मंगलवार, 11 जनवरी 2022

हिंदु मूआ राम कहि, मुसलमान खुदाइ | कबीर के दोहे | KABIR KE DOHE | नीति दोहे |#shorts | #hindi | #india

कबीर के दोहे


हिंदु मूआ राम कहि, मुसलमान खुदाइ।

कहै कबीर सो जीवता, जो दुहुँ के निकटि न जाइ।।

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पखापखी के कारने, सब जग रहा भुलान | कबीर के दोहे | KABIR KE DOHE | नीति दोहे |#shorts | #hindi | #india

कबीर के दोहे


पखापखी के कारने, सब जग रहा भुलान।

निरपख होइ के हरि भजै, सोई संत सुजान।।

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हस्ती चढ़िए ज्ञान कौ, सहज दुलीचा डारि | कबीर के दोहे | KABIR KE DOHE | नीति दोहे |#shorts | #hindi | #india

कबीर के दोहे


हस्ती चढ़िए ज्ञान कौ, सहज दुलीचा डारि।

स्वान रूप संसार है, भूँकन दे झख मारि।।

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मानसरोवर सुभर जल, हंसा केलि कराहिं | कबीर के दोहे | KABIR KE DOHE | नीति दोहे |#shorts | #hindi | #india

कबीर के दोहे


मानसरोवर सुभर जल, हंसा केलि कराहिं।

मुकताफल मुकता चुर्गों, अब उड़ि अनत न जाहिं।।

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प्रेमी ढूँढ़त मैं फिरौं, प्रेमी मिले न कोइ | कबीर के दोहे | KABIR KE DOHE | नीति दोहे | #shorts | #hindi | #india

कबीर के दोहे


प्रेमी ढूँढ़त मैं फिरौं, प्रेमी मिले न कोइ।

प्रेमी कौं प्रेमी मिलै, सब विष अमृत होइ।।

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सोमवार, 10 जनवरी 2022

उमंग | भाग-1 | वृंद | CLASS 9 | CHAPTER 3 | TELANGANASCERT | वृंद के दोहे | VRUND KE DOHE | नीति दोहे | FIRST LANGUAGE | HINDI

उमंग | भाग-1 | वृंद | CLASS 9 | CHAPTER 3 | TELANGANASCERT | वृंद के दोहे | VRUND KE DOHE | नीति दोहे | FIRST LANGUAGE | HINDI

वृंद

वृंद मध्यकालीन युग के सरल, सुबोध एवं प्रभावपूर्ण कवियों में प्रथम श्रेणी में गिने जा सकते हैं। वृंद का पूरा नाम वृंदावन था। परंतु कविता करते हुए इन्होंने अपने को वृंद कहा है। इनका जन्म बीकानेर के मेंड़ता नामक स्थान पर हुआ था। इनके साहित्य में जनसामान्य की वाणी दिखायी देती है। वृंद के दोहे बहुत प्रसिद्ध और प्रचलित हैं। इन दोहों में व्यक्ति अथवा समाज-सुधार, जीवन आदर्शों आदि का बहुत ही सरल भाषा में वर्णन किया गया है। वृंद के दोहे हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि हैं। वृंद की रचना-शैली मुक्तक है। जो कुछ कहा गया है वह हृदयस्पर्शी और प्रभावपूर्ण है। इनकी मृत्यु किशनगढ़ में हुई थी। वृंद की रचनाएँ हैं - वृंद विनोद सतसई, नीति सतसई, गायक सतसई, भाव पंचाशिका, वचनिका, पवन पचीसी।


नीकी पै फीकी लगे, बिन अवसर की बाता

जैसे बरनत जुद्ध में, नहिं सिंगार सुहाता।।


प्रान तुषातुर के रहे, थोरेहूँ जलपान।

पीछे जलभर सहस घट, डारे मिलत न प्रान।।


रहे समीप बड़ेन को, होत बड़ो हित मेल।

सबही जानत बढ़त है, वृच्छ बराबर बेल।।


मधुर वचन तेजात मिटे, उत्तम जन अभिमान।

तनिक सीत जल सो मिटे, जैसे दूध उफान ।।


सबै सहायक सबल के, कोई न निबल सहाय।

पवन जगावत आग को, दीपहि देत बुझाय।।


जैसे बंधन प्रेम को, तैसो बंधन और।

काठहि भेदे कमल को, छेद न निकरे भौर।।


प्रकृति मिले मत मिलत है, अनमिलते न मिलाय।

दूध दही से जमत है, कांडी ते फटि जाय।।


उत्तम जन के संग में, सहजे ही सुखभासि।

जैसे नृप लावै इतर, लेत सभा जनवासि।।


ज्योति सरूपी हिये बसै, सब सरीर में ज्योति।

दीपक धरिये ताक में, सब घर आभा होति।।


भेस बनाये सूर को, कायर सूर न होय।

खाल उढ़ाए सिंह की, स्यार सिंह नहि होय।।

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