरू भीतर से हाथ का सहारा देकर बाहर से चोट मार मारकर साथ ही शिष्यों की बुराई को निकालते है। गुरु ही शिष्य के चरित्र का निर्माण करता है, गुरु के अभाव में शिष्य एक माटी का टुकड़ा ही होता है जिसे गुरु एक घड़े का आकार देते हैं, उसके चरित्र का निर्माण करते हैं। सत्गुरू ही शिष्य की बुराईयो कों दूर करके संसार में सम्माननीय बनाते है।

कठिन शब्दार्थ :

कुम्भ – घडा

गढ़ि गढ़ि काढ़े खोट – गुरु कठोर अनुशासन किन्तु मन में प्रेम भावना रखते हुए शिष्य के खोट को (मन के विकारों को) दूर करते है।

बाहर बाहै चोट –बाहर चोट मारना



निंदक नेडा राखिए आँगन कुटी बंधाई। बिना सांबण पांणी बिना, निरमल करै सुभाइ॥ (कबीर दास के दोहे - KABIR DAS KE DOHE)

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कबीर दास के दोहे - KABIR DAS KE DOHE


निंदक नेडा राखिए आँगन कुटी बंधाई।
बिना सांबण पांणी बिना, निरमल करै सुभाइ॥

कबीरदास ने उपर्युक्त दोहे में वर्णन किया है कि निंदा करने वाले व्यक्तियों को अपने पास रखने की सलाह देते हैं ताकि आपके स्वभाव में सकारात्मक परिवर्तन आ सके।

कबीरदास जी कहते है कि निंदकों को आँगन में कुटिया बनाकर अपने निकट रखा जाए जिससे बिना साबुन और पानी के स्वभाव निर्मल होता रहेगा। पास स्थित निंदक दोष निकालेगा और निन्द्य व्यक्ति अपना परिमार्जन करता जाएगा। उस तरह वह बिना साबुन और पानी के ही निर्मल हो जाएगा।

कठिन शब्दार्थ :

निंदक - निंदा करने वाला

नेड़ा - निकट

आँगणि - आँगन

साबण - साबुन

निरमल - साफ़

सुभाइ - स्वभाव


पोथी पढि-पढि जग मुवा, पंडित भया न कोइ। एकै आखिर पीव का, पढै सो पंडित होइ॥ (कबीर दास के दोहे - KABIR DAS KE DOHE)

कबीर दास के दोहे - KABIR DAS KE DOHE


पोथी पढि-पढि जग मुवा, पंडित भया न कोइ।
एकै आखिर पीव का, पढै सो पंडित होइ॥

कबीरदास ने उपर्युक्त दोहे में वास्त्विक ज्ञान और प्रेमतत्व का वर्णन किया है।

कबीरदास कहते है कि सारे संसार के लोग पुस्तक पढते-पढते मर गये कोई भी पंडित (वास्त्विक ज्ञान रखने वाला) नहीं हो सका। परन्तु जो अपने प्रिय परमात्मा के नाम का एक ही अक्षर जपता है (या प्रेम का एक अक्षर पढता है) वही सच्चा ज्ञानी (पंडित) होता है। वही परमात्मा का सच्चा भक्त होता है।

कठिन शब्दार्थ :

पोथी - पुस्तक

मुवा - मरना

भया - बनना

अषिर - अक्षर

पीव - प्रिय


सुखिया सब संसार है, खाए अरु सोवै। दुखिया दास कबीर है, जागै अरु रोवै॥ (कबीरदास के दोहे - KABIRDAS KE DOHE)

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कबीरदास के दोहे - KABIRDAS KE DOHE

सुखिया सब संसार है, खाए अरु सोवै।
दुखिया दास कबीर है, जागै अरु रोवै॥

कबीरदास ने उपर्युक्त दोहे में ईश्वर को पाकर माया विमुक्त होने की बात समझाया है।

कबीरदास जी कहते हैं कि संसार के लोग अज्ञान रूपी अंधकार में डूबे हुए हैं और निशा में सो रहे हैं। अपनी मृत्यु आदि से भी अनजान सोये हुये हैं। एक मात्र कबीर दुखी हैं जो जागते हुए रो रहे हैं क्योंकि वह ईश्वर को पाने की आशा में हमेशा चिंता में जागते रहते हैं।

कबीर को सारा संसार मोह ग्रस्त दिखाई देता है। वह मृत्यु के छाया में रहकर भी सबसे बेखबर विषय-वासनाओं को भोगते हुए अचेत पडा है। कबीर का अज्ञान दूर हो गया है। उनमें ईश्वर के प्रेम की प्यास जाग उठी है। सांसारिकता से उनका मन विरक्त हो गया है। उन्हे दोहरी पीडा से गुजरना पड रहा है। पहली पीडा है - सुखी जीवों का घोर यातनामय भविष्य, मुक्त होने के अवसर को व्यर्थ में नष्ट करने की उनकी नियति। दूसरी पीडा भगवान को पा लेने की अतिशय बेचैनी। दोहरी व्यथा से व्यथित कबीर जाग्रतावस्था में है और ईश्वर को पाने की करुण पुकार लगाए हुए है।

कठिन शब्दार्थ :

सुखिया - सुखी

अरु - अज्ञान रूपी अंधकार

सोवै - सोये हुए

दुखिया - दुःखी

रोवै - रो रहे


हम घर जाल्या आपणाँ लिया मुराड़ा हाथि। अब घर जालौं तास का, जे चलै हमारे साथि॥ (कबीर दास के दोहे - KABIR DAS KE DOHE)

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कबीर दास के दोहे - KABIR DAS KE DOHE


हम घर जाल्या आपणाँ लिया मुराड़ा हाथि।
अब घर जालौं तास का, जे चलै हमारे साथि॥

कबीरदास ने उपर्युक्त दोहे में गुरू का महत्व समझाया है।

कबीरदास कहते है कि मोह - माया रूपी घर को जला कर अर्थात त्याग कर ज्ञान को प्राप्त करने की बात करते हैं। उन्होंने कहा है कि संसारिकता के मोह माया के घर को अपने हाथों से ज्ञान की लकड़ी से जला दिया है। अब जो भी मेरे साथ चलना चाहे मैं उसका भी घर (विषय वासना, मोह माया का घर ) जला दूँगा। सद्गुरु ही ज्ञान प्राप्त कराकर ईश्वर तक पहुँचाता है।

जाल्या - जलाया

आपणाँ - अपना

मुराड़ा - जलती हुई लकड़ी, ज्ञान

हाथि - हाथ (अपने हाथों से अपना घर जलाया है )

जालौं - जलाऊँ

तास का – उसका



कस्तूरी कुण्डली बसै मृग ढ़ूँढ़ै बन माहि। ऐसे घटी घटी राम हैं दुनिया देखै नाँहि॥ (कबीर दास के दोहे - KABIR DAS KE DOHE)

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कबीर दास के दोहे - KABIR DAS KE DOHE

कस्तूरी कुण्डली बसै मृग ढ़ूँढ़ै बन माहि।
ऐसे घटी घटी राम हैं दुनिया देखै नाँहि॥

कबीरदास ने उपर्युक्त दोहे में मन की शुद्धता और ईश्वर की महत्ता की महत्त्व समझाया है।

कबीर दास जी कहते है कि कस्तूरी हिरण की नाभि में सुगंध होता है, लेकिन अनजान हिरण उसके सुगन्ध को पूरे जगत में ढूँढता फिरता है। कस्तूरी का पहचान नहीं होता। ठीक इसी तरह ईश्वर भी हर मनुष्य के ह्रदय में निवास करते है क्योंकि संसार के कण कण में ईश्वर विद्यमान है और मनुष्य उसके अंतंर्मुख ईश्वर को देवालयों, मस्जिदों और तीर्थस्थानों में ढूँढता फिरता है। कबीर जी कहते है कि अगर ईश्वर को ढूँढ़ना है तो अपने मन में ढूँढो साथ ही सत्य आचरण को अपनाकर हम ईश्वर तक पहुच सके।

कठिन शब्दार्थ :

कुंडली - नाभि

मृग - हिरण

बसै : रहना।

बन : जंगल।

माहि : के अंदर।

घटी घटी : हृदय में।




बिरह भुवंगम तन बसै मन्त्र न लागै कोई। राम बियोगी ना जिवै जिवै तो बौरा होई।। (कबीर दास के दोहे - KABIR DAS KE DOHE)

(कबीर दास के दोहे - KABIR DAS KE DOHE)


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बिरह भुवंगम तन बसै मन्त्र न लागै कोई।
राम बियोगी ना जिवै जिवै तो बौरा होई।।

 
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बिरह भुवंगम तन बसै मन्त्र न लागै कोई।
राम बियोगी ना जिवै जिवै तो बौरा होई।।

कबीरदास ने उपर्युक्त दोहे में ईश्वर के वियोग में मनुष्य की दशा का वर्णन किया है।

कबीरदास जी कहते हैं कि जब मनुष्य के मन में अपनों के बिछड़ने का दुख सांप बन कर लोटने लगता है तो उस पर न कोई मन्त्र का असर करता है और न ही कोई दवा का असर करती है। उसी तरह ईश्वर के वियोग में मनुष्य जीवित नहीं रह सकता और यदि वह जीवित रहता भी है तो उसकी स्थिति पागलों जैसी हो जाती है। विरह की वेदना जिस प्रकार किसी व्यक्ति को मन ही मन काटती रहती है, वैसे ही ईश्वर के रंग में रंगा भक्त भी सबसे जुदा होता है। सच्चा भक्त अपने ईश्वर से दूर नहीं रह सकता। ईश्वर के वियोग में वह जीवित नहीं रह सकता और यदि जीवित रह भी जाए तो वह पागल हो सकता है। विरह-वेदना रूपी नाग उसे निरंतर डसता रहता है। इस वेदना को यदि कोई समझ सकता है तो स्वयं ईश्वर ही समझ सकते हैं।

कठिन शब्दार्थ :

बिरह - बिछड़ने का गम

भुवंगम - भुजंग, सांप

तन बसै : मन में रहना

मन्त्र न लागै कोई : कोई उपचार कार्य नहीं करना बौरा - पागल



सोमवार, 29 मार्च 2021

जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाँहि। सब अँधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माँहि॥ (संत कबीर दास के दोहे)

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संत कबीर दास के दोहे 

जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाँहि।
सब अँधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माँहि॥

कबीर ने उपर्युक्त दोहे में परम सत्ता ईश्वर से साक्षात्कार की बात बताया है। जब तक अहंकार था तब तक ईश्वर से परिचय नहीं हो सका। अहंकार या आत्मा के भेदत्व का अनुभव जब समाप्त हो गया तो ईश्वर का प्रत्यक्ष साक्षात्कार हो गया। ’मैं’ आत्मन का अलग अहसास खत्म हो जाने के बाद, एकमात्र सत्ता ब्रह्मा का अनुभव शेष रहता है। बूँद का अस्थित्व यदि समुद्र में विलिन हो गया तो बूँद भी समुद्र ही हो जाती है। शरीर के भीतर जब परम-ज्योति रूपी दीपक का प्रकाश हुआ तो अज्ञानान्धकार–जनित अहं स्वयं नष्ट हो गया। दीपक का तात्पर्य ज्ञान ही है।

जब मनुष्य का मैं यानि अहं उस पर हावी होता है तो उसे ईश्वर नहीं मिलते हैं। जब ईश्वर मिल जाते हैं तो मनुष्य का अस्तित्व नगण्य हो जाता है क्योंकि वह ईश्वर में मिल जाता है। ये सब ऐसे ही होता है जैसे दीपक के जलने से सारा अंधेरा दूर हो जाता है। माया, रिश्ते नातों में मोह, जीवन के उद्देश्य से विमुख होना, आडंबर आदि व्यवहार ये सभी अंधकार ही हैं और इन्हे ईश्वर के दीपक के प्रकाश से ही समाप्त किया जा सकता है। परम सत्ता को स्वीकार करने में माया और अहम् बाधक हैं। जीव को सदा ही माया अपने पाश में उलझती रहती है। माया उसे जीवन के उद्देश्य से विमुख करती है और ऐसा कृतिम आवरण पैदा करती है जिसमे जीव यह भूल जाता है कि वह तो यहाँ कुछ दिनों का मेहमान है और माया सदा ही इस जगत में रहेगी, वह कभी मरती नहीं हैं। गुरु के सानिध्य में आने से ही माया का बोध हो पाता है और जीव इसके जाल से मुक्त होकर ईश्वर से साक्षात्कार कर पाता है।

कठिन शब्दार्थ :

मैं - अहम् ( अहंकार )

हरि - परमेश्वर

जब मैं था तब हरि नहीं : जब अहंकार और अहम् (स्वंय के होने का बोध) होते हैं तब तक ईश्वर की पहचान नहीं होती है।

अब हरि हैं मैं नांहि : अहम् के समाप्त होने पर हरी (ईश्वर का वास होता है ) का भान होता है।

अँधियारा - अंधकार

सब अँधियारा मिटी गया : अंधियारे होता है अहम्, माया, नश्वर जगत के होने का।

जब दीपक देख्या माँहि : अहम् के समाप्त होने के उपरांत अंदर का विराट उजाला दिखाई देता है।



ऐसी बाणी बोलिए, मन का आपा खोइ। अपना तन सीतल करै, औरन कौ सुख होइ॥ (संत कबीरदास के दोहे)

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संत कबीरदास के दोहे

ऐसी बाणी बोलिए, मन का आपा खोइ।
अपना तन सीतल करै, औरन कौ सुख होइ॥

कबीर ने उपर्युक्त दोहे में वाणी को अत्यधिक महत्त्वपूर्ण कहा है। ऐसी वाणी बोलना चाहिए जिसमें मन का अहंकार न हो , ऐसी वाणी वक्ता के शरीर को शीतलता देती है और श्रोता को सुख प्रदान करती है। मधुर वाणी औषधि के सामान होती है, जबकि कटु वाणी तीर के समान कानों से प्रवेश होकर संपूर्ण शरीर को पीड़ा देती है। मधुर वाणी से समाज में एक – दूसरे के प्रति प्रेम की भावना का संचार होता है। जबकि कटु वचनों से सामाजिक प्राणी एक - दूसरे के विरोधी बन जाते है।

कहते है कि “तलवार का घाव देर-सवेर भर ही जाता है, किंतु कटु वचनों से हुआ घाव कभी नहीं भरता।” इसलिए हमेशा मीठा और उचित वाणी ही बोलना चाहिए, जो दूसरों को तो प्रसन्न करता ही है और खुद को भी सुख की अनुभूति होता है। कभी कभी मधुर वचनों से बिगड़े हुए कार्यो को भी बनाया जा सकता है।

वाणी मनुष्य के लिए ईश्वर की दी हुई एक अनोखी देन है, अतः कटु वचन बोलकर इस देन को व्यर्थ न करें। वाणी की मधुरता हृदय के द्वार खोलने की कुंजी है। हमारी वाणी से ही हमारी शिक्षा, दीक्षा, परंपरा और मर्यादा का पता चलता है। कटु वचन बोलने वाले को समाज में कभी सम्मान नहीं मिलता। इसलिए जैसा कि कबीर दास के दोहे में कहा गया है – हमें हमेशा लोगों से प्रेमभरी मीठी वाणी में बात करनी चाहिए।

महाकवि संत कबीर दास के दोहे में कहा गया है कि हमेशा मीठा और उचित ही बोलना चाहिए, जो दुसरो को तो प्रसन्न करता ही है और खुद को भी सुख की अनुभूति कराता है। विनम्रता ज्ञान की पहचान है। जैसे फलदार वृक्ष झुकता है वैसे ही ज्ञानी व्यक्ति को विनम्र होना चाहिए। विनम्र और मीठी वाणी से स्वंय का अहंकार तो दूर होता है और दूसरों को भी इससे सुख प्राप्त होता है। कबीर साहेब ने भी कई प्रकार की यातनाएँ सही लेकिन कहीं भी उनकी वाणी में प्रतिशोध और बदले की भावना दिखाई नहीं देती है जो की एक संत की मूल निशानी है।

कठिन शब्दार्थ :

बाणी : बोली, जुबान

मन का आपा : मन का 'अहम्'

खोयी : समाप्त होना।

अपना तन सीतल करै : स्वंय को भी सुखद लगना

औरन कै सुख होई : दूसरों के भी सुख लगना



रविवार, 3 अप्रैल 2016

पाठ योजना (कबीर की साखी)

पाठ योजना 

कक्षा :                                                                        

दिनांक : 

पाठ का नाम : कबीर की साखी


शैक्षणिक उद्देश्य :-

१ सामान्य उद्देश्य :

१) छात्रों में काव्य के प्रति रुचि उत्पन्न करवाना।

२) छात्रों को सस्वर कविता वाचन का अभ्यास कराना।

३) छात्रों में भावानुभूति तथा सौंदर्यानुभूति का विकास करवाना।

२ विशिष्ट उद्देश्य :

१) छात्र काव्य के भावों को बोधगम्य करके अपने शब्दों में प्रस्तुत कर सकेंगे।

२) छात्र गुरूजनों के प्रति श्रद्धा भाव व्यक्त करना।

३) छात्र भाव–सौंदर्य और शिल्प सौंदर्य को समझ सकेंगे।

४) छात्र ईश्वर की सर्वव्यापकता के संदेश को ग्रहण कर सकेंगे।

३ सहायक सामग्री :

निर्धारित पाठ्य पुस्तक तथा संत कवि कबीर का भाव चित्र, व्याकरण, शामपट चाँक एंव चार्ट आदि ।

४ प्रस्तुतीकरण :

सर्वप्रथम विद्यार्थियों को कबीरदास का परिचय देते हुए उनके काव्य पाठ ’ साखी ’ का भाव एंव व्याख्यान निम्नलिखित रुप से बताया जाएगा ।

ऐसी बाणी बोलिए, मन का आपा खोइ । 
अपना तन सीतल करै, औरन कौ सुख होइ ॥ 

व्याख्यान :- ऐसी वाणी बोलना चाहिए जिसमें मन का अहंकार न हो , ऐसी वाणी वक्ता के शरीर को शीतलता देती है और श्रोता को सुख प्रदान करती है ।

जब मैं था तब हैरि नहीं, अब हरि है मैं नाँहि । 
सब अँधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माँहि ॥ 

व्याख्यान :-जब तक अहंकार था तब तक ईश्वर से परिचय नहीं हो सका। अहंकार या आत्मा के भेदत्व का अनुभव जब समाप्त हो गया तो ईश्वर का प्रत्यक्ष साक्षात्कार हो गया। ’मैं’ आत्मन का अलग अहसास खत्म हो जाने के बाद, एकमात्र सत्ता ब्रह्मा का अनुभव शेष रहता है। बूँद का अस्थित्व यदि समुद्र में विलिन हो गया तो बूँद भी समुद्र ही हो जाती है। शरीर के भीतर जब परम-ज्योति रूपी दीपक का प्रकाश हुआ तो अज्ञानान्धकार–जनित अहं स्वयं नष्ट हो गया। दीपक का तात्पर्य ज्ञान भी हो सकता है। ज्ञान के होने पर ’सर्व खल्विदं ब्रह्मा ’ की भावना प्रबल हो जाती है।

गुरू कुम्हार शिष कुंभ है, गढि-गढि काढै खोट। 
अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट।। 

व्याख्यान :- गुरू कुम्हार है और शिष्य घडा है, गुरू भीतर से हाथ का सहारा देकर, बाहर से चोट मार मारकर साथ ही शिष्यों की बुराई को निकलते है।

दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार। 
तरूवर ज्यों पत्ता झडे, बहुरि न लागे डार।। 

व्याख्यान :- इस संसार में मनुष्य का जन्म मुश्किल से मिलता है, यह मानव शरीर उसी तरह बार-बार नहीं मिलता जैसे वृक्ष से पत्ता झड जाए दुबारा डाल पर नहीं लगता।

सुखिया सब संसार है, खाए अरु सोवै । 
दुखिया दास कबीर है, जागै अरु रोवै ॥ 

व्याख्यान :- कबीरदास कहते है कि सभी खाकर अज्ञान की निशा में सो रहे हैं। एक मात्र कबीर दुखी हैं जो जागते हुए रो रहे हैं।

कबीर को सारा संसार मोह ग्रस्त दिखाई देता है। वह मृत्यु के छाया में रहकर भी सबसे बेखबर विषय-वासनाओं को भोगते हुए अचेत पडा है। कबीर का अज्ञात दूर हो गया है। उनमें ईश्वर के प्रेम की प्यास जाग उठी है। सांसारिकता से उनका मन विमुख हो गया है। उन्हे दोहरी पीडा से गुजरना पड रहा है। पहली पीडा है- सुखी जीवों का घोर यातनामय भविष्य, मुक्त होने के अवसर को व्यर्थ में नष्ट करने की उनकी नियति। दूसरी पीडा भगवान को पा लेने की अतिशय बेचैनी। दोहरी व्यथा से व्यथित कबीर जाग्रतावस्था में है और ईश्वर को पाने की करुण पुकार लगाए हुए है।

निंदक नेडा राखिए आँगन कुटी बंधाई । 
बिना सांबण पांणी बिना, निरमल करै सुभाइ ॥ 

व्याख्यान :- कबीर कहते है कि निंदकों को आँगन में कुटिया बनाकर अपने निकट रखा जाए जिससे बिना साबुन और पानी के स्वभाव निर्मल होता रहेगा। पास स्थित निंदक दोष निकालेगा और निन्द्य व्यक्ति अपना परिमार्जन करता जाएगा। उस तरह वह बिना साबुन और पानी के ही निर्मल हो जाएगा ।

पोथी पढि-पढि जग मुवा, पंडित भया न कोइ । 
एकै आखिर पीव का, पढै सो पंडित होइ ॥ 

व्याख्यान :- सारे संसार के लोग पुस्तक पढते-पढते मर गये कोई भी पंडित (वास्त्विक ज्ञान रखने वाला ) नहीं हो सका । परन्तु जो अपने प्रिय परमात्मा के नाम का एक ही अक्षर जपता है (या प्रेम का एक अक्षर पढता है ) वही सच्चा ज्ञानी ( पंडित ) होता है । वही परमात्मा का सच्चा भक्त होता है ।

५ कठिन शब्दार्थ :

बाँणी = बोली, आपा=अहं, पीव=प्रिय, कुम्भ=घडा आदि।

६ विद्यार्थी – क्रियाएँ :

१) आदर्श वाचन को सुनकर तथा अनुकरण वाचन के द्वारा साखी का अर्थ तथा भाव ग्रहण करेंगे।

२) शामपट पर देखकर विभिन्न शब्दों के अर्थ तथा उदाहरण लिखेंगे ।

३) जिज्ञासा समाधान हेतु प्रश्न पूछ सकते है ।

४) दिए गए अभ्यास कार्य तथा गृहकार्य को पूर्ण करेंगे ।

५) मौखिक रुप से साखी के भाव बता सकेंगे ।

७ मूल्यांकन :

१) कबीर की साखी को मौखिक रुप से उसका भाव बोल पाएँगे ।

२) अभ्यास के प्रश्न पूछकर।

३) कठिन शब्दों के अर्थ पूछकर ।

४) चक्र परीक्षा द्वारा।

८ गृहकार्य :

कबीर की साखी की भाव और पद्य पाठ के प्रश्न लिखवाना।
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कबीर का समाज दर्शन और उनकी प्रासंगिकता

कबीर का समाज दर्शन और उनकी प्रासंगिकता


भारतीय धर्म-साधना के इतिहास में कबीर ऐसे महान विचारक एवं प्रतिभाशाली व्यक्ति है,जिन्होंने शताब्दियों की सीमा का उल्लंघन कर दीर्घ काल तक भारतीय जनता का पथ आलोकित किया और सच्चे अर्थों में जन-जीवन का नायकत्व किया। कबीर ने एक जागरूक,विचारक तथा निपुण सुधारक के रुप में तत्कालीन समाज में व्याप्त बुराइयों पर निर्मम प्रहार किया। कबीर के व्यक्तित्व में नैसर्गिक और परिस्थितियों की प्रतिक्रियाओं का योग हुआ है। उन्हें “जाति-पांति प्रथा” सब से अधिक दुःखदायक एवं असह्य प्रतीत हुई। उन्होंने स्वतः कहा है.....

“तुम जिन जानो गीत है, यह निज ब्रह्म विचार”।

पथभ्रष्ट समाज को उचित मार्ग पर लाना ही उनका प्रधान लक्ष्य है। कथनी के स्थान पर करनी को,प्रदर्शन के स्थान पर आचरण को तथा बाह्यभेदों के स्थान पर सब में अन्तर्निहित एक मूल सत्य की पहचान को महत्व प्रदान करना कबीर का उद्देश्य है। हिन्दू समाज की वर्णवादी व्यवस्था को तोडकर उन्होंने एक जाति,एक समाज का स्वरूप दिया। कबीर-पंथ में हिन्दू और मुसलमान दोनों के लिए स्थान है। जाति प्रथा के मूलाधार वर्णाश्रय व्यवस्था पर गहरी चोट करते हुए.......

“एक बून्द एकै मल मूतर, एक चाम एक गूदा।
एक जोति में सब उत्पनां, कौन बाह्मन कौन सूदा”।।

इस अनुभव को धारण करने में ही मानवता का हित निहित हैं। मूर्तिपूजा और खुदा को पुकारने के लिए जोर से आवाज लगाने पर कबीर ने गहरा व्यंग्य किया। वे कहते है ……….

“पहान पूजै हरि मिले तो मैं पूजूँ पहार।
या तो यह चक्की भली पीस खाये संसार”।।

तो मुसलमानों से पूछा………

“काँकर पाथर जोरिकै, मस्जिद लई बनाय।
ता चंदि मुल्ला बांगदै बहरा हुआ खुदाय”।।

कबीर ने शास्त्रों के नाम पर प्रचलित भेदभाव की रूढि का खण्डन करते हुए स्पष्ट उद्घोष किया.........

“जाति-पांति पूछे नहिं कोई,
हरि को भजै सो हरि का होई”।

हिन्दू-मुसलमान भेदभाव का खण्डन करते हुए कहते है कि……….

“वही महादेव वही महमद ब्रह्मा आदम कहियो ।
को हिंदू को तूरक कहावै,एक जमीं पर रहियो”।।

हिन्दू और मूसलमानों में धार्मिक ऐक्य की प्रतिष्ठा के लिए उन्होंने उस निराकार,निर्गुण राम की उपासना का मार्ग प्रशस्त किया। कबीर ऐसे साधक है,जो दोनों की अभेदता का, दोनों की एकता का मरम जानते है, तत्व समझते है। इसलिए स्पष्ट शब्दों में सुझाव देते है……….

“कहै कबीर एक राम जपहिरे,हिन्दू तुरक न कोई।
हिन्दू तुरक का कर्ता एकै,ता गति लखि न जाई”।।

कबीर तीर्थ-यात्रा,व्रत,पूजा आदि को निरर्थक मानते हुए हृदय की शुद्धता को महत्व देते है।वे कहते हैं कि……….

“तेरा साँई तुज्झ में,ज्यों पुहुपन में बास ।
कस्तूरी का मिरग ज्यों,फिर-फिर ढूँढे घास”।।

कर्तव्य भावना की प्रतिष्ठा करते हुए प्रभु के लिए मन में सच्चा प्रेम नहीं तो ऊपर से बाहरी तौर पर रोने-धोने से क्या लाभ होगा……….

“कह भथौ तिलक गरै जपमाला,मरम न जानै मिलन गोपाला।
दिन प्रति पसू करै हरि हाई,गरै काठवाकी बांनि न जाई”।।

स्पष्टतः वे बाह्याचारों को ढ़ोंग मानते है और अन्तः साधना पर बल देते है। वे ब्रह्म का निवास अन्तर में मानते है और उसे पाने के लिए अपने भीतर खोजने की सलाह देते है। वे कहते है……….

“पानी बिच मीन पियासी,
मोहि सुनि सुनि आवत हाँसी,
आतम ज्ञान बिना सब सूना
क्य मथुरा क्या कासी ?
घर की वस्तु घरी नही सूझै
बाहर खोजन जासी”।

स्पष्टतः कबीर ने एक ऐसा साधना परक भक्ति मार्ग खडा किया, जिसमें हिन्दू और मुसलमान दोनों बिना किसी विरोध के एक साथ चल सके।यह मार्ग ही निर्गुण मार्ग या संत मत है। कबीर की यह दृष्टि परम्परा के सार तत्वों के संग्रह से बनकर भी परम्परा से भिन्न है। इसलिए क्रांन्तिकारी है। कबीर अपनी साधना से इस निर्गुण ब्रह्म का साक्षात्कार कर चुके थे और इसे दूसरों तक पहुँचाना चाहते थे। इसलिए समाज-सुधारक कबीर आज भी प्रासंगिक है।

रविवार, 27 मार्च 2016

कबीरदास (समाजसुधारक संत कबीरदास)

कबीरदास

आचार्य पं. रामचंद्र शुक्ल - “हिन्दू धर्मशास्त्र सम्बंधी ज्ञान उन्होंने हिन्दू साधु-सन्यासियों के सत्संग से प्राप्त किया, जिसमें उन्होंने सूफियों के सत्संग से प्राप्त प्रेमतत्व का मिश्रण किया, वैष्णवों से अहिंसा का तत्व लिया और एक अलग पंथ खड़ा किया। xxx इस प्रकार उन्होंने भारतीय ब्रह्मवाद सूफियों के भावात्मक रहस्यवाद, हठयोगियों के साधनात्मक और वैष्णवों के अहिंसावाद तथा प्रपत्तिवाद का मेल करके अपना पंथ खड़ा किया। उनकी बानी में ये समस्त तत्व लक्षित होते है”।

कबीर एक संत एवं समाज सुधारक थे। भारतीय धर्म-साधना के इतिहास में कबीर ऐसे महान विचारक एवं प्रतिभाशाली महाकवि है, जिन्होंने शताब्दियों की सीमा का उल्लंघन कर दीर्घकाल तक भारतीय जनता का पथ आलोकित किया और सच्चे अर्थों में जन-जीवन का नायकत्व किया। कबीर का सारा जीवन सत्य की खोज तथा असत्य के खण्डन में व्यतीत हुआ। कबीर की साधना मानने से नहीं, जानने से आरम्भ होती है।

कबीर सिकन्दर लोधी के समकालीन थे। स्वामी रामानंद इनके दीक्षा गुरू थे। ‘भक्तमाल’ में रामानंद के प्रमुख शिष्यों का उल्लेख करते हुए कबीर को विशिष्ट स्थान प्रदान किया गया है। कबीर मुख्यतः गुरू को ही अत्यंत महत्व दिया है। क्योंकि गुरू ही हमारा मार्गदर्शन करेगा।

जैसे ----
“गुरू कुम्हार सिष कुम्भ है, गढ़ गढ़ काढ़ै खोट।
अंतर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट”।।

“माया दीपक नर पतंग, भ्रमि-भ्रमि इवै पडंत।
कहै कबीर गुरू ग्यान थैं, एक आध उभरंत”।।

किंवदन्ती है कि एक विधवा ब्राह्मणी ने लोक-लाज के कारण नवजात कबीर को लहरतारा नाम के तालाब के निकट फेंक दिया था। नीरू जुलाहा और उसकी पत्नी नीमा ने बालक के रूप में विद्यमान सत्पुरूष को अपने घर लाकर पालन-पोषण किया। इस प्रकार जुलाहा परिवार में परिपालित सत्पुरूष ने युग के शोषण और बंधनों को शिथित करके सामाजिक जीवन का एक नया परिच्छेद उद्घाटित किया। जनश्रृतियों में प्रसिद्ध है कि कबीर की पत्नी का नाम लोई थी। उनके संतान के रूप में पुत्र कमाल और पुत्री कमाली का उल्लेख मिलता है।

“पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ, पंडित भयानक होय।
ढ़ाई अक्षर प्रेम का, पढ़ै सो पंडित होय”।।

अक्षर-ब्रह्म के परम साधक कबीर सामान्य अक्षर ज्ञान से रहित थे। उन्होंने बडे स्पष्ट शब्दों में कहा है – “मसि कागद छुयौ नही, कलम गह्यौ नहिं हाथौ”। उन्होंने स्वयं नहीं लिखे, मुँह से भाखे और उनके शिष्योंने उसे लिख लिया। उन्होंने सत्संग व्दारा पर्याप्त ज्ञान अर्जित किया था। उनकी वाणी में भारतीय अव्दैतवाद, अथवा ब्रह्मवाद, औपनिषिदिक रहस्यवाद, सूफियों के भावात्मक एवं साधनात्मक रहस्यवाद तथा उनके प्रेम की पीर, वैष्णव भक्ति तथा उसकी अहिंसा एवं जीवदया तथा सिद्धों एवं नाथों की हठयोग साधना आदि से सम्बंधित तत्वों का साधिकार निरूपण हुआ है।

कबीर की वाणी का संग्रह ‘बीजक’ के नाम से प्रसिद्ध है। इसके तीन भाग – ‘साखी,सबद और रमैनी’। यह पंजाबी, राजस्थानी, खडीबोली, अवधी, पूरबी, ब्रजभाषा आदि कई भाषाओं की किचडी है।

कबीर सधुक्कडी भाषा में किसी भी सम्प्रदाय और रूढ़ियों की परवाह किये बिना खरी बात कहते थे। कबीर ने समाज में व्याप्त रूढिवाद तथा कट्टरपंथ का खुलकर विरोध किया। मूर्तिपूजा और खुदा को पुकारने के लिए जोर से आवाज लगाने पर कबीर ने गहरा व्यंग्य किया।

हिन्दुओं की मूर्तिपूजा पर खण्डन......

“पहान पूजै हरि मिले तो मैं पूजूँ पहार।
या तो यह चक्की भली पीस खाये संसार”।।

तो मुसलमानों से पूछा………

“काँकर पाथर जोरिकै, मस्जिद लई बनाय।
ता चंदि मुल्ला बांगदै बहरा हुआ खुदाय”।।

हिन्दू-मुसलमान भेदभाव का खण्डन.....

“वही महादेव वही महमद ब्रह्मा आदम कहियो ।
को हिंदू को तूरक कहावै,एक जमीं पर रहियो”।।

शास्त्रों के नाम पर रूढ़िवाद का खण्डन......

“जाति-पांति पूछे नहिं कोई,
हरि को भजै सो हरि का होई”।

वर्णाश्रय व्यवस्था पर खण्डन..........

“एक बून्द एकै मल मूतर, एक चाम एक गूदा।
एक जोति में सब उत्पनां, कौन बाह्मन कौन सूदा”।।

बाह्याडम्बरों का खण्डन......

“तेरा साँई तुज्झ में,ज्यों पुहुपन में बास ।
कस्तूरी का मिरग ज्यों,फिर-फिर ढूँढे घास”।।

कबीर को हिन्दी साहित्य का सर्वश्रेष्ठ रहस्यवादी कवि माना जाता है।
साधना के क्षेत्र में जिसे ब्रह्म कहते है, साहित्य में उसे रहस्यवाद कहा जाता है। कबीर ने रहस्यवाद की दोनों कोटियों – साधनात्मक एवं भावनात्मक का वर्णन किया है। इनकी रहस्यात्मक अनुभूति गम्भीर है।

“जल में कुंभ-कुंभ में जल है, बाहिर भीतर पानी।
फूटा कुंभ जल जलहि समान, यहु तत कथो गियानी”।।

मुख्यतः हम समझना है कि पथभ्रष्ट समाज को उचित मार्ग पर लाना ही उनका प्रधान लक्ष्य है। कथनी के स्थान पर करनी को, प्रदर्शन के स्थान पर आचरण को तथा बाह्यभेदों के स्थान पर सब में अन्तर्निहित एक मूल सत्य की पहचान को महत्व प्रदान करना कबीर का उद्देश्य है।

शनिवार, 20 फ़रवरी 2016

गुरु का महत्व - संत कबीरदास (LESSON PLAN)

गुरु का महत्व-संत कबीरदास (LESSON PLAN)

गुरु का महत्व
                               (संत कबीरदास)
कवि परिचय:- (जन्म 1399- मृत्य 1495)

      कबीर एक संत एवं समाज सुधारक थे। महात्मा “कबीरदास” भक्तिकाल की निर्गुणभक्ति धारा के “ज्ञानाश्रयी शाखा” के कवियों मे सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। आप हिन्दी के सर्वप्रथम “रहस्यवादी” कवि भी है। आपका जीवन चरित्र अत्यंत विवादास्पद है। फिर भी यह मानी हुई बात है कि आपका जन्म हिंदु विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से हुआ था। और आपका पालन-पोषण मुसलमान जुलाहा दंपति ने किया। फिर भी इन्होंने “हिंदु-मुसलिम-ऐक्यविधायक” बने। इन्होंने दोनों धर्मों के बाह्याडंबरों और दुराचारों का खण्डन किया था। वे अनपढ थे। उन्होंने खूब देशाटन किया था। वे स्वयं आत्मज्ञानी थे। इनके गुरु का नाम “रामानंद” माना गया था। “धर्मदास” इनके प्रधान शिष्य थे।

        कबीर की ग्रंथ “बीजक” है। आप करघे पर काम करते हुए बोलते जाते थे। आपके शिष्यों ने आपके वचनों को संगृहित करके एक ग्रंथ लिखा था। उस ग्रंथ का नाम बीजक है। इसमें “साखी, सबद, रमैनी” तीन भाग हैं। उनकी भाषा “सधुक्कडी” या “खिचडी” कही जाती हैं। कबीरदास के अनेक रुप हैं। वे भक्त, प्रेम, ज्ञानी और समाज सुधारक। 
      
गुरू कुम्हार शिष कुंभ है, गढ गढ काढै खोट।
 अंतर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट।।
                            












गुरु का महत्व - संत कबीरदास (Teaching Aids)

गुरु का महत्व - संत कबीरदास (Teaching Aids)



गुरु का महत्व

                               (संत कबीरदास)
कवि परिचय:- (जन्म 1399- मृत्य 1495)
      
         कबीर एक संत एवं समाज सुधारक थे। महात्मा “कबीरदास” भक्तिकाल की निर्गुणभक्ति धारा के “ज्ञानाश्रयी शाखा” के कवियों मे सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। आप हिन्दी के सर्वप्रथम “रहस्यवादी” कवि भी है। आपका जीवन चरित्र अत्यंत विवादास्पद है। फिर भी यह मानी हुई बात है कि आपका जन्म हिंदु विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से हुआ था। और आपका पालन-पोषण मुसलमान जुलाहा दंपति ने किया। फिर भी इन्होंने “हिंदु-मुसलिम-ऐक्यविधायक” बने। इन्होंने दोनों धर्मों के बाह्याडंबरों और दुराचारों का खण्डन किया था। वे अनपढ थे। उन्होंने खूब देशाटन किया था। वे स्वयं आत्मज्ञानी थे। इनके गुरु का नाम “रामानंद” माना गया था। “धर्मदास” इनके प्रधान शिष्य थे।
        
कबीर की ग्रंथ “बीजक” है। आप करघे पर काम करते हुए बोलते जाते थे। आपके शिष्यों ने आपके वचनों को संगृहित करके एक ग्रंथ लिखा था। उस ग्रंथ का नाम बीजक है। इसमें “साखी, सबद, रमैनी” तीन भाग हैं। उनकी भाषा “सधुक्कडी” या “खिचडी” कही जाती हैं। कबीरदास के अनेक रुप हैं। वे भक्त, प्रेम, ज्ञानी और समाज सुधारक। 
       
गुरू कुम्हार शिष कुंभ है, गढ गढ काढै खोट।

 अंतर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट।।