शनिवार, 7 अगस्त 2021

पंद्रह अगस्त - गिरिजाकुमार माथुर

पंद्रह अगस्त - गिरिजाकुमार माथुर



काव्य परिचय :

प्रस्तुत गीत में कवि ने स्वतंत्रता के उत्साह को अभिव्यक्त किया है। स्वतंत्रता के पश्चात विदेशी शासकों से मुक्ति का उल्लास देश में चारों ओर छलक रहा है। इस नवउल्लास के साथ-साथ कवि देशवासियों तथा सैनिकों को सजग और जागरूक रहने का आवाहन कर रहा है। समस्त भारतवासियों का लक्ष्य यही होना चाहिए कि भारत की स्वतंत्रता पर अब कोई आँच न आने पाए क्योंकि दुखों की काली छाया अभी पूर्ण रूप से हटी नहीं है। जब शोषित, पीड़ित और मृतप्राय समाज का पुनरुत्थान होगा तभी सही मायने में भारत आजाद कहलाएगा।



आज जीत की रात
पहरुए, सावधान रहना!
खुले देश के द्वार
अचल दीपक समान रहना।
प्रथम चरण है नये स्वर्ग का
है मंजिल का छोर,
इस जनमंथन से उठ आई
पहली रतन हिलोर,
अभी शेष है पूरी होना
जीवन मुक्ता डोर,
क्योंकि नहीं मिट पाई दुख की
विगत साँवली कोर,
ले युग की पतवार
बने अंबुधि महान रहना,
पहरुए, सावधान रहना!


विषम श्रृंखलाएँ टूटी हैं
खुल समस्त दिशाएँ,
आज प्रभंजन बनकर चलतीं
युग बंदिनी हवाएँ.
प्रश्नचिह्न बन खड़ी हो गईं
ये सिमटी सीमाएँ,
आज पुराने सिंहासन की
टूट रहीं प्रतिमाएँ,
उठता है तूफान
इंदु, तुम दीप्तिमान रहना,
पहरुए, सावधान रहना!


ऊँची हुई मशाल हमारी
आगे कठिन डगर है,
शत्रु हट गया लेकिन उसकी
छायाओं का डर है,
शोषण से मृत है समाज
कमजोर हमारा घर है,
किंतु आ रही नई जिंदगी
यह विश्वास अमर है,
जनगंगा में ज्वार
लहर तुम प्रवहमान रहना,
पहरुए, सावधान रहना !

('धूप के धान' काव्य संग्रह से)



कवि परिचय : गिरिजाकुमार माथुर जी का जन्म २२ अगस्त १९१९ को अशोक नगर (मध्य प्रदेश) में हुआ। आपकी आरंभिक शिक्षा झाँसी में तथा स्नातकोत्तर शिक्षा लखनऊ में हुई। आपने ऑल इंडिया रेडियो, दिल्ली तथा आकाशवाणी लखनऊ में सेवा प्रदान की। संयुक्त राष्ट्र संघ, न्यूयार्क में सूचनाधिकारी का पदभार भी सँभाला। आपके काव्य में राष्ट्रीय चेतना के स्वर मुखरित होने के कारण प्रत्येक भारतीय के मन में जोश भर देते हैं। माथुर जी की मृत्यु १९९४ में हुई।

प्रमुख कृतियाँ : 'मंजीर', 'नाश और निर्माण', 'धूप के धान', 'शिलापंख चमकीले', 'जो बँध नहीं सका', 'साक्षी रहे वर्तमान', 'मैं वक्त के हूँ सामने' (काव्य संग्रह) आदि।

काव्य प्रकार : यह 'गीत' विधा है जिसमें एक मुखड़ा और दो या तीन अंतरे होते हैं। इसमें परंपरागत भावबोध तथा शिल्प प्रस्तुत किया जाता है। कवि अपने कथ्य की अभिव्यक्ति हेतु प्रतीकों, बिंबों तथा उपमानों को लोक जीवन से लेकर उनका प्रयोग करता है। 'तार सप्तक' के कवियों में अज्ञेय, मुक्तिबोध, प्रभाकर माचवे, गिरिजाकुमार माथुर, नेमिचंद्र जैन, भारतभूषण अग्रवाल, रामविलास शर्मा का महत्त्वपूर्ण स्थान है।

बुधवार, 4 अगस्त 2021

शनि : सबसे सुंदर ग्रह | गुणाकर मुले | SATURN | टायटन |

शनि : सबसे सुंदर ग्रह 
गुणाकर मुले


सौर-मंडल के सबसे बड़े ग्रह बृहस्पति के बाद शनि ग्रह की कक्षा है। शनि सौर-मंडल का दूसरा बड़ा ग्रह है। यह हमारी पृथ्वी से करीब 750 गुना बड़ा है। शनि के गोले का व्यास 116 हज़ार किलोमीटर है अर्थात् पृथ्वी के व्यास से करीब नौ गुना अधिक। हमारी पृथ्वी सूर्य से करीब 15 करोड़ किलोमीटर की दूरी पर है। तुलना में शनि ग्रह दस गुना अधिक दूर है। इसे दूरबीन के बिना कोरी आँखों से भी आकाश में पहचाना जा सकता है। 

हमारी पौराणिक कथाओं के अनुसार शनि महाराज सूर्य के पुत्र हैं। शनि को 'शनैश्चर' भी कहते है। आकाश के गोल पर यह ग्रह बहुत धीमी गति से चलता दिखाई देता है। इसीलिए प्राचीन काल के लोगों ने इसे 'शनैःचर' नाम दिया था। शनैचर का अर्थ होता है धीमी गति से चलनेवाला। 

लेकिन बाद के लोगों ने इस शनैश्चर को सनीचर बना डाला। सनीचर का नाम लेते ही अंधविश्वासियों की रूह काँपने लगती है। एक बार यदि यह ग्रह किसी की राशि में पहुंच जाये, तो फिर साढ़े सात साल तक उसकी खैर नहीं।

शनि को यदि दूरबीन से देखा जाये तो इस ग्रह के चहुँ ओर वलय (गोल) दिखाई देते हैं। प्रकृति ने इस ग्रह के गले में खूबसूरत हार डाल दिये है। शनि के इन वलयों या कंकणों ने इस ग्रह को सौर-मंडल का सबसे सुंदर एवं मनोहर ग्रह बनाया है। वस्तुतः शनि सौर-मंडल का सर्वाधिक सुंदर ग्रह है।

ताज़ी जानकारी के अनुसार बृहस्पति, युरेनस और नेपच्यून के इर्द-गिर्द भी वलय हैं, परंतु शनि के वलय ज्यादा विस्तृत और स्पष्ट हैं। शनि के अद्भुत वलयों और इसकी अन्य अनेक विशेषताओं के बारे में विस्तृत जानकारी हमें आधुनिक काल में ही मिली है। 

शनि ग्रह अत्यंत मंद गति से करीब तीस वर्षों में सूर्य का एक चक्कर लगाता है। इसलिए साल-भर के अंतर के बाद भी आकाश में शनि की स्थिति में कोई विशेष परिवर्तन नहीं दिखाई देता। यह एक राशि में करीब ढाई साल तक रहता है। 

शनि ग्रह सूर्य से पृथ्वी की अपेक्षा करीब दस गुना अधिक दूर है, इसलिए बहुत कम सूर्यताप उस ग्रह तक पहुँचता है - पृथ्वी का मात्र सौवाँ हिस्सा। इसलिए शनि के वायुमंडल का तापमान शून्य के नीचे 150° सेंटीग्रेड के आसपास रहता है। शनि एक अत्यन्त ठंडा ग्रह है। 

बृहस्पति की तरह शनि का वायुमंडल भी हाइड्रोजन, हीलियम, मीथेन तथा एमोनिया गैसों से बना है। शनि की सतह के बारे में हमें कोई जानकारी नहीं है। हम केवल इसके चमकीले बाहरी यायुमंडल को ही देख सकते हैं। शनि के केंद्रभाग में ठोस गुठली होनी चाहिए। लेकिन चंद्रमा, मंगल या शुक्र की तरह शनि की सतह पर उतर पाना आदमी के लिए संभव नहीं होगा। 

अभी दो दशक पहले तक शनि के दस उपग्रह खोजे थे। लेकिन अब शनि के उपग्रहों की संख्या 17 पर पहुँच गई है। धरती से भेजे गये स्वचालित अंतरिक्षयान पायोनियर तथा वायजर शनि के नज़दीक पहुँचे और इन्हीं के ज़रिए इस ग्रह के सात नए उपग्रह खोजे गये। शनि के और भी कुछ चंद्र हो सकते है।

शनि का सबसे बड़ा चंद्र टायटन सौर-मंडल का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और 6 दिलचस्प उपग्रह है। टाइटन हमारे चंद्र से भी काफी बड़ा है। इसका व्यास 5150 किलोमीटर है। अभी कुछ साल पहले तक टाइटन को ही सौर-मंडल का सबसे बड़ा उपग्रह समझा जाता था, परंतु वायजर यान की खोजबीन से पता चला है कि बृहस्पति का गैनीमीड उपग्रह सौर-मंडल का सबसे बड़ा उपग्रह है। शनि की सतह पर अंतरिक्षयान को उतारना तो संभव नहीं है, परंतु टाइटन की सतह पर अतरिक्षयान को उतारा जा सकता है। 

शनि हमारे सौर-मंडल का एक अद्भुत और सुंदर ग्रह है। किसी भी ग्रह को शुभ या अशुभ समझने का कोई भौतिक कारण नहीं है। शनि तो हमारे सौर-मंडल का सबसे खूबसूरत ग्रह है।

बुधवार, 21 जुलाई 2021

रक्षाबंधन | डॉ परशुराम शुक्ल | RAKSHA BANDHAN | Dr. PARSHURAM SHUKLA

रक्षाबंधन - डॉ. परशुराम शुक्ल 



आशयः भाई-बहन के पवित्र संबंध की प्रगाढ़ता को दर्शानेवाला रक्षाबंधन त्योहार का महत्व समझने के साथ-साथ छात्र इस त्योहार को मनाने की विधि-से अवगत होंगे।

आज बहन ने बड़े प्रेम से,
रंग बिरंगा चौक बनाया।
इसके बाद चौक के ऊपर,
अपने भैया को बैठाया।।'



रंग बिरंगी राखी बांधी,
फिर सुन्दर-सा तिल लगाया।
गोल गोल रसगुल्ला खाकर,
भैया मन ही मन मुस्काया।।


थाल सजा कर दीप जला कर,
भाई की आरती उतारी।
मन ही मन में कहती बहना,
भैया रखना लाज हमारी।।


करना सदा बहन की रक्षा,
भैया तुमको समझाना है।
कच्चे धागों का यह बन्धन, 
रक्षाबंधन कहलाता है।।

स्वामी विवेकानंद | डॉ. जगदीश चंद्र | SWAMI VIVEKANANDA | रामकृष्ण परमहंस | नरेंद्र देव | सिस्टर निवेदिता | NARENDRANATH DATTA

स्वामी विवेकानंद - डॉ. जगदीश चंद्र 

आशय : भारत देश में जन्मे अनेक महान् व्यक्तियों ने भारत की कीर्ति विदेशों में फैलायी। ऐसे व्यक्तियों में से एक हैं स्वामी विवेकानंद। इस पाठ में उनकी महानता के परिचय के साथ देशप्रेम की प्रेरणा भी प्राप्त कर सकते हैं।

भारत के इतिहास में स्वामी विवेकानंद का नाम अमर है। इस वीर सन्यासी ने देश-विदेश में भ्रमण कर भारतीय धर्म और दर्शन का प्रसार किया तथा समाज-सेवा का नया मार्ग दिखाया। 

स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी 1863 को कलकत्ते के एक कायस्थ घराने में हुआ था। उनके बचपन का नाम नरेंद्र देव था। उनके पिता श्री विश्वनाथ दत्त एक प्रतिष्ठित वकील थे। उनकी माता श्रीमती भुवनेश्वरी देवी धर्मपरायण महिला थीं। 


बालक नरेंद्र का शरीर स्वस्थ, सुडौल और सुंदर था। कुश्ती लड़ने, दौड़ लगाने, घुड़सवारी करने और तैरने में उन्हें बड़ा आनंद मिलता था। वे संगीत एवं खेल-कूद की प्रतियोगिताओं में भी भाग लिया करते थे। नरेंद्र आरंभ से ही पढ़ाई-लिखाई में बड़े तेज थे। वे अपने स्कूल में सर्वप्रथम रहा करते थे। एन्ट्रन्स परीक्षा में भी वे प्रथम श्रेणी मे उत्तीर्ण हुए थे। बी.ए. की परीक्षा पास करने के बाद उन्होंने कानून का अध्ययन प्रारंभ किया। इसी बीच में उनके पिता का देहांत हो गया। 

अध्ययन काल में उनकी रुचि व्याख्यान देने और विचारों के आदान प्रदान करने में थी। इसी कारण उन्होंने अपने कॉलेज में एक व्याख्यान-समिति बनाई थी और कई प्रतियोगिताओं का आयोजन भी किया था। पाश्चात्य विज्ञान तथा दर्शन का भी उन्होंने अध्ययन किया था। किशोरावस्था से ही नरेंद्र दार्शनिक एवं धार्मिक विचारों में तल्लीन रहते थे। एक दिन नरेंद्र रामकृष्ण परमहंस के पास पहुँचे और अपनी जिज्ञासा उन्हें कह सुनाई। रामकृष्ण परमहंस ने नरेंद्र को अपना शिष्य स्वीकार किया। 


स्वामी परमहंस के जीवन-दर्शन से विवेकानंद इतने प्रभावित हुए थे कि उन्होंने अपने गुरु के संदेश का प्रसार करना चाहा। जनता को सत्य की राह दिखाने के लिए सितंबर सन् 1893 को वे संयुक्त राज्य अमरीका गये। उस समय वहाँ शिकागो नगर में सर्वधर्म सम्मेलन हो रहा था। इस महासभा में विवेकानंद ने भारतीय धर्म और तत्वज्ञान पर भाषण दिया। उनका भाषण बड़ा गंभीर एवं हृदयस्पर्शी था। उनकी वाणी सुनकर श्रोतागण मुग्ध हो गये। कुछ समय तक वे अमरीका में ही रहे और अपने भाषणों द्वारा लोगों को त्याग और संयम का पाठ पढ़ाया। इसके बाद वे इंग्लैंड और स्विट्जरलैंड भी गये और वहाँ उन्होंने सत्य और धर्म का प्रसार कर भारत के गौरव को बढ़ाया। अनेक विदेशी स्वामीजी के शिष्य बन गये। उनमें से कुमारी मार्गरेट एलिज़बेथ का नाम उल्लेखनीय है, जो स्वामीजी की अनुयायिनी बनकर सिस्टर निवेदिता के नाम से संसार में प्रसिद्ध हुई। 

स्वामी विवेकानंद ने भारत में भी भ्रमण करके भारतीय संस्कृति और सभ्यता का सदुपदेश दिया। उन्होंने अंधविश्वासों तथा रूढ़ियों को हटाकर धर्म का वास्तविक मर्म समझाया। साधु-सन्यासी वर्ग को भी उन्होंने शांति प्राप्त करने का नया मार्ग जताया। वह था दीन-दुखी जनों की सेवा और महायता का मार्ग।

स्वामी विवेकानंद ने समाज सेवा को परमात्मा की सच्ची सेवा बतलाया। वे स्वयं भी समाज सेवा में लग जाते थे। सन् 1897 में प्लेग और अकाल से पीड़ित भारतवासियों की उन्होंने बड़ी तन्मयता से सेवा की थी। समर्थ लोगों को उन्होंने गरीबों की दशा सुधारने का संदेश दिया। इसी ध्येय से उन्होंने कलकते में 'रामकृष्ण मिशन' की स्थापना की। 

स्वामीजी ने अज्ञान, अशिक्षा, विदेशी अनुकरण, दास्य मनोभाव आदि के बुरे प्रभावों का बोध कराया। उन्होंने अपने भाषणों द्वारा जनता के मन से हीनता की भावना को दूर भगाने का प्रामाणिक प्रयत्न किया। अपने एक भाषण में उन्होंने कहा था - "प्यारे देशवासियो! वीर बनो और ललकार कर कहो कि मैं भारतीय हूँ। अनपढ़ भारतीय, निर्धन भारतीय, ऊँची जाति का भारतीय, नीच जाति का भारतीय - सब मेरे भाई हैं। उनकी प्रतिष्ठा मेरी प्रतिष्ठा है। उनका गौरव मेरा गौरव है।" 


4 जुलाई सन् 1902 को स्वामी विवेकानंद परलोक सिधारे। लेकिन आज भी उनके कार्य और संदेश अमर हैं। 

लेखक परिचय :

इस पाठ के लेखक डॉ. जगदीश चंद्र हैं। इन्होंने भारत के किशोर बालक बालिकाओं के समक्ष आदर्श प्रस्तुत करने के लिए अनेक महापुरुषों की जीवनियाँ लिखी हैं।



बुधवार, 14 जुलाई 2021

संत कवि रैदास | SANT RAVIDAS | HINDI

संत कवि रैदास



संत कवि रैदास का जन्म काशी के पास गांव में माघ पूर्णिमा के दिन हुआ था। कहा जाता है कि उस दिन रविवार था इसलिए नवजात शिशु का नाम रविदास रखा गया जो बोल-चाल की 'रहदास' या रैदास' हो गया। स्वामी रामानंद के प्रमुख बारह शिष्यों में महान संत कबीर के साथ संत रैदास का नाम भी बडी श्रद्धा के साथ लिया जाता है। 

रैदास एक चर्मकार परिवार में पैदा हुए थे। नगर के बाहर ही सड़क के किनारे उन्होंने एक छोटी-सी कुटिया बना ली थी। यहाँ रहकर वे भगवान की भक्ति करते, उनके भजन गाते और आजीविका के लिए जूते बनाते या उनकी मरम्मत करते, उनके पास भगवान की एक सुंदर चतुर्भुजी मूर्ति थी जिसे वे हमेशा अपने पास रखते थे। एक किंवदंती के अनुसार रैदास के पड़ोस में एक पंडित था, वह भगवान की चतुर्भुजी मूर्ति को प्राप्त करना चाहता था। उसने रैदास से कहा, तुम हमेशा चमड़े का काम करते हो। तुम से इस मूर्ति की सेवा-पूजा ठीक से नहीं हो रही है और न ही हो सकती है। इसलिए इसे मुझे दे दो। रैदास बोले, पंडित, तुम केवल नाम के पंडित हो। तुम भक्ति भावना से पूजा नहीं करते। इसीलिए यह मूर्ति तुम्हारे पास नहीं रह सकती। 

रैदास की बात पंडित को बुरी लगी। वह स्थानीय राजा के पास गया और कहने लगा, महाराज, आपके राज्य में अधर्म हो रहा है। देखिए, रैदास जैसे लोग भगवान की पूजा कर रहे हैं। यदि यह चलता रहा तो आप के राज्य पर संकट आ सकता है। पंडित की बात सुनकर राजा ने रैदास को मूर्ति के साथ दरबार में बुलाया और कहा, रैदास, तुम यह मूर्ति इस पंडित को क्यों नहीं दे देते? 


राजा की बात सुनकर रैदास ने अपनी मूर्ति को सबके सामने रख दिया और कहा, महाराज, यदि यह पंडित भगवान का सच्चा भक्त है तो यह अपने भक्ति-भाव या तंत्र-मंत्र से मूर्ति को अपने पास बुला ले। रैदास की बात सुनकर पंडित ने कई मंत्र पढ़े और भजन गाए परंतु मूर्ति ज़रा भी न हिली। तब राजा कहा, अच्छा रैदास, अब तुम बुलाओ मूर्ति को अपने पास। रैदास ने सबके सामने भक्ति भाव से भजन गाया - 

"नरहरि चंचल है मति मेरी, कैसे भक्ति करूँ मैं तेरी।" 

जैसे ही रैदास का भजन पूरा हुआ वह मूर्ति उछलकर रैदास की गोद में आ गिरी। यह देखकर पंडित तो दरबार छोड़कर भाग गया। राजा ने रैदास के चरण पकड़ लिए और वे उनके शिष्य बन गए। 



एक बार एक सेठ रैदास के पास अपने जूते सिलवाने के लिए आया। वह गंगास्नान के लिए जा रहा था। बातों ही बातों में सेठ ने रैदास से भी गंगास्नान के लिए चलने को कहा तो रैदास ने कहा, सेठजी, आप जाइए, हम गरीब लोगों के लिए तो हमारा काम ही गंगास्नान है। 

रैदास की बातें सुनकर सेठ बोला, तुम्हारा उद्धार भला कैसे हो सकता है? तुम तो हमेशा काम में ही लगे रहते हो, कभी कोई धर्म-कर्म भी किया करो। रैदास ने अपनी जेब से एक सुपारी निकाली और कहा सेठजी आप तो गंगास्नान के लिए जा ही रहे हैं। कृपया आप मेरी यह सुपारी भी ले जाएँ और गंगा मैया को भेंट कर दें। परंतु याद रखिए, अगर गंगा मैया हाथ फैलाकर मेरी सुपारी लें तभी भेंट कीजिए नहीं तो मेरी सुपारी लौटा लाइए। सेठ ने रैदास से उसकी सुपारी तो ले ली परंतु मन ही मन रैदास का मज़ाक बनाने लगा। 

दूसरे दिन सेठ ने गंगास्नान के लिए प्रस्थान किया। गंगा पूजा के बाद उसे रैदास सुपारी की याद आई। उसने मैया से कहा हे गंगा मैया, आप हाथ फैलाएँ तो मैं आपको रैदास की सुपारी भेंट करूँ। तभी एक चमत्कार हुआ। गंगा मैया ने हाथ फैलाकर रैदास की सुपारी स्वीकार की और उसके बदले में एक स्वर्ण कंकण दिया और कहा, यह मेरे प्रिय भक्त रैदास को दे देना। 

यह सब देख-सुनकर सेठ आश्चर्यचकित हो गया। वह जब लौट रहा था तब उसने सोचा कि इस स्वर्ण कंकण का रैदास क्या करेगा। यदि मैं इसे राजा को भेंट करूं तो बहुत-सा धन पुरस्कार स्वरूप मिल सकता है। इसलिए वह सीधा राजभवन गया। राजा को स्वर्ण कंकण भेंटकर, पुरस्कार प्राप्त किया और घर लौट आया। 

राजा ने वह कंकण अपनी रानी को दिया। रानी ने कहा, कंकण तो अद्वितीय है परंतु इसका जोड़ा होना चाहिए। राजा ने सेठ को बुलाया और कहा, एक कंकण तो पहना नहीं जा सकता इसलिए ऐसा ही एक कंकण और लेकर आइए। राजा की बात सुनकर सेठ के तो होश उड़ गए। वह वहाँ से सीधा रैदास के पास आया और सारी कहानी सुनाकर कहने लगा, भैया, अब तुम ही मेरी जान बचा सकते हो। तुम मेरे साथ गंगा घाट पर चलो और गंगा मैया से वैसा ही दूसरा कंकण माँग कर लाओ।

सेठ की बातें सुनकर रैदास हँसे और फिर बोले, देखो सेठ, कहीं भी जाने की आवश्यकता नहीं है। यदि मन शुद्ध है और भक्ति भाव सच्चा है तो मेरी इस कठौती में भी गंगा मैया प्रकट हो सकती हैं। वे गंगा मैया की स्तुति करने लगे। कुछ ही क्षणों में रैदास की कठौती में गंगा मैया प्रकट हो गईं। उन्होंने एक और स्वर्ण कंकण रैदास को दिया और अदृश्य हो गईं। 

यह देखकर सेठ ने रैदास के चरण पकड़ लिए और मुझे क्षमा करना। मैं तो आपको केवल एक चर्मकार ही मानता था परंतु आप तो संत हैं। सच्चे भक्त हैं। आप मुझे मेरा मार्गदर्शन कीजिए। 



रैदास की भक्ति से ही यह कहावत प्रचलित है मन चंगा तो कठौती में गंगा। इसका अर्थ है, परमात्मा सर्वव्यापी है। यदि मन शुद्ध है तो उसके दर्शन कहीं भी हो सकते हैं ।

शुक्रवार, 2 जुलाई 2021

स्काउट | गाइड | रोवर | रेंजर | कब | बुलबुल | बेडेन पॉवेल | SCOUT GUIDE |

स्काउट - गाइड

SCOUT - GUIDE



आपने कभी अपने जैसे बच्चों को खाकी रंग की पोशाक पहने और गले में स्कार्फ बाँधे अवश्य देखा होगा। इनके चेहरे पर सेवा का भाव भी देखा होगा। आपने इनको मेले में या किसी धार्मिक समारोह में भीड़ को नियंत्रित करते हुए व बड़े-बूढो की सहायता करते हुए देखा होगा। आप जानते ये कौन हैं। हाँ, सही पहचाना आपने! ये काउट! आइए, आज हम स्काउट के बारे में कुछ आवश्यक जानकारी प्राप्त करते हैं। 


स्काउट एक प्रकार की प्रशिक्षण योजना है जिसके जन्मदाता बेडेन पॉवेल थे। उनका जन्म २२ फरवरी, सन् १८५७ को लंदन में हुआ था। जब वे छोटे थे तभी बेडेन पॉवेल के पिता की मृत्यु हो गई थी। वे बचपन से ही साहसिक कार्यों में रुचि लेते थे। खाली समय में वे अपनी माताजी की घरेलू कार्यों में सहायता किया करते थे। 

बड़े होकर बेडेन पॉवेल ने सेना में नौकरी कर ली। सन् १८७६ में उन्हें सैनिक अधिकारी बनाकर भारत के मेरठ शहर में भेजा गया। बाद में उन्हें अफ्रीका भेजा गया, जहाँ उन्हें जुलू कबीले के लोगों का सामना करना पड़ा। सन् १८९३ में उनकी टुकड़ी ने अपनी कुशलता से अफ्रीका के अशांत क्षेत्रों पर काबू पा लिया। अफ्रीकावासी उन्हें 'इम्पासी' कहकर पुकारते थे। इम्पासी का अर्थ होता है - कभी न सोने वाला बेड़िया। अफ्रीकी लोगों ने जासूसी कला में पॉवेल की निपुणता के कारण उन्हें यह नाम दिया था। 

बेडेन पॉवेल ने स्काउट प्रशिक्षण योजना की स्थापना की। इसका उद्देश्य बालकों को शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ बनाना उनका मत था कि एक जागरूक इनसान बनाने के लिए बच्चों में स्वावलंबन और सेवाभाव का विकास करना आवश्यक है। 


भारत में श्रीमती एनी बेसेंट के सहयोग से स्काउट दल की स्थापना हुई। शुरू-शुरू में इस दल में बालकों को ही प्रशिक्षण दिया जाता था। बाद में बालिकाओं के लिए भी गाइड दल गया। आज़ादी के बाद ७ नवबर, सन् १९५० को भारत स्काउट गाइड नामक संगठन बनाया गया। इस संगठन के अधीन बालक-बालिकाओं को प्रशिक्षण दिया जाता है। 



५ से १० वर्ष के बालकों को कब और बालिकाओं को बुलबुल कहा जाता है और उन्हें  विशेष प्रकार का प्रशिक्षण दिया जाता है। इनका आदर्श वाक्य है- भरसक प्रयत्न करो। 

१० ने १६ वर्ष के बालकों को स्काउट और बालिकाओं को गाइड प्रशिक्षण दिया जाता हैं। इस दल का आदर्श वाक्य है - सदा तत्पर रहो।

१६ से २५ वर्ष के युवकों को रोवर और युवतियों को रेंजर प्रशिक्षण दिया जाता है। इनका आदर्श वाक्य है - सेवा करते रहो।

स्काउट और गाइड के लिए कुछ नियमों का पालन करना आवश्यक है। इन नियमों में प्रमुख हैं - विश्वसनीयता, वफ़ादारी, मित्रता, अनुशासनप्रियता, साहस आदि। इन्हें उच्चतम कर्मठ भावना से जीवन व्यतीत करना, सच्चा देशभक्त बनना, दूसरों के प्रति सजगता बनाए रखना व दयाभाव रखना सिखाया जाता है। स्काउट को शिक्षा दी जाती है कि वह सिर्फ अपने देश का ही नहीं, अपितु समाज व विश्व का भी नागरिक है। इसलिए उसे ऐसे कार्य करने चाहिए जिससे सब की भलाई हो। 


हमें अपने जीवन में स्काउट और गाइड से प्रेरणा ग्रहण करनी चाहिए।

शनिवार, 5 जून 2021

जो देखकर भी नहीं देखते - हेलेन केलर | HELEN ADAMS KELLER | BRAILLE

जो देखकर भी नहीं देखते 
हेलेन केलर

कभी-कभी मैं अपने मित्रों की परीक्षा लेती हूँ, यह परखने के लिए कि वह क्या देखते हैं। हाल ही में मेरी एक प्रिय मित्र जंगल की सैर करने के बाद वापिस लौटीं। मैंने उनसे पूछा, "आपने क्या-क्या देखा?" 

"कुछ खास तो नहीं, उनका जवाब था। मुझे बहुत अचरज नहीं हुआ क्योंकि  मैं अब इस तरह के उत्तरों की आदी हो चुकी हूँ। मेरा विश्वास है कि जिन लोगों की आँखें होती हैं, वे बहुत कम देखते हैं।

क्या यह संभव है कि भला कोई जंगल में घंटा भर घूमे और फिर भी कोई विशेष चीज़ न देखे? मुझे जिसे कुछ भी दिखाई नहीं देता - सैकड़ों रोचक चीजें मिलती हैं, जिन्हें मैं छूकर पहचान लेती हूँ। मैं भोज-पत्र के पेड़ की चिकनी छाल और चीड़ की खुरदरी छाल को स्पर्श से पहचान लेती हूँ। वसंत के दौरान मैं टहनियों में नयी कलियाँ खोजती हूँ। मुझे फूलों की पंखुड़ियों की मखमली सतह छूने और उनकी घुमावदार बनावट महसूस करने में अपार आनंद मिलता है। इस दौरान मुझे प्रकृति के जादू का कुछ अहसास होता है। कभी, जब मैं खुशनसीब होती हूँ, तो टहनी पर हाथ रखते ही किसी चिड़िया के मधुर स्वर कानों में गूंजने लगते हैं। अपनी अंगुलियों के बीच झरने के पानी को बहते हुए महसूस कर मैं आनंदित हो उठती हूं। मुझे चीड़ की फैली पत्तियाँ या घास का मैदान किसी भी महगे कालीन से अधिक प्रिय है। बदलते मौसम का समां मेरे जीवन में एक नया रंग और खुशियाँ भर जाता है। 

कभी-कभी मेरा दिल इन सब चीज़ों को देखने के लिए मचल उठता है। अगर मुझे इन चीज़ों को सिर्फ छूने भर से इतनी खुशी मिलती है, तो उनकी सुंदरता देखकर तो मेरा मन मुग्ध ही हो जाएगा। परंतु, जिन लोगों की आँखें हैं, वे सचमुच बहुत कम देखते हैं। इस दुनिया के अलग-अलग सुंदर रंग उनकी संवेदना को नहीं छूते। मनुष्य अपनी क्षमताओं की कभी कदर नहीं करता। वह हमेशा उस चीज की लगाए रहता है जो उसके पास नहीं है। 



यह कितने दुख की बात है कि दृष्टि के आशीर्वाद को लोग एक साधारण-सी चीज समझते हैं, जबकि इस नियामत से जिंदगी को खुशियों के इंद्रधनुषी रंगों से हरा-भरा किया जा सकता हैं।



शनिवार, 29 मई 2021

ऐसा था नेपोलियन | NAPOLEON

ऐसा था नेपोलियन

नेपोलियन जब छोटा लड़का था तभी से वह सत्यवादी था। एक दिन वह अपनी बहन इलाइज़ा के साथ आँखमिचौनी खेल रहा था। इलाइज़ा छिपी थी और नेपोलियन उसे ढूँढ़ने के लिए इधर-उधर दौड़ रहा था। अचानक वह एक लड़की से जा टकराया। लड़की अमरूद बेचने के लिए ले जा रही थी। नेपोलियन के धक्के से उसकी टोकरी नीचे गिर पड़ी। कीचडू होने के कारण उसके सारे अमरुद खराब हो गए। वह रोती हुई कहने लगी, "अब माँ को मैं जवाब दूंगी?' 

इलाइज़ा कहने लगी, "चलो भैया, हम यहाँ से भाग चलें!" "नहीं बहन, हमारे कारण ही तो इसकी हानि हुई है।" यह कहकर नेपोलियन ने जेब में रखे तीन छोटे सिक्के उस लड़की को देकर कहा, "बहन, मेरे पास तीन ही सिक्के हैं, तुम इन्हें ले लो।" इन तीन सिक्कों से क्या होगा? मेरी माँ मुझे बहुत मारेगी", लड़की ने कहा।" अच्छा, तो तुम हमारे साथ घर चलो, हम तुम्हें अपनी माँ से और पैसे दिलवा देंगे।" इस पर इलाइज़ा ने नेपोलियन से कहा, "भैया, इसे घर ले चलोगे तो माँ नाराज़ होंगी।"

नेपोलियन नहीं माना। वह उस लड़की को अपने साथ घर ले गया। मां को घटना की जानकारी देकर वह बोला, "माँ, आप मुझे जो जेब-खर्च देती हैं, उसमें से इस लड़की को पैसे दे दीजिए।" "ठीक है, मैं तुम्हारी सच्चाई से खुश हूँ मगर याद रखना, अब तुम्हें एक महीने तक जेब-खर्च के लिए कुछ भी नहीं मिलेगा" माँ ने कहा।" ठीक है माँ! "नेपोलियन से हंसते हुए कहा। माँ ने उस लड़की को बड़े सिक्के दिए। खुशी-खुशी घर लौट गई। नेपोलियन को धक्का देने की सज़ा तो मिली परंतु सत्य के पथ पर चलने के कारण उसे यह सज़ा भुगतने में अद्भुत आनंद आया। वास्तव में नेपोलियन सच्चाई के पर चलने वाला इंसान था। बचपन से ही उसे खुद पर दृढ़ विश्वास था और दृढ़ इच्छा शक्ति भी। एक अन्य घटना नेपोलियन की दृढ़ इच्छा शक्ति का प्रमाण देती है। 


एक बार नेपोलियन ने एक ज्योतिषी को अपना हाथ दिखाया। ज्योतिषी हाथ देखकर कहा, तुम्हारे हाथ में तो भाग्य की रेखा ही नहीं है। नेपोलियन ने पूछा, यह रेखा कहाँ होती है? ज्योतिषी ने हाथ में भाग्य की रेखा का स्थान बतलाया। नेपोलियन ने उस स्थान पर चाकू से रेखा खींची और कहा, "लीजिए बन गई भाग्य की रेखा!"


ज्योतिषी ने हँसकर कहा, यह रेखा तो तुमने खींची है। नेपोलियन ने दृढ़ता से कहा' "हाँ, क्योंकि मैं अपने भाग्य का निर्माता स्वयं हूँ।" ऐसा था नेपोलियन!

किसी ने सच ही कहा है, 'होनहार बिरवान के होत चिकने पात अर्थात् विद्वान और महान व्यक्ति के विशिष्ट लक्षण बचपन में ही दिख जाते हैं। वे जीवनभर अपने आदर्शों पर अडिग रहते हैं।



रविवार, 23 मई 2021

राम का राज्याभिषेक | बाल रामकथा |वाल्मीकि रामायण |RAM KA RAJABHISHEK | BAL RAMKADHA | VALMIKI RAMAYAN

राम का राज्याभिषेक 
बाल रामकथा 
वाल्मीकि रामायण 

विभीषण चाहते थे कि राम कुछ दिन लंका में रुक जाएँ। नयी लंका में। उनकी लंका में। उन्होंने अपनी इच्छा राम को बताई। उसका कारण भी। “मैं चाहता हूँ कि आप कुछ दिन यहाँ विश्राम कर लें। युद्ध की थकान उतर जाएगी। वैसे इसमें मेरा स्वार्थ भी है। आपका सान्निध्य और रीति-नीति सीखने का अवसर। आपने यह नगरी देखी भी तो नहीं है। "राम ने लंका नगरी में कदम नहीं रखा था। सीता से मिलने हनुमान गए। दो बार। अंगद गए। लक्ष्मण भी हो आए। विभीषण के राजतिलक के समय। राम उस नगरी से दूर ही रहे। "यह संभव नहीं है, मित्र!" राम ने कहा। वनवास के चौदह वर्ष पूरे हो गए हैं। मैं तत्काल अयोध्या लौटना चाहता हूँ। भरत मेरी प्रतीक्षा कर रहे होंगे। जाने में विलंब हुआ तो वे प्राण दे देंगे। उन्होंने प्रतिज्ञा की है। मैं उनकी प्रतिज्ञा से बँधा हूँ।" विभीषण राम से अलग नहीं होना चाहते थे। उनका अनुरोध राम ने अस्वीकार कर दिया था। पर वे निराश नहीं थे। इस बार उन्होंने एक नया प्रस्ताव रखा। "मेरी इच्छा है कि मैं आपके राज्याभिषेक में उपस्थित रहूँ। मुझे अपने साथ चलने की अनुमति दें।" राम ने उनका आग्रह स्वीकार कर लिया। बोले, "आप मेरे लिए यात्रा की व्यवस्था कर दें।" राम ने विभीषण की विनती मान ली तो सुग्रीव और हनुमान आगे आए। राम ने उन्हें भी अयोध्या आमंत्रित किया। विभीषण का पुष्पक विमान उन्हें ले जाने के लिए तैयार था। विमान के उड़ान भरने तक वानर सेना वहीं रही। विमान जाने के बाद वे कूदते-फाँदते किष्किंधा की ओर चल पड़े। विभीषण ने अपने कोषागार से उन्हें रत्नाभूषण दिए थे। उनकी वर्षा की थी। उसी विमान से। वानरों के लिए यह मनोरंजन था। जिसे जो मिला, लूटा। विमान लंका से चला। उड़ान भरने के बाद उसने उत्तर दिशा पकड़ी। जिधर अयोध्या नगरी थी। राम सीता के साथ बैठे थे। मार्ग में पड़ने वाले प्रमुख स्थान बताते जा रहे थे। रावण सीता का हरण कर उसी मार्ग से लाया था। पंचवटी से। उस समय सीता ने वे स्थान ठीक से नहीं देखे थे। स्थानों के नाम उन्हें ज्ञात नहीं थे। पहले रणभूमि पड़ी। फिर वह पुल, जिसे नल और नील ने बनाया था। सेतुबंध। किष्किधा रास्ते में था। वानरराज सुग्रीव की राजधानी थी। सीता के आग्रह पर विमान किष्किधा में उतरा। सुग्रीव की रानियों तारा और रूपा को लेने। आगे ऋष्यमूक पर्वत पड़ा और उसके बाद पंपा सरोवर। उसकी सुंदरता अद्भुत थी। राम ने सीता को एक पतली, चमकती हुई रेखा दिखाई। “सीते! देखो, यह गोदावरी नदी है। ऊँचाई से इतनी छोटी दिख रही है। इसी के तट पर पंचवटी है। देखो, हमारी पर्णकुटी अब भी बनी हुई है। "सीता ने आँखें बंद कर लीं। जैसे पंचवटी को पुनः देखने से डर रही हों। उन्हें पूरा घटनाक्रम याद आ गया। गंगा-यमुना के संगम पर ऋषि भरद्वाज का आश्रम था। विमान वहाँ उतरा। सबने रात वहीं बिताई। ऋषि का आग्रह था। राम उसे टाल नहीं सके। वहीं से उन्होंने हनुमान को अयोध्या भेजा। भरत को उनके आगमन की पूर्व सूचना देने के लिए।


राम सीधे अयोध्या नहीं जाना चाहते थे। उनके मन में एक प्रश्न था। एक संशय। चौदह वर्ष की अवधि कम नहीं होती। कहीं इस अवधि में भरत को सत्ता का मोह तो नहीं हो गया? हनुमान को अयोध्या भेजते हुए उन्होंने यह प्रश्न रखा था। कहा, "हे वानर शिरोमणि, आप भरत को मेरे आने की सूचना दीजिएगा। ध्यान से देखिएगा कि यह समाचार सुनकर उनके चेहरे पर कैसे भाव आते हैं? यदि भरत को इस सूचना से प्रसन्नता नहीं हुई तो मैं अयोध्या नहीं जाऊँगा। भरत राजकाज सँभालें, इसमें मुझे कोई आपत्ति नहीं। "हनुमान वायु वेग से चले। जैसे उड़ रहे हों। मार्ग में निषादराज गुह से भेंट की। उनसे अयोध्या का हाल जाना। वहाँ से नंदीग्राम पहुँचे। उन्होंने भरत से कहा, “श्रीराम के वनवास की अवधि पूर्ण हो गई है। वे लौट रहे हैं। प्रयाग पहुँच चुके हैं। मैं उन्हीं की आज्ञा से आपके पास आया हूँ। "भरत की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। आँखों में खुशी के आँसू थे। वे बार-बार हनुमान को धन्यवाद दे रहे थे। यह शुभ सूचना उन तक पहुँचाने के लिए। उनके चेहरे पर केवल एक भाव था। प्रसन्नता। हनुमान उनसे विदा लेकर आश्रम लौट आए। राम के पास। अगली सुबह प्रयाग से शृंगवेरपुर होते हुए राम का विमान कुछ ही देर में सरयू नदी के ऊपर पहुँच गया। दूर अयोध्या नगरी के भवनों के शिखर दिखाई देने लगे। सबने अयोध्या को प्रणाम किया। 


उधर, भरत से सूचना पाकर अयोध्या में उत्सव की तैयारियाँ होने लगीं। नगर को सजाया गया। शत्रुघ्न राज्याभिषेक की व्यवस्था में लग गए। महल से तीनों रानियाँ नंदीग्राम के लिए निकल पड़ी। कौशल्या सबसे आगे थीं। उन्हें पता था कि राम पहले भरत से भेंट करेंगे। राम का विमान नंदीग्राम उतरा। उनका भव्य स्वागत हुआ। आकाश राम के जयघोष से गूंज उठा। राम ने विमान से उतरकर भरत को गले लगाया। माताओं को प्रणाम किया। भरत भागते हुए आश्रम के भीतर गए। राम की खड़ाऊँ उठा लाए। जिसे सिंहासन पर रखकर उन्होंने चौदह वर्ष राजकाज चलाया था। झुककर अपने हाथों से राम को पहनाई। मिलन का यह दृश्य अद्भुत था। सबके चेहरों पर प्रसन्नता थी। सबकी आँखें खुशी के आँसुओं से नम थीं। राम-लक्ष्मण ने नंदीग्राम में तपस्वी बाना उतार दिया। दोनों को राजसी वस्त्र पहनाए गए। जन समूह राम की जयकार करता अयोध्या के लिए चला। शोभायात्रा की छटा देखने योग्य थी। 


नंदीग्राम से चलने के पूर्व राम ने पुष्पक विमान को कुबेर के पास भेज दिया। वह विमान कुबेर का ही था। रावण ने उसे बलात छीन लिया था। सजी-धजी अयोध्या नगरी राम के दर्शन पर आह्लादित थी। नगरवासी प्रसन्न थे। उन्हें उनके राम वापस मिल गए थे। माताएँ प्रसन्न थीं। उनका पुत्र लौट आया था। मुनिगण खुश थे। राम ने उनकी शिक्षाओं का मान रखा। कभी विरत नहीं हुए। भरत ने अयोध्या का राज्य राम को नंदीग्राम में ही लौटा दिया था। राजमहल पहुँचे तो मुनि वशिष्ठ ने कहा, कल सुबह राम का राज्याभिषेक होगा।" इसकी तैयारी शत्रुघ्न ने पहले ही कर दी थी। पूरा नगर सजाया गया था। दीपों से जगमगा रहा था। फूलों से सुवासित था। वाद्ययंत्रों से झंकृत था। पूरे चौदह वर्ष बाद। अगले दिन मुनि वशिष्ठ ने राम का राजतिलक किया। राम और सीता सोने के रत्नजटित सिंहासन पर बैठे। लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न उनके पास खड़े थे। हनुमान नीचे बैठ गए। माताओं ने आरती उतारी। मंगलाचार हुआ। शुभ गीत गाए गए। राम ने सीता को एक बहुमूल्य हार दिया। प्रजाजनों को उपहार दिए। अनेक वस्तुएँ प्रदान की। "कल सीता ने अपने गले का हार उतारा। वे दुविधा में थीं। किसे दें? दुविधा राम ने दूर की, "जिस पर तुम सर्वाधिक प्रसन्न हो, उसे दे दो! "सीता ने वह हार हनुमान को भेंट कर दिया। भक्ति और पराक्रम के लिए। कुछ दिनों में सारे अतिथि एक-एक कर चले गए। विभीषण लंका लौटे। सुग्रीव ने किष्किधा की ओर प्रयाण किया।


ऋषि-मुनि अपने आश्रम चले गए। हनुमान कहीं नहीं गए। राम दरबार में ही रहे। राम ने लंबे समय तक अयोध्या पर राज किया। उनके राज में किसी को कष्ट नहीं था। सब सुखी थे। भेदभाव नहीं था। कोई बीमार नहीं पड़ता था। खेत हरे-भरे थे। पेड़ फलों से लदे रहते थे। राम न्यायप्रिय थे। गुणों के सागर थे। उनका राज्य राम राज्य था। आज तक स्मृतियों में है।

लंका विजय | बाल रामकथा |वाल्मीकि रामायण | LANKA VIJAY | BAL RAMKADHA | VALMIKI RAMAYAN

लंका विजय 
बाल रामकथा 
वाल्मीकि रामायण 

लंका कूच की तैयारियाँ रातभर चलती रहीं। सभी तत्पर। सभी उद्यत। सुबह कूच से पहले सुग्रीव ने वानरों को संबोधित किया। युद्ध के बारे में। कहा, "युद्ध भयानक होगा। इसमें केवल वही सैनिक जाएँगे जो शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ हों। जो दुर्बल हैं, यहीं रुक जाएँ। "वानर सेना को युद्ध के नियम बताए गए। रक्षा और आक्रमण के तरीके। सेना किष्किंधा से दहाड़ती, गरजती, किलकारियाँ भरती रवाना हुई। राम, लक्ष्मण और सुग्रीव की जयकार से आकाश गूंज उठा। लाखों वानर थे। चारों ओर कोलाहल। वे पेड़ों-पहाड़ों को रौंदते चले जा रहे थे। इसका नेतृत्व नल कर रहे थे। सुग्रीव के सेनापति। जामवंत और हनुमान सबसे पीछे थे। यह सेना की रणनीति का हिस्सा था। दिन-रात चलकर सेना ने महेंद्र पर्वत पर डेरा डाला। वही पर्वत, जहाँ से हनुमान ने छलाँग लगाई थी। समुद्र निकट ही था। पर्वत पर सेना का ध्वज लगाया गया। तंबू लगे। पताकाएँ हवा में लहरा रही थीं।

उधर, लंका में खलबली मची हुई थी। राक्षसों में बेचैनी थी। उनके मन में डर बैठ गया था। राम की शक्ति को लेकर। जिसका दूत लंका में आग लगा सकता है, वह स्वयं कितना शक्तिशाली होगा! नगर में चर्चा का विषय यही था। लेकिन रावण इससे अनभिज्ञ था। उसे कौन बताता? किसी में इतना साहस नहीं था। ये चर्चाएँ विभीषण ने सुनीं। नगर की हताशा उनसे देखी नहीं गई। “ऐसी हताश सेना युद्ध नहीं कर सकती। उसकी पराजय निश्चित है। "वे रावण के पास गए। उसे सही स्थिति बताने। समझाने। राम से युद्ध न किया जाए। उन्होंने कहा, “आप सीता को लौटा दें। सबका कल्याण इसी में है। सीता मिल जाएँगी तो वे आक्रमण नहीं करेंगे। "रावण ने विभीषण की बात अनसुनी कर दी। उन्हें अपने कक्ष से निकाल दिया। क्रोध में वह स्वयं भी उठकर चल पड़ा। सभा कक्ष की ओर। उसे राम के समुद्र तट पर पहुँचने का समाचार मिल चुका था। सैनिकों ने राम की सेना की पताकाएँ दूर से देख ली थीं। विभीषण रावण के पीछे चलते रहे। बोलते रहे, “सीता आपके गले में बँधा साँप है। वह आपको डस लेगा। इसे छोटी बात मत समझिए, लंकाधिराज! ये संकेत महाविनाश के हैं। मैं अब भी कहता हूँ, सीता को लौटा दीजिए। लंका बच जाएगी।' "तुम मेरे भाई नहीं, शत्रु हो। मेरे शत्रु के शुभचिंतक हो, ”रावण का क्रोध भड़क उठा। “निकल जाओ यहाँ से। मुझे तुम्हारा साथ नहीं चाहिए।" रावण सभागार की ओर मुड़ गया। विभीषण पीछे। दोनों के रास्ते अलग हो गए। विभीषण उसी रात लंका से निकल गए। चार सहायकों के साथ। उन्होंने राम के पास जाना ठीक समझा। समुद्र पार राम के शिविर में अचानक खलबली मची। एक वानर चिल्लाकर सबको सावधान कर रहा था। "हमारे शिविर में राक्षस आ गए हैं।" विभीषण कुछ दूर खड़े थे। वानरों ने उन्हें सुग्रीव के सामने पेश किया। "वानरराज! मैं लंका के राजा रावण का छोटा भाई हूँ। मैं राम की शरण में आया हूँ। आप मुझे उनके पास पहुँचा दें, "विभीषण के चेहरे पर डर नहीं था। विश्वास था। शब्दों में षड्यंत्र नहीं था। कातरता थी। याचना थी। सुग्रीव को उनकी बात पर फिर भी भरोसा नहीं हुआ। "मेरा नाम विभीषण है। रावण ने मुझे लंका से निकाल दिया। मैंने उससे सीता को लौटाने की बात कही थी। क्रोध और अहंकार में चूर रावण ने मुझे सभा में अपमानित किया। मैं प्राण बचाकर आया हूँ। एक बार राम से मिलवा दें। मैं उनसे कुछ कहना चाहता हूँ।" सुग्रीव राम के पास गए। मन में शंका अब भी थी। अंगद भी उसे संदेह की दृष्टि से देख रहे थे। राम ने बात सुनी और कहा, "हमें विभीषण को स्वीकार करना चाहिए। मैं शरण में आए व्यक्ति को कभी निराश नहीं करता। यह मेरी नीति है। विभीषण को आदर से अंदर लाइए। "विभीषण राम के पास पहुँचे। राम ने उनका सत्कार किया। लंका का समाचार पूछा। जल्दी ही विभीषण राम के विश्वासपात्र बन गए। उन्होंने लंका की बहुत सी जानकारी राम को दी। रावण और उसके योद्धाओं की शक्ति के बारे में बताया। कहा, "रावण पर विजय प्राप्त करने के लिए बल और बुद्धि दोनों की आवश्यकता है।" "विभीषण! तुम चिंता मत करो। राक्षस मारे जाएँगे। लंका की राजगद्दी तुम्हारी होगी। भविष्य तुम्हारा है," राम ने कहा।


राम की सेना के सामने एक बड़ी चुनौती थी। समुद्र। उसे कैसे पार करें? राम ने समुद्र से विनती की। तीन दिन बैठे रहे कि समुद्र रास्ता दे दे। वह नहीं माना तो राम को क्रोध आ गया। राम का क्रोध देखते हुए समुद्र ने उन्हें सलाह दी, "आपकी सेना में नल नाम का एक वानर है। वह पुल बना सकता है। उससे वानर सेना पार उतर जाएगी। "नल ने अगले ही दिन काम प्रारंभ कर दिया। पुल बनने लगा। वानर कँकड़, पत्थर, शिलाएँ लाते रहे। नल पुल बनाते रहे। पाँच दिन में पुल तैयार हो गया। समुद्र को दो टुकड़ों में बाँटता हुआ। उसका घमंड चूर करता हुआ। सबसे पहले विभीषण पुल से उस पार गए। पीछे-पीछे वानर सेना। सेना का अगला शिविर दूसरे तट पर बना।" असंभव! "रावण क्रोध से चीख उठा। समुद्र पर पुल कैसे बन सकता है? इस समाचार से रावण को विस्मय हुआ। भय भी। लेकिन उसने जो मन में ठान लिया था, उससे डिगा नहीं। उसने आदेश दिया, 'सेना तैयार की जाए। युद्ध का समय आ पहुँचा है। "अब दोनों सेनाएँ समुद्र के एक ही ओर थीं। उनका आमना-सामना होना शेष था। आक्रमण की तैयारी थी। रणनीति बन चुकी थी। पहले आक्रमण की योजनाओं को अंतिम रूप दिया जा रहा था। राम ने अपनी सेना को चार भागों में विभक्त कर दिया। लंका के चार द्वार थे। चौतरफ़ा आक्रमण होना था। हर टुकड़ी को एक द्वार सौंपा गया। राम ने पर्वत शिखर पर चढ़कर स्वयं लंका का निरीक्षण किया। लंका के वैभव से वे भी चकित थे। उन्होंने लक्ष्मण को बताया। सूर्योदय होते ही राम ने आदेश दिया, "लंका को चारों ओर से घेर लिया जाए। "वानर सेना जयकार करती चल पड़ी। इस बीच राम ने अंगद को बुलाया। कहा, “तुम लंका जाओ। मेरे दूत बनकर। सुलह का अंतिम प्रयास करो। ताकि युद्ध टल जाए। रावण से कहो कि सीता को लौटा दे। अन्यथा उसका अंत होगा।" अंगद ने ऐसा ही किया। पर रावण नहीं माना। राम का संदेश सुनकर रावण क्रोधित हुआ। कुछ राक्षसों ने उन पर आक्रमण किया। अंगद वहाँ से बचकर राम के पास पहुँचे। कहा, “रावण को कोई पश्चाताप नहीं है। वह हमारे साथ सुलह के लिए तैयार नहीं है। युद्ध चाहता है। अब युद्ध ही एकमात्र विकल्प है। "वानर युद्ध के लिए तैयार थे। राम के आदेश की प्रतीक्षा में थे। आदेश मिलते ही उन्होंने लंका पर चढ़ाई कर दी।

उधर, रावण के आदेश पर उसकी सेना निकल पड़ी। राक्षस उतावले थे। चीत्कार कर रहे थे। रावण के जयघोष से लगा कि आसमान फट जाएगा। वे दौड़े और वानर सेना पर टूट पड़े। भयानक युद्ध हुआ। हर ओर दहला देने वाला शोर। हाथियों की चिंघाड़। घोड़ों की हिनहिनाहट। रथों की सरसराहट। कोलाहल। रथ हवा से बातें कर रहे थे। तलवारें खिच गईं थीं। बाणों से आसमान भर गया था। भाले उड़ रहे थे। दोनों ओर के कई वीर मारे गए। रावण के अनेक पराक्रमी राक्षस ढेर हो गए। धरती लाल हो गई थी। क्षत-विक्षत शव बिखरे थे। कराहते घायलों की ओर किसी का ध्यान नहीं था। शाम होने को थी। मेघनाद ने राक्षस सेना को पीछे हटते देखा। उसने अपने सैनिकों को ललकारा, "आगे बढ़ो! हम विजय के करीब हैं।" मेघनाद ने सेना का नेतृत्व सँभाल लिया। राक्षस उत्साह से आगे बढ़े। मेघनाद की दृष्टि राम-लक्ष्मण पर थी। वह छिपकर युद्ध करता था। मायावी था। किसी को दिखाई नहीं पड़ता था। उसके बाण राम और लक्ष्मण को लगे। दोनों वहीं मूच्छित होकर गिर पड़े। मेघनाद ने समझा काम हो गया। उसने दोनों भाइयों को मृत समझ लिया। वह मैदान छोड़कर महल की ओर दौड़ा। रावण को इसकी सूचना देने। रणक्षेत्र में वानर राम-लक्ष्मण के पास एकत्र हो गए। वे चिंतित थे। अशुभ की आशंका से। विभीषण ने दोनों का उपचार कराया। उनकी मूर्छा टूटी। वे खड़े हुए तो वानर दल हर्ष-ध्वनि करने लगा। अगले दिन युद्ध के लिए तैयार। रावण की सेना के महाबली एक-एक कर मारे जा रहे थे। धूम्राक्ष मारा गया। वज्रद्रष्ट धरती पर गिर पड़ा। अकंपन कुचल कर मर गया। प्रहस्त को नील ने ध्वस्त कर दिया। रावण को इसकी सूचनाएँ मिलती रहीं। वह घबरा गया। वह हड़बड़ाकर उठा और स्वयं कमान संभाल ली। पहली मुठभेड़ में वह लक्ष्मण पर भारी पड़ा। लेकिन राम के बाणों ने उसका मुकुट धरती पर गिरा दिया। वह लज्जित होकर लौट गया। अब तक रावण को राम की शक्ति का कुछ अनुमान हो गया था। जब उसे कोई और रास्ता नहीं सूझा तो उसने कुंभकर्ण को जगाया। वह महाबली था पर छह महीने सोता था। कुंभकर्ण दुर्ग से बाहर आया। उसे देखते ही वानर सेना में खलबली मच गई। वे उसे रोकने में अक्षम थे। उसने हनुमान और अंगद को घायल कर दिया। लक्ष्मण यह युद्ध देख रहे थे। उन्होंने राम की ओर देखा। फिर दोनों भाइयों ने बाणों की वर्षा कर उसे मार दिया। कुंभकर्ण रणभूमि के अंक में सो गया। सदा के लिए। रावण निराश हो गया। कुंभकर्ण पर उसे गर्व था। वह उसे अपना दाहिना हाथ मानता था। उसे लगा कि अब लंका में वीर नहीं हैं। वह अनाथ हो गई। मेघनाद ने रावण को सहारा दिया, "मेरे रहते आप क्यों चिंता करते हैं? मुझे युद्ध की अनुमति दें। मैं दोनों भाइयों को मारकर आपके चरणों में रख दूंगा। 'मेघनाद और लक्ष्मण का भीषण युद्ध हुआ। मेघनाद पराक्रमी था। उसने एक बार इंद्र को परास्त कर दिया। और इंद्रजित कहलाया। उसके बाणों ने कई प्रमुख वानरों को घायल कर दिया। मेघनाद को रोक पाना वानरसेना के बूते की बात नहीं थी। वह चक्रवात की तरह आगे बढ़ता। जो भी आसपास होता, ध्वस्त हो जाता। वानर सेना मेघनाद की गति और शक्ति से चकित थी। चमत्कृत। उनके मन में निराशा बैठती जा रही थी। तब लक्ष्मण ने उसे चुनौती दी। दोनों का निशाना अचूक था। बाण हवा में टकराते और नष्ट हो जाते। अचानक लक्ष्मण का एक बाण उसे लगा। वह घायल हो गया। झुक गया। लक्ष्मण ने ताबड़तोड़ बाणों की बरसात कर दी।

आगे बढ़ना कठिन था। मेघनाद पीछे मुड़ा। महल की ओर भागा। लक्ष्मण ने कुछ दूर तक उसका पीछा किया। फिर रुक गए। मेघनाद महल में घुस गया। लक्ष्मण को महल की संरचना नहीं पता थी। रास्ता नहीं मालूम था। विभीषण लक्ष्मण की दुविधा समझ गए। उन्होंने एक गुप्त मार्ग दिखाया। शेष काम आसान था। मेघनाद महल में ही मारा गया। अपने ज्येष्ठ पुत्र की मृत्यु से रावण एकदम टूट गया। विलाप करने लगा। मूछित हो गया। होश आया तो उसकी दशा पागलों जैसी थी। क्रोध से बिलबिलाता हुआ। “लंका अनाथ हो गई। अब उसका कोई सहारा नहीं। अब मैं स्वयं रणक्षेत्र में जाऊँगा। "लक्ष्मण के साथ वानर सेना भी महल में प्रवेश कर गई थी। उनके हाथों में जलती हुई मशालें थीं। वानरों ने लंका में जहाँ-तहाँ आग लगा दी। अन्न भंडार फूंक दिए। शस्त्रागार जला दिया। मारकाट मच गई। जो भी सामने पड़ा , मारा गया। कंपन, प्रजंघ, यूपाक्ष, कुंभ मारे गए। हनुमान ने निकुंभ, देवांतक और त्रिशिरा को मौत की नींद सुला दिया। अंगद ने नरांतक का काम तमाम कर दिया। लक्ष्मण ने अतिकाय का सिर काट डाला। राक्षस सेना भाग खड़ी हुई।

रावण के पास अब कोई विकल्प नहीं था। युद्धनाद हुआ। अकेला बचा रावण युद्ध के लिए निकला। फुफकारते हुए। फन कुचले साँप की तरह। वह जिधर मुड़ता, भगदड़ मच जाती। वानरों को भागते देख लक्ष्मण आगे आए। धनुष-बाण लिए। रावण के सामने अभेद्य दीवार की तरह खड़े हो गए। थोड़ी ही देर में विभीषण वहाँ पहुँच गए। उसके बाद राम। उनके सामने रावण की एक न चली। विभीषण को राम की सेना में देख रावण उबल पड़ा। उसके लिए यह देशद्रोह था। छोटे भाई का विश्वासघात। उसने विभीषण पर निशाना लगाया। लक्ष्मण ने वह बाण बीच में ही काट दिया। उसने दूसरा घातक बाण चलाया। इस बार लक्ष्मण बीच में आ गए। उन्होंने विभीषण को अपने पीछे छिपा लिया। बाण लगते ही लक्ष्मण अचेत हो गए। गिर पड़े। राम ने यह देखा। उनकी आँखें क्रोध से लाल हो गईं। आग बरसने लगी। उन्होंने लक्ष्मण को सुग्रीव की निगरानी में छोड़ा और रावण को चुनौती दी। कहा, "रावण! काल तुझे मेरे सामने ले आया है। आज अन्याय पर न्याय की विजय होगी। तेरा अंत निश्चित है। "उधर, हनुमान लक्ष्मण को उठाकर रणक्षेत्र से दूर ले गए। वैद्य सुषेण को बुलाया। हनुमान संजीवनी बूटी लाए। चिकित्सा शुरू हुई। धीरे-धीरे रक्त का रिसाव बंद हो गया। घाव भर गया। संजीवनी का प्रभाव चमत्कारी था। सुग्रीव ने लक्ष्मण के स्वस्थ होने की सूचना राम तक पहुँचाई। वह सिंह की भाँति रावण पर टूट पड़े। राम-रावण युद्ध भयानक था। शस्त्रों की गति से कँपा देने वाली ध्वनियाँ निकल रही थीं। हवा थम गई थी। सूरज बादलों के पीछे छिप गया था। शस्त्रों की चमक बिजली की तरह कौंध रही थी। गड़गड़ाहट थी। थर्रा देने वाली। दोनों योद्धा अपनी पूरी शक्ति से लड़ रहे थे। कोई एक रत्ती भी पीछे खिसकने को तैयार नहीं। कुछ ही देर में लगा कि युद्ध समाप्त होने को है। दोनों पक्ष के योद्धा हाथ बाँध कर खड़े हो गए। छोटे-छोटे युद्ध थम गए। सबकी नजरें राम और रावण पर थीं। सबकी आँखें फटी रह गईं। पलकें झुकना भूल गईं। उन्होंने ऐसा युद्ध पहले कभी नहीं देखा था। लेकिन महासंग्राम समाप्त नहीं हुआ था। रावण का एक बाण राम को लगा। उनके रथ की ध्वजा कटकर गिर पड़ी। राम ने प्रहार किया। बाण रावण के मस्तक में लगा। रक्त की धारा बह निकली। बीच में युद्ध कुछ पल के लिए रुका। रावण अपने महल चला गया। घोड़े और रथ बदलने। राम को इसकी आवश्यकता नहीं पड़ी। युद्ध फिर शुरू हुआ। अब उनके रथ एक-दूसरे के सामने थे। योद्धा आँखों में आँखें डालकर देख सकते थे। घोड़ों के मुँह मिल गए थे। राम के बाणों ने रावण के रथ का मुँह मोड़ दिया। यह पराजय का संकेत था। रावण हिम्मत हारने लगा। जब तक वह रथ घुमाता, राम का एक बाण उसके पार निकल गया। रथ मुड़ा। लेकिन रावण के हाथ से धनुष छूट गया। वह पृथ्वी पर गिर पड़ा। मारा गया। बची हुई राक्षस सेना हड़बड़ा गई। जान बचाकर भागी। उनका दिशा-ज्ञान शून्य हो गया। जिसे जिधर अवसर मिला, भागा। कुछ राक्षस वानर सेना की ओर दौड़ पड़े। कुछ भागते हुए समुद्र में जा गिरे। लंका विजय अभियान पूरा हुआ। राम की जयकार होने लगी। कुछ समय पूर्व का रणक्षेत्र एकदम बदल गया। शस्त्रों की टंकार की जगह किलकारियों ने ले ली। वानर सेना उछल-कूद करने लगी। समुद्र से ठंडी हवा आ रही थी। शस्त्रों से उत्पन्न गरमी वह अपने साथ बहा ले गई। कोलाहल तुमुलनाद में परिवर्तित हो गया। प्रसन्नता सर्वव्याप्त थी।


रणक्षेत्र में केवल एक व्यक्ति दु:खी था। शोक से व्याकुल। विलाप करता हुआ। अपने भाई के मृत शरीर के पास खड़ा। राम ने विभीषण को समझाया, "मित्र, शोक मत करो। रावण महान योद्धा था। उसकी अंत्येष्टि महानता के अनुरूप होनी चाहिए। मृत्यु सत्य है। उसे स्वीकार करो। "राम ने एक-एक वानर का आभार माना। सुग्रीव को गले लगा लिया। लक्ष्मण से विभीषण के राज्याभिषेक की तैयारी करने को कहा। चाहते थे कि रावण की अंत्येष्टि के बाद राजतिलक हो। उसमें विलंब न किया जाए। उन्होंने हनुमान को बुलाया। अशोक वाटिका जाने का निर्देश दिया। "यह संदेश आपको ही सीता तक पहुँचाना है। उन्हें लंका विजय का समाचार दीजिए। उनका संदेश लेकर शीघ्र आइए।" विभीषण के अंत्येष्टि से लौटने तक उनके राज्याभिषेक की तैयारी हो चुकी थी। लक्ष्मण राजमहल पहुँच गए थे। वानर स्वर्ण-कलश में समुद्र का पानी ले आए थे। लक्ष्मण विभीषण के पास गए। उन्हें साथ लेकर राजसिंहासन तक आए। सोने का चमचमाता हुआ सिंहासन। रत्नों-मणियों जटित। समुद्र जल से उन्होंने सभासदों के सामने विभीषण का अभिषेक किया। अब विभीषण लंका के राजा थे।

इस बीच, हनुमान अशोक वाटिका से लौट आए। राम के पास। उन्होंने कहा, “माता सीता लंका विजय का समाचार सुनकर प्रसन्न हुईं। वे आपसे मिलने के लिए अधीर हैं। "तब तक विभीषण वहीं आ गए थे। राम उनकी ओर मुड़े। कहा, "लंकापति, सीता अब भी आपकी अशोक वाटिका में हैं। उन्हें यहाँ लाने की व्यवस्था की जाए। "वानर सेना चुहल कर रही थी। अठखेलियों में लगी थी। राम का निर्देश सुनकर उनकी  उत्सुकता बढ़ गई।  सुग्रीव, जामवंत और नल-नील भी उत्सुक थे। अंगद को प्रतीक्षा थी। हनुमान को  छोड़कर किसी ने सीता को नहीं देखा था। सीता आईं तो सबको अपनी कल्पनाओं से अधिक लगीं। सुंदर, सौम्य, शांत। उस सुंदरता में एक वर्ष बाद पति से मिलन की प्रसन्नता शामिल थी। कष्ट इतिहास हो गया था।