बुधवार, 12 मई 2021

सीता की खोज | बाल रामकथा |वाल्मीकि रामायण | SITA KI KHOJ | BAL RAMKADHA | VALMIKI RAMAYAN

सीता की खोज 
बाल रामकथा 
वाल्मीकि रामायण 

राम के मन में कई प्रकार के प्रश्न थे। आशंकाएँ थीं। मारीच की माया उन्होंने देख ली थी। वह छल से उन्हें कुटिया से दूर ले आया था। “अब क्या होगा?" यही सोचते हुए वे कुटिया की ओर भागे चले जा रहे थे। वापसी में एक पल भी विलंब नहीं करना चाहते थे। लक्ष्मण को वे कुटी पर छोड़ आए थे। सीता की रखवाली के लिए। “अच्छा हो कि लक्ष्मण वहीं हों। मारीच की मायावी आवाज़ उन तक न पहुँची हो, ”राम ने सोचा। “सीता अकेली रहीं तो राक्षस उन्हें मार डालेंगे। खा जाएँगे।"

तभी उन्होंने पगडंडी से लक्ष्मण को आते देखा। वही हुआ, जिसका राम को डर था। अनिष्ट की आशंका और बढ़ गई। पता नहीं सीता किस हाल में होंगी? राक्षसों ने उन्हें मार डाला होगा? उठा ले गए होंगे? अकेली सीता दुष्ट राक्षसों के सामने क्या कर पाई होंगी? कुटी छोड़कर आने पर वह लक्ष्मण से क्रुद्ध थे। उन्होंने क्रोध पर नियंत्रण रखा। लक्ष्मण का बायाँ हाथ ज़ोर से पकड़ लिया। डर ने दोनों भाइयों को घेर लिया था।

"देवी सीता ने मुझे विवश कर दिया, भ्राते! उनके कटु वचन मैं सहन नहीं कर सका। कटाक्ष और उलाहना नहीं सुन सका। जानता था कि आप सकुशल होंगे। आपकी सुरक्षा को लेकर मन में कोई संदेह नहीं था। तब भी मुझे कुटिया छोड़कर आना पड़ा, "लक्ष्मण ने कहा।"


यह तुमने अच्छा नहीं किया। तुम्हें मेरी आज्ञा का उल्लंघन नहीं करना चाहिए था। अब जल्दी चलो। मेरा मन चिंतित है। सीता न जाने किस हाल में होंगी। कैसी होंगी। मायावी राक्षसों का कोई ठिकाना नहीं। "राम ने चलने की गति और बढ़ा दी।

कुटिया अभी कुछ दूर थी। पर दिखाई पड़ने लगी थी। राम ने वहीं से पुकारा, 'सीते! तुम कहाँ हो?" जैसे कि उन्हें पता चल गया हो कि सीता आश्रम में नहीं हैं। कुटिया मौन रही। वहाँ से कोई उत्तर नहीं मिला। राम की बेचैनी बढ़ गई। उनकी एक आवाज़ पर कहीं से भी उपस्थित हो जाने वाली सीता वहाँ नहीं थीं। अनुपस्थिति बोलती कैसे?

राम की आवाज़ पेड़ों से टकराकर हवा में विलीन हो गई। कुटिया के शून्य में समा गई। राम पुकारते रहे। उत्तर में उन्हें हर बार सन्नाटा ही मिला। चुप्पी हर ओर थी। हर दिन हवा में झूलने वाले पत्ते शांत थे। लताएँ गुमसुम पड़ी हुई थीं। चिड़ियों की चहक लुप्त थी। कुटिया के निकट घूमने वाले पशु-पक्षी चुप खड़े थे। सब स्तब्ध! राम भागते हुए आश्रम पहुँचे। कुटिया में जाकर देखा। “सीते! सीते!" पुकारते हुए उन्होंने आसपास की हर जगह देखी। पेड़ों-झाड़ियों के पीछे गए। उन स्थानों की ओर भागे, जहाँ सीता जा सकती थीं। सीता का कहीं पता न था। शोक से व्याकुल राम रोने लगे। सीता से बिछुड़ना उनके लिए असहनीय आघात था। वे सुध-बुध भुला बैठे।


विरह में वे गोदावरी नदी के पास गए। उससे पूछा, “तुमने सीता को कहीं देखा है?" नदी ने कोई उत्तर नहीं दिया। वे पंचवटी के एक-एक वृक्ष के पास गए। सबसे पूछा। कोई सीता का पता बता दे। हाथी के पास गए। शेर से पूछा। फूलों के पास रुके। चट्टानों, पत्थरों से प्रश्न किया। शोक संतप्त राम भूल गए कि चट्टानें नहीं बोलतीं। पेड़-पौधे बात नहीं करते। उनकी भाषा मौन है। उनके उत्तर भी मौन ही हैं।

राम की मानसिक स्थिति विक्षिप्त जैसी थी। एक बार उन्हें लगा कि सीता वहीं हैं। कुटिया के पास। अभी भागकर पेड़ के पीछे छिप गई हैं। उन्हें खिझाने के लिए। "मेरे साथ परिहास मत करो, सीते!" राम उस पेड़ की ओर दौड़ पड़े। वहाँ कोई नहीं था। वे निराश होकर पेड़ के नीचे बैठ गए।

राम का दुख लक्ष्मण से देखा नहीं जा रहा था। उनका व्यवहार सहन नहीं हो रहा था। वे राम के निकट गए। विलाप करते राम ने कहा, "मैं सीता के बिना नहीं रह सकता। तुम अयोध्या लौट जाओ, लक्ष्मण। मैं वहाँ नहीं जाऊँगा। यहीं प्राण दे दूंगा। मैं सीता के साथ आया था। उसके बिना कैसे लौटूंगा? नगरवासियों को क्या मुंह दिखाऊ। तुम जाओ। मुझे यहीं छोड़ दो।"

आप आदर्श पुरुष हैं। आपको धैर्य रखना चाहिए। इस तरह दु:ख से कातर नहीं होना चाहिए। हम मिलकर सीता की खोज करेंगे। वे जहाँ भी होंगी, हम उन्हें ढूँढ निकालेंगे। सीता हमारी प्रतीक्षा कर रही होंगी।" लक्ष्मण ने उन्हें ढाढ़स बंधाते हुए कहा।

राम शांत हुए। पर थोड़ी ही देर में "हा प्रिये!" कहते हुए पुनः विलाप करने लगे। इसी बीच आश्रम के आसपास भटकने वाला हिरणों का एक झुंड राम-लक्ष्मण के निकट आ गया। राम को लगा कि हिरण सीता के बारे में जानते हैं। उन्हें कुछ बताना चाहते हैं। "हे मृग! तुम्हीं बताओ सीता कहाँ हैं? "राम ने पूछा। हिरणों ने सिर उठाकर आसमान की ओर देखा और दक्षिण दिशा की ओर भाग गए। राम ने संकेत समझ लिया "हमें सीता की खोज दक्षिण दिशा में ही करनी चाहिए. "उन्होंने लक्ष्मण से उसी ओर गए हैं। "वन में भटकते हुए उन्होंने एक टूटे रथ के टुकड़े देखे। मरा हुआ सारथी और मृत घोड़े भी थे। “वन में रथ का क्या प्रयोजन? उसके टूटने का क्या अर्थ? "राम असमंजस में पड़ गए। "लगता है थोड़ी देर पहले यहाँ संघर्ष हुआ है, "लक्ष्मण ने कहा। "यह पुष्पमाला वही है, जिसे सीता ने वेणी में गूंथ रखा था। निश्चित तौर पर सीता राक्षसों के चंगुल में फँस गई हैं। यह माला संघर्ष के दौरान वेणी से टूटकर गिरी होगी।"

"पर यह रथ कैसे टूटा?" राम सोचने लगे। "सीता के संघर्ष से यह नहीं टूट सकता। अवश्य किसी ने राक्षसों को चुनौती दी होगी। उनसे युद्ध किया होगा। "वहाँ से थोड़ी ही दूर राम ने पक्षिराज जटायु को देखा। पंख कटे हुए। लहूलुहान। अंतिम साँसें गिनते हुए। “हे राजकुमार! सीता को रावण उठा ले गया है। मेरे पंख उसी ने काटे। सीता का विलाप सुनकर मैंने रावण को चुनौती दी। उसका रथ तोड़ दिया। सारथी और घोड़ों को मार डाला। स्वयं रावण को घायल कर दिया। पर मैं सीता को नहीं बचा सका। रावण उन्हें लेकर दक्षिण-पश्चिम दिशा की ओर उड़ गया, "कहते-कहते जटायु ने प्राण त्याग दिए। राम ने आगे बढ़ने से पहले जटायु की अंतिम क्रिया की। वे सोचते रहे। पछताते रहे। “यह कैसा विधान है! मैं तो कष्ट में हूँ ही। मेरी सहायता करने वालों को भी इतना कष्ट!" राम की आँखें नम हो आई। उन्होंने जटायु को अंतिम बार प्रणाम किया।

जटायु ने सीता के बारे में महत्त्वपूर्ण सूचना दी थी। रावण का नाम बताया। दिशा बताई, जिधर सीता को लेकर वह गया। राम जटायु की चिता के पास मौन खड़े थे। “ यह समय विलाप करने का नहीं है। हमें तुरंत दक्षिण-पश्चिम दिशा की ओर जाना चाहिए। सीता उधर ही होंगी, "लक्ष्मण ने तत्परता दिखाई। आगे का मार्ग और कठिन था। राम और लक्ष्मण को लगभग हर दिन राक्षसी आक्रमणों से जूझना पड़ा। अनेक कठिनाइयाँ आईं। अवरोध मिले। दोनों राजकुमार प्रत्येक बाधा पार करते चले गए। उनके सामने लक्ष्य स्पष्ट था। दिशा तय थी। उन्हें कोई नहीं रोक सकता था। वन-मार्ग जितना कठिन होता गया, उनकी दृढ़ता बढ़ती गई। वनवासी राजकुमार प्रतिदिन सुबह उठते और दक्षिण दिशा की ओर चल पड़ते। एक दिन यात्रा के प्रारंभ में ही एक विशालकाय राक्षस ने उन पर आक्रमण कर दिया। उसका नाम कबंध था। कबंध देखने में बहुत डरावना था। मोटे माँसपिंड जैसा। गर्दन नहीं थी। एक आँख थी। दाँत बाहर निकले हुए। जीभ साँप की तरह। लंबी और लपलपाती हुई।

राम-लक्ष्मण को देखते ही कबंध प्रसन्न हो गया। उसने दोनों हाथ फैलाए। एक-एक हाथ से दोनों भाइयों को पकड़कर हवा में उठा दिया। उसे मनमाँगा आहार मिल गया था। बैठे- बिठाए। वह अपने शिकार को भुजाओं में लपेटकर मुँह तक ले जाता इससे पहले ही राम-लक्ष्मण ने अपनी तलवारें निकाल लीं। एक झटके में कबंध के हाथ काट दिए। उसके हाथ धरती पर गिर पड़े। कबंध उनकी शक्ति और बुद्धि पर आश्चर्यचकित रह गया। “कौन हो तुम दोनों? "उसने पूछा। हम अयोध्या के महाराज दशरथ के पुत्र हैं। राम और लक्ष्मण। रावण ने राम की पत्नी सीता का हरण कर लिया है। हम उन्हीं की खोज में निकले हैं। राक्षस कबंध ने राम के बारे में सुन रखा था। साक्षात् उन्हें देखकर प्रसन्न हो गया। उसने कहा, " मैं सीता के संबंध में कुछ नहीं जानता। लेकिन तुम दोनों की सहायता का उपाय बता सकता हूँ। मेरा एक छोटा-सा आग्रह स्वीकार करो तो। मेरा अंतिम संस्कार राम करें।" राम ने इस पर सहमति व्यक्त की तो कबंध बोला, "आप दोनों पंपा सरोवर के निकट ऋष्यमूक पर्वत पर जाएँ। वह वानरराज सुग्रीव का क्षेत्र है। वे निर्वासित जीवन व्यतीत कर रहे हैं। सुग्रीव से मदद का आग्रह कीजिए। उनके पास बहुत बड़ी वानर सेना है। सुग्रीव के वानर सीता को अवश्य खोज निकालेंगे।"


कबंध की साँस टूटने लगी थी। उसका अंत निकट था। राम और लक्ष्मण को अपने निकट बुलाते हुए उसने कहा, “पंपा सरोवर के पास मतंग ऋषि का आश्रम है। वहीं उनकी शिष्या शबरी रहती है। आगे जाने से पूर्व शबरी से अवश्य मिल लें।" यही बोलते-बोलते कबंध ने प्राण त्याग दिए। राम ने अपना वचन पूरा करते हुए उसका अंतिम संस्कार किया और पंपासर की ओर चल पड़े।

कबंध की बातों से राम को बहुत ढाढ़स हुआ। सीता तक पहुँचने की आशा बलवती हुई। राम को सुग्रीव की क्षमता और उनकी वानर सेना की शक्ति का पता था। वे जल्दी सुग्रीव तक पहुँचना चाहते थे।

ऋष्यमूक पर्वत का रास्ता पंपा सरोवर होकर जाता था। पंपासर का प्राकृतिक सौंदर्य अद्भुत था। मतंग ऋषि का आश्रम उसी सरोवर के किनारे था। लता - कुंज से घिरा हुआ । सरोवर का पानी मीठा था। शबरी की कुटिया आश्रम में ही थी। वह ऋषि की शिष्या थी। उसकी आयु बहुत हो गई थी। जर्जर काया। लेकिन आँखें ठीक थीं। हर पल राम की प्रतीक्षा में खुली हुईं। ऋषि ने उसे बताया था कि एक दिन राम आश्रम में अवश्य आएँगे। और उससे मिलेंगे।


राम को आश्रम में देखकर शबरी बहुत प्रसन्न हुई। उनकी आवभगत की। सेवा की। खाने को मीठे फल दिए। रहने की जगह दी। उसकी आँखें तृप्त हो गईं। राम ने उससे सीता के संबंध में पूछा। “आप सुग्रीव से मित्रता करिए । सीता की खोज में वह अवश्य सहायक होगा। उसके पास विलक्षण शक्ति वाले बंदर हैं," शबरी ने राम को आश्वस्त किया।

अगले दिन राम ऋष्यमूक पर्वत चले गए। उनकी व्याकुलता अब और घट गई थी। मन की शांति लौट आई थी।

मंगलवार, 11 मई 2021

सोने का हिरण | बाल रामकथा |वाल्मीकि रामायण | SONE KA HIRAN | BAL RAMKADHA | VALMIKI RAMAYAN

सोने का हिरण 
 बाल रामकथा 
वाल्मीकि रामायण 


राम को कुटी से निकलते देखकर मायावी हिरण कुलाचें भरने लगा। राम को बहुत छकाया। झाड़ियों में लुकता-छिपता-भागता वह राम को कुटी से बहुत दूर ले गया। राम जब भी उसे पकड़ने का प्रयास करते, वह भागकर और दूर चला जाता। हिरण चालाक था। वह इतनी दूर कभी नहीं जाता था कि पहुँच से बाहर लगे। राम के सारे प्रयास विफल हुए। वे हिरण को पकड़ नहीं पाए। उन्होंने उसे जीवित पकड़ने का विचार त्याग दिया। धनुष उठाया। निशाना साधा। और एक बाण उस पर छोड़ दिया। बाण लगते ही हिरण गिर पड़ा। धरती पर गिरते ही मारीच अपने असली रूप में आ गया । मारीच ने माया से केवल अपना रूप नहीं बदला था। आवाज़ भी बदल ली थी। अपनी आवाज़ राम जैसी बना ली थी। धरती पर पड़े हुए वह ज़ोर से चिल्लाया, "हा सीते! हा लक्ष्मण!" ध्वनि ऐसी थी जैसे बाण राम को लगा हो। वह सहायता के लिए पुकार रहे हों। बाण का प्रहार गहरा थ। मारीच उसे अधिक देर तक सहन नहीं कर पाया। वह छटपटाता रहा। जल्दी ही उसके प्राण-पखेरू उड़ गए। रावण एक विशाल वृक्ष के पीछे खड़ा था। वह प्रसन्न था। उसकी चाल सफल हो गई थी। मारीच ने अपनी भूमिका अच्छी तरह निभाई थी। अब तक सब कुछ वैसा ही हुआ, जैसा उसने सोचा था। उसे राक्षस अकंपन की बात याद आई। सीता का हरण हो तो राम के प्राण निकल जाएँगे। वह निशक्त हो जाएँगे। वह अगले चरण की तैयारी में मारीच की पुकार राम ने सुनी। वह पास ही थे। उन्हें समझने में देर नहीं लगी कि पुकार की मंशा क्या है! मायावी मारीच की पूरी चाल उनके सामने खुल गई। हिरण जानबूझकर भागता रहा। उन्हें कुटिया से दूर ले जाने के लिए। वह षड्यंत्र का अगला चरण विफल करना चाहते थे। उनकी चाल में तेजी आ गई ताकि जल्दी कुटिया पहुँच सकें। जुट गया।

वह मायावी पुकार सीता और लक्ष्मण ने भी सुनी। लक्ष्मण उसका रहस्य तत्काल समझ गए। राम की तरह। उन्होंने बाण चढ़ाकर धनुष दृढ़ता से पकड़ लिया। चौकसी बढ़ा दी। वे राक्षसों की अगली चाल का सामना करने के लिए तैयार थे। साथ ही राम का आदेश उन्हें याद था। उनके लौटने तक सीता की रक्षा। लक्ष्मण की ओर से इसमें चूक की कोई संभावना ही नहीं थी। सीता वह आवाज़ सुनकर विचलित हो गईं। घबरा गईं। दौड़कर कुटिया के द्वार पर आईं। उन्होंने लक्ष्मण से कहा, "तुम जल्दी जाओ। जिस दिशा से आवाज़ आई है, उसी ओर। तुम्हारे भाई किसी कठिन संकट में फँस गए हैं। उन्होंने सहायता के लिए पुकारा है। उनकी ऐसी कातर आवाज़ मैंने कभी नहीं सुनी। जाओ लक्ष्मण। जल्दी।" “आप चिंता न करें, माते!" लक्ष्मण ने सीता को आश्वस्त करते हुए कहा। "राम संकट में नहीं हैं। हो ही नहीं सकते। उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। हमने जो आवाज़ सुनी, वह बनावटी है। मायावी राक्षसों की चाल है। मुझे कुटिया से दूर ले जाने के लिए। आप निश्चित रहें। भाई राम जल्दी ही आते होंगे।"

सीता क्रोध से उबल पड़ीं। लक्ष्मण का इस घड़ी में इतना शांत होना उन्हें समझ में नहीं आया। राम की आवाज़ सुनकर भी वे यहीं खड़े रहे। सहायता के लिए नहीं गए। सीता को इसके पीछे षड्यंत्र दिखाई दिया। लक्ष्मण की चाल। लगा कि लक्ष्मण राम का भला नहीं चाहते। उनके हितैषी नहीं हैं। चाहते हैं कि राम न रहें। मारे जाएँ। ताकि राजपाट उन दोनों का हो जाए। उनके रास्ते का काँटा निकल जाए।' तुम्हारा मन पवित्र नहीं है। कलुषित है। पाप है उसमें। मैं समझ सकती हूँ कि तुम अपने भाई की सहायता के लिए क्यों नहीं जा रहे हो! "सीता ने यहाँ तक कह दिया कि कहीं वे भरत के गुप्तचर तो नहीं हैं! सीता की बातों से लक्ष्मण को गहरा आघात पहुँचा। उनका हृदय छलनी हो गया। पर उन्होंने पलटकर उत्तर नहीं दिया। संयम बनाए रखा। सिर झुकाकर सब चुपचाप सुन लिया। वे सीता की पीड़ा समझ पा रहे थे। केवल इतना बोले, "हे देवी! यह राक्षसों का छल है। खर-दूषण के मारे जाने के बाद वे बौखला गए हैं। किसी तरह हमसे बदला लेना चाहते हैं। आप उनकी चाल में न आएँ। वे कुछ भी कर सकते हैं। मुझ पर विश्वास करें। राम को कुछ नहीं होगा।"

सीता का क्रोध और बढ़ गया। क्रोध में आँखों से आँसू बहने लगे। यह भी लग रहा था कि कहीं लक्ष्मण की बात सही न हो। यह डर था कि राम से बिछोह न हो। उन्होंने कहा, "राम से बिछुड़कर मैं नहीं रह सकती। मैं जान दे दूंगी। हे लक्ष्मण! तुम उन्हें लेकर आओ। "लक्ष्मण राम के लिए राम की आज्ञा का उल्लंघन कर रहे थे। उन्होंने सीता को प्रणाम किया और राम की खोज में निकल पड़े। लक्ष्मण के जाते ही रावण आ पहुँचा। तपस्वियों जैसा जटा-जूट। वैसे ही वस्त्र। सीता ने साधु समझकर उसका स्वागत किया। रावण ने सीता के स्वरूप, संस्कार और साहस की प्रशंसा की। उसने सीता का परिचय प्राप्त करने के बाद कहा, "सुमुखी! मैं रावण हूँ। राक्षसों का राजा। लंकाधिपति। मेरा नाम लेने पर लोग थरथरा उठते हैं। लेकिन तुम सुंदरी हो। सबसे अलग हो। तुम्हारे लिए मैं स्वयं चलकर आया हूँ। मेरे साथ चलो। सोने की लंका में रहो। मेरी रानी बनकर। "सीता क्रोधित हो उठीं। कहा, "मैं प्राण त्याग दूंगी लेकिन तुम्हारे साथ नहीं जाऊँगी। मैं राम की पत्नी हूँ। वे महाबलशाली हैं। तुम्हें उनकी शक्ति का अनुमान नहीं है।


तुम चले जाओ नहीं तो तुम्हारा सर्वनाश हो जाएगा। "रावण ने सीता की बात अनसुनी कर दी। खींचकर उन्हें रथ में बैठा लिया। सीता प्रयास करती रहीं। पर रावण के चंगुल से मुक्त नहीं हो सकी। स्वयं को असहाय पाकर वे विलाप करने लगीं। "हा राम! हा लक्ष्मण! "पुकारती रहीं। रावण का रथ लंका की ओर उड़ चला। मार्ग में वे पशुओं, पक्षियों, पर्वतों, नदियों से कहती जा रही थीं कि कोई उनके राम को बता दे। रावण ने उनका हरण कर लिया है। गिद्धराज जटायु ने सीता का विलाप सुना। उसने ऊँची उडान भरी। रावण के रथ पर हमला कर दिया। वृद्ध गिद्धराज ने रथ क्षत-विक्षत कर दिया। रावण को घायल कर डाला। क्रोध में रावण ने जटायु के पंख काट दिए। जटायु अब उड़ नहीं सकता था। वह सीधे धरती पर आ गिरा। रावण का रथ टूट गया था। उड़ान नहीं भर सकता था। उसने तत्काल सीता को अपनी बाँहों में दबाया और दक्षिण दिशा की ओर उड़ने लगा। सीता को लगा कि अब संभवतः कोई उनकी सहायता नहीं कर पाएगा। उनका बचाव केवल एक ही था। राम को किसी तरह समाचार मिल जाए। उन्होंने अपने आभूषण उतारकर फेंकना प्रारंभ कर दिया। आभूषण वानरों ने उठा लिए। उन्हें आशा थी कि वानरों के पास ये आभूषण देखकर राम समझ जाएंगे। उन्हें पता चल जाएगा कि सीता किस मार्ग से गई हैं। रावण ने सीता को आभूषण फेंकने से नहीं रोका। उसे लगा कि सीता शोक में ऐसा कर रही हैं। कुछ ही समय में रावण लंका पहुँच गया। वह अपने धन-वैभव से सीता को प्रभावित करना चाहता था। उन्हें लेकर वह सीधा अपने अंत: पुर में गया। राक्षसियों को सीता की निगरानी करते रहने को कहा। और बाहर निकल गया। थोड़ी देर में वह फिर लौटा। सीता को घूरते हुए उसने कहा, "सुंदरी! मैं तुम्हें एक वर्ष का समय देता हूँ। निर्णय तुम्हें करना है। मेरी रानी बनकर लंका में राज करोगी या विलाप करते हुए जीवन बिताओगी। "सीता बार-बार रावण को धिक्कारती रहीं। राम का गुणगान करती रहीं। रावण को क्रोध आ गया, "तुम्हारा राम यहाँ कभी नहीं पहुँच सकता। तुम्हें कोई नहीं बचा सकता। तुम्हारी रक्षा केवल मैं कर सकता हूँ। मुझे स्वीकार करो और लंका में सुख से रहो।"


"पापी रावण! राम तुझे अपनी दृष्टि से जलाकर राख कर सकते हैं। उनकी शक्ति देवता भी स्वीकार करते हैं। मैं उस राम की पत्नी हूँ, जिसके तेज और पराक्रम के आगे कोई नहीं ठहर सकता। तेरा सारा वैभव मेरे लिए अर्थहीन है। तूने पाप किया है। राम के हाथों तेरा अंत निश्चित है। "राम की इतनी प्रशंसा सुनकर रावण कुछ चिंतित हो गया। उसने सोचा, खर-दूषण को मारने वाला अवश्य शक्तिशाली होगा। उसने तत्काल अपने आठ सबसे बलिष्ठ राक्षसों को बुलाया कहा, “तुम लोग पंचवटी जाओ। राम और लक्ष्मण वहीं रहते हैं। उनका एक-एक समाचार मुझे मिलना चाहिए। दोनों पर निगरानी रखो। मौका मिलते ही उन्हें मार डालो। "उधर, सीता को पाने के लिए रावण ने अपनी योजना बदली। उन्हें अंत:पुर से निकालकर अशोक वाटिका में बंदी बना दिया गया। पहरा कड़ा कर दिया गया। राक्षसों-राक्षसियों को स्पष्ट निर्देश थे, "सीता को किसी तरह का शारीरिक कष्ट न हो। इसके मन को दु:ख पहुँचाओ। अपमानित करो। लेकिन सीता को कोई हाथ न लगाए।"
रावण ने सब कुछ किया पर सीता का मन नहीं बदला। वे बार-बार राम का नाम लेती थीं। शेरों के बीच हिरणी की तरह बैठी रहती थीं। डरी-सहमी। रो-रोकर दिन काट रही थीं। सोने के हिरण ने उन्हें सोने की लंका में पहुँचा दिया था। यहाँ से उन्हें राम ही बचा सकते थे।

दंडक वन में दस वर्ष | बाल रामकथा |वाल्मीकि रामायण | VALMIKI RAMAYAN | BAL RAMKADHA | DANDAK VAN MAI DAS VARSH

दंडक वन में दस वर्ष 
 बाल रामकथा 
वाल्मीकि रामायण 

भरत अयोध्या लौट चुके थे। नगरवासी भी। सेना धूल उड़ाती हुई वापस जा चुकी थी। कोलाहल थम गया था। दो दिन बाद चित्रकूट की परिचित शांति लौट आई थी। पक्षियों की चहचहाहट फिर सुनाई पड़ने लगी थी। हिरण कुलाचे भरते हुए बाहर निकल आए थे। राम पर्णकुटी के बाहर एक शिलाखंड पर बैठे थे। एकदम अकेले। विचारमग्न। कुछ सोचते हुए। चित्रकूट अयोध्या से केवल चार दिन की दूरी पर था। लोगों का आना-जाना लगा रहता। वे प्रश्न पूछते। राय माँगते। यह राजकाज में हस्तक्षेप की तरह होता। चित्रकूट सुंदर - सुरम्य था। शांत था। पर राम वहाँ से दूर चले जाना चाहते थे। उन्होंने मन बना लिया। चित्रकूट में न ठहरने का। इसका एक कारण और था। वहाँ रहकर तपस्या करने वाले ऋषि-मुनियों का निर्णय। राम-लक्ष्मण ने उस वन से राक्षसों का सफ़ाया कर दिया था। अब तपस्या में कोई बाधा नहीं थी। लेकिन मुनिगण वन छोड़ना चाहते थे। कुछ राक्षस मायावी थे। जब-तब आ धमकते थे। यज्ञ में बाधा डालते थे। तीनों वनवासी मुनि अत्रि से विदा लेकर चल पड़े। दंडक वन की ओर। चित्रकूट छोड़ दिया। दंडकारण्य घना था। पशु-पक्षियों और वनस्पतियों से परिपूर्ण। इस वन में अनेक तपस्वियों के आश्रम थे। लेकिन राक्षस भी कम नहीं थे। वे ऋषि-मुनियों को कष्ट देते थे। अनुष्ठानों में विघ्न डालकर। राम को देखकर मुनिगण बहुत प्रसन्न हुए। मुनियों ने राम का स्वागत करते हुए कहा, “आप उन दुष्ट मायावी राक्षसों से हमारी रक्षा करें। आश्रमों को अपवित्र होने से बचाएँ। "सीता दैत्यों के संहार के संबंध में दूसरी तरह सोच रही थीं। वे चाहती थीं कि राम अकारण राक्षसों का वध न करें। उन्हें न मारें, जिन्होंने उनका कोई अहित नहीं किया है। राम ने उन्हें समझाया, “सीते! राक्षसों का विनाश ही उचित है। वे मायावी हैं। मुनियों को कष्ट पहुँचाते हैं। इसीलिए मैंने ऋषियों की रक्षा की प्रतिज्ञा की है।"


राम, लक्ष्मण और सीता दंडकारण्य में दस वर्ष रहे। स्थान और आश्रम बदलते हुए। वे क्षरभंग मुनि के आश्रम पहुंचे। आश्रम में बहुत कम तपस्वी बचे थे। सभी निराश थे। उन्होंने राम को हड्डियों का ढेर दिखाकर कहा, "राजकुमार! ये ऋषियों के कंकाल हैं, जिन्हें राक्षसों ने मार डाला है। अब यहाँ रहना असंभव है। "सुतीक्ष्ण मुनि ने भी राम को राक्षसों के अत्याचार की कहानी सुनाई। मुनि ने ही राम को अगस्त्य ऋषि से भेंट करने की सलाह दी। विंध्याचल पार करने वाले वह पहले ऋषि थे। मुनि ने राम को गोदावरी नदी के तट पर जाने को कहा। उस स्थान का नाम पंचवटी था। वनवास का शेष समय दोनों राजकुमारों और सीता ने वहीं बिताया। पंचवटी के मार्ग में राम को एक विशालकाय गिद्ध मिला। जटायु। सीता उसका स्वरूप देखकर डर गईं । लक्ष्मण ने उसे मायावी राक्षस समझा। वे धनुष उठा ही रहे थे कि जटायु ने कहा, “हे राजन! मुझसे डरो मत। मैं तुम्हारे पिता का मित्र हूँ। वन में तुम्हारी सहायता करूँगा। आप दोनों बाहर जाएँगे तो सीता की रक्षा करूँगा। "राम ने जटायु को धन्यवाद दिया। उन्हें प्रणाम करके आगे बढ़ गए।


पंचवटी में लक्ष्मण ने बहुत सुंदर कुटिया बनाई। मिट्टी की दीवारें खड़ी की। बाँस के खंभे लगाए। कुश और पत्तों से छप्पर डाला। कुटिया ने उस मनोरम पंचवटी को और सुंदर बना दिया। कुटी के आसपास पुष्पलताएँ थीं। हिरण घूमते थे। मोर नाचते थे। इस बीच राम राक्षसों का निरंतर संहार करते रहे। वे जब भी आश्रमों पर आक्रमण करते, राम-लक्ष्मण उन्हें मार देते। उन्होंने सीता को पकड़ लेने वाले राक्षस विराध को मारा। वन से राक्षसों का अस्तित्व लगभग मिटा दिया। तपस्वी शांति से तप करने लगे। एक दिन राम, लक्ष्मण और सीता कुटी के बाहर बैठे हुए थे। लता-कुंजों को निहारते। उनके सौंदर्य पर मुग्ध होते। तभी लंका के राजा रावण की बहन शूर्पणखा वहाँ आई। राम को देखकर वह उन पर मोहित हो गई। उसने स्वयं को पानी में देखा। विकृत चेहरा। मुँह पर झुर्रियाँ। वह बूढ़ी थी पर राम के मोह में आसक्त। उन्हें पाना चाहती थी। उसने माया से सुंदर स्त्री का रूप बना लिया। शूर्पणखा राम के पास गई। उनसे बोली, "हे रूपराज! मैं तुम्हें नहीं जानती। पर तुमसे विवाह करना चाहती हूँ। तुम मेरी इच्छा पूरी करो। मुझे अपनी पत्नी स्वीकार करो। "राम ने मुसकराकर लक्ष्मण की ओर देखा। अपना परिचय दिया। सीता की ओर संकेत करते हुए कहा, “ये मेरी पत्नी हैं। मेरा विवाह हो चुका है। "राम शूर्पणखा को पहचान गए थे। फिर भी उन्होंने उसका परिचय पूछा। शूर्पणखा ने झूठ नहीं बोला। सच-सच बताया कि वह रावण और कुंभकर्ण की बहन है और अविवाहित है। राम के मना करने के बाद वह लक्ष्मण के पास गई। लक्ष्मण ने कहा, आने से तुम्हें कुछ नहीं मिलेगा, देवी! मैं तो राम का दास हूँ। मुझसे विवाह करके तुम दासी बन जाओगी। "लक्ष्मण ने शूर्पणखा को पुनः राम के पास भेज दिया। दोनों भाइयों के लिए यह खेल हो गया। शूर्पणखा उनके बीच भागती रही। क्रोध में आकर उसने सीता पर झपट्टा मारा। सोचा कि राम इसी के कारण विवाह नहीं कर रहे हैं। लक्ष्मण तत्काल उठ खड़े हुए। तलवार खींची और उसके नाक-कान काट लिए। खून से लथपथ शूर्पणखा वहाँ से रोती-बिलखती भागी। अपने भाई खर और दूषण के पास। वे उसके सौतेले भाई थे। उसी वन में रहते थे।


शूर्पणखा की दशा देखकर खर-दूषण के क्रोध की सीमा न रही। उन्होंने तत्काल चौदह राक्षस भेजे। शूर्पणखा उनके साथ गई। राम जानते थे कि राक्षस बदला लेने अवश्य आएँगे। वे तैयार थे। सीता को उन्होंने सुरक्षित स्थान पर भेज दिया। लक्ष्मण के साथ। राक्षस राम के सामने नहीं टिक सके। देखते ही देखते उन्होंने सबको ढेर कर दिया। शूर्पणखा ने एक पेड़ के पीछे से यह दृश्य देखा। राम के पराक्रम से वह चकित थी। उसका मोह और बढ़ गया। साथ ही क्रोध भी बढ़ा। वह फुफकारती। इस बार खर-दूषण राक्षसों की पूरी सेना के साथ चले। खर ने देखा कि आसमान काला पड़ गया। घोड़े स्वयं धरती पर गिरकर मर गए। आकाश में गिद्ध मँडराने लगे। ये अमंगल के संकेत थे। पर वह रुका नहीं। आगे बढ़ता गया। घमासान युद्ध हुआ। अंत में विजय राम की हुई। खर-दूषण सहित उनकी सेना धराशायी हो गई। कुछ पिछलग्गू राक्षस बचे। वे जान बचाकर वहाँ से भाग निकले। भागने वालों में एक राक्षस का नाम अकंपन था। वह सीधे रावण के पास गया। लंकाधिपति को उसने पूरा विवरण बताया। अकंपन ने कहा , "राम कुशल योद्धा हैं। उनके पास विलक्षण शक्तियाँ हैं। उन्हें कोई नहीं मार सकता। इसका एक ही उपाय है। सीता का अपहरण। इससे उनके प्राण स्वयं ही निकल जाएँगे। "रावण सीता-हरण के लिए तैयार हो गया। वह महल से चला। रास्ते में उसकी भेंट मारीच से हुई। ताड़का के पुत्र से। ताड़का का वध राम ने पहले ही कर दिया था। मारीच क्रोधित था। पर राम की शक्ति से परिचित था। उसने रावण को सीता-हरण के लिए मना किया। समझाया। कहा, "ऐसा करना विनाश को आमंत्रण देना है। "रावण ने मारीच की बात मान ली। चुपचाप लंका लौट गया। थोड़ी ही देर में शूर्पणखा लंका पहुंची। विलाप करती हुई। चीखती-चिल्लाती। रावण को पूरी घटना की जानकारी थी लेकिन उसने शूर्पणखा को सुना। वह रावण को धिक्कार रही थी। फटकार रही थी। उसके पौरुष को ललकारते हुए शूर्पणखा ने कहा, "तेरे महाबली होने का क्या लाभ? तेरे रहते मेरी यह दुर्गति? तेरा बल किस दिन के लिए है? तू किसी को मुँह दिखाने लायक नहीं रह गया है। "शूर्पणखा ने राम-लक्ष्मण के बल की प्रशंसा की। सीता को अतीव सुंदरी बताया।


कहा कि उसे लंका के राजमहल में होना चाहिए। शूर्पणखा बोली, “मैं सीता को तुम्हारे लिए लाना चाहती थी। मैंने उन्हें बताया कि मैं रावण की बहन हूँ। क्रोध में लक्ष्मण ने मेरे नाक-कान काट लिए। "रावण फिर मारीच के पास गया। खर-दूषण की मृत्यु से वह कुछ घबराया हुआ था। रावण ने मारीच से मदद माँगी। मारीच चाहता था कि रावण सीता-हरण का विचार छोड़ दे। इस बार रावण ने उसकी नहीं सुनी। उसे डाँटा और आज्ञा दी, "मेरी मदद करो। "मारीच जानता था कि दोबारा राम के सामने पड़ने पर वह मारा जाएगा। राम उसे नहीं छोड़ेंगे। रावण मारीच के मन की बात भाँप गया। उसने क्रोध में भरकर कहा, "वहाँ जाने पर हो सकता है राम तुम्हें मार दें। लेकिन न जाने पर मेरे हाथों तुम्हारी मृत्यु निश्चित है।" विवश होकर मारीच को रावण का आदेश मानना पड़ा। रथ पर बैठकर रावण और मारीच पंचवटी पहुँचे। कुटी के निकट आकर मायावी मारीच ने सोने के हिरण का रूप धारण कर लिया। कुटी के आसपास घूमने लगा। रावण एक पेड़ के पीछे छिपा था। उसने तपस्वी का वेश धारण कर लिया था।


सीता उस हिरण पर मुग्ध हो गईं। उन्होंने राम से उसे पकड़ने को कहा। राम को हिरण पर संदेह था। वन में सोने का हिरण? लक्ष्मण बड़े भाई की बात से सहमत थे। पर सीता के आग्रह के आगे उनकी एक न चली। सीता की प्रसन्नता के लिए राम हिरण के पीछे चले गए। उन्होंने सोचा, "वन में इतने समय के प्रवास के दौरान सीता ने कभी कुछ नहीं माँगा। उनकी यह इच्छा अवश्य पूरी करनी चाहिए। "कुटी से निकलते समय राम ने लक्ष्मण को बुलाया। सीता की रक्षा करने का आदेश दिया। कहा, "मेरे लौटने तक तुम उन्हें अकेला मत छोड़ना। "लक्ष्मण ने सिर झुकाकर उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली। सीता कुटी में थीं। लक्ष्मण धनुष लेकर बाहर खडे हुए।

शनिवार, 8 मई 2021

चित्रकूट में भरत | बाल रामकथा |वाल्मीकि रामायण | CHITRAKUT MAI BHARAT | BAL RAMKADHA | VALMIKI RAMAYAN

चित्रकूट में भरत 
 बाल रामकथा 
वाल्मीकि रामायण 

भरत केकय राज्य में थे। अपनी ननिहाल में। अयोध्या की घटनाओं से सर्वथा अनभिज्ञा लेकिन वे चिंतित थे। उन्होंने एक सपना देखा था। पर उसका अर्थ पूरी तरह नहीं समझ पा रहे थे। संगी-साथियों के साथ बातचीत में उन्होंने कहा, "मैं नहीं जानता कि उसका अर्थ क्या है? पर सपने से मुझे डर लगने लगा है। मैंने देखा कि समुद्र चंद्रमा धरती पर गिर पड़े। वृक्ष सूख गए। एक राक्षसी पिता को खींचकर ले जा रही है। वे रथ पर बैठे हैं। रथ गधे खींच रहे हैं।" जिस समय भरत मित्रों को अपना सपना सुना रहे थे, ठीक उसी समय अयोध्या से घुड़सवार दूत वहाँ पहुँचे। घुड़सवारों ने छोटा रास्ता चुना था। जल्दी पहुँचने के लिए। भरत को संदेश मिला। वे तत्काल अयोध्या जाने के लिए तैयार हो गए। ननिहाल में भरत का मन नहीं लग रहा था। उचट गया था। वे अयोध्या पहुँचने को उतावले थे। केकयराज ने भरत को विदा किया। सौ रथों और सेना के साथ। उन्हें घुड़सवारों से अधिक समय लगा। लंबा रास्ता पकड़ना पड़ा। सेना और रथ खेतों से होकर नहीं जा सकते थे। वे आठ दिन बाद अयोध्या पहुंचे। नदी-पर्वत लाँघते। थके हुए। और चिंतिता ने अयोध्या नगरी को दूर से देखा। नगर उन्हें सामान्य नहीं लगा। बदला-बदला सा था। अनिष्ट की आशंका उनके मन में और गहरी हो गई। "यह मेरी अयोध्या नहीं है? क्या हो गया है इसे? "उन्होंने पूछा। “सड़कें सूनी हैं। बाग-बगीचे उदास हैं। सब लोग कहाँ गए? वह तुमुलनाद कहाँ है? पक्षी भी कलरव नहीं कर रहे हैं। इतनी चुप्पी क्यों?" किसी ने भरत के प्रश्नों का उत्तर नहीं दिया।

नगर पहुँचते ही भरत सीधे राजभवन गए। महाराज दशरथ के प्रासाद की ओर। महाराज वहाँ नहीं थे। फिर वे कैकेयी के महल की ओर बढ़े। माँ ने आगे बढ़कर पुत्र को गले लगा लिया। परंतु भरत की आँखें पिता को ढूँढ रहीं थीं। उन्होंने माँ से पूछा। "पुत्र! तुम्हारे पिता चले गए हैं।

वहाँ, जहाँ एक दिन हम सबको जाना है। उनका निधन हो गया। "भरत यह सुनते ही शोक में खूब गए। पछाड़ खाकर गिर पड़े। पिलाप करने लगे। माँ कैकेयी ने उन्हें उठाया। ढाढ़स बंधाया। कहा, " उठो पुत्र! यशस्वी कुमार शोक नहीं करते। तुम्हारा इस प्रकार दु:खी होना उचित नहीं है। राजगुणों के विरुद्ध है। अपने को संभालो। "क्या से क्या हो गया! भरत यह मानकर चल रहे थे कि पिता राज्याभिषेक की तैयारियों में व्यस्त होंगे। सब कुछ उलटा हो गया। "उन्होंने मेरे लिए कोई संदेश दिया?" भरत ने माँ से पूछा। "नहीं, अंतिम समय में उनके मुँह से केवल तीन शब्द निकले। हे राम! हे सीते! हे लक्ष्मण! तुम्हारे लिए कुछ नहीं कहा।" भरत व्याकुल थे। विकलता बढ़ती ही जा रही थी। वह तुरंत राम के पास जाना चाहते थे। "महाराज ने उन्हें वनवास दे दिया है। चौदह वर्ष के लिए। सीता और लक्ष्मण भी राम के साथ गए हैं। "कैकेयी ने भरत का मन पढ़ते हुए कहा। वह जानती थीं कि भरत यहाँ से सीधे राम के पास ही जाएंगे। "परंतु वनवास क्यों? भ्राता राम से कोई अपराध हुआ? "

"राम ने कोई अपराध नहीं किया। महाराज ने उन्हें दंड भी नहीं दिया। इसके लिए मैंने महाराजा दशरथ से प्रार्थना की थी। मुझे तुम्हारे हित में यही उचित लगा। मैं तुम्हारा अहित नहीं देख सकती थी, "कैकेयी ने कहा। वरदान की पूरी कथा सुनाते हुए उन्होंने कहा, "उठो पुत्र! राजगद्दी संभालो। अयोध्या का निष्कंटक राज्य अब तुम्हारा है।"

भरत अपना क्रोध रोक नहीं सके। चीख पडे, तुमने क्या किया, माते! ऐसा अनर्थ! घोर अपराध! अपराधिनी हो तुम। वन तुम्हें जाना चाहिए था, राम को नहीं। मेरे लिए यह राज अर्थहीन है। पिता को खोकर। भाई से बिछड़कर। नहीं चाहिए मुझे ऐसा राज्य। "इस बीच मंत्रीगण और सभासद भी वहाँ आ गए। भरत बोलते रहे, "तुमने पाप किया है, माते! इतना साहस कहाँ से आया तुममें? किसने तुम्हारी बुद्धि भ्रष्ट की? उलटा पाठ किसने पढ़ाया? यह अपराध अक्षम्य है। मैं राजपद नहीं ग्रहण करूँगा। तुमने ऐसा सोचा कैसे? "सभासदों की ओर मुड़ते हुए भरत ने हाथ जोड़कर' आप भी सुन लें। मेरी माँ ने जो किया है, उसमें मेरा कोई हाथ नहीं है। मैं राम की सौगंध खाकर कहता हूँ। मैं राम के पास जाऊँगा। उन्हें मनाकर लाऊंगा। प्रार्थना करूंगा कि वे गद्दी संभालें। मैं दास बनकर रहूंगा।" भरत बहुत उत्तेजित हो गए थे। स्वयं पर नियंत्रण नहीं रख सके। बोलते-बोलते उनकी साँस उखड़ने लगी। वे चकराकर धरती पर गिर पड़े।

सुध-बुध लौटी तो भरत रानी कौशल्या के महल की ओर चल पड़े। उनसे लिपटकर बच्चों की तरह बिलखकर रोए। उनके चरणों में गिर पड़े। कौशल्या आहत थीं। उन्होंने कहा, "पुत्र, तुम्हारी मनोकामना पूरी हुई। तुम जो चाहते थे, हो गया। राम अब जंगल में हैं। अयोध्या का राज तुम्हारा है। मुझे बस एक दुख है। कैकेयी ने राज लेने का जो तरीका अपनाया वह अनुचित था। निर्मम था। तुम राज करो पुत्र, पर मुझ पर एक दया करो। मुझे मेरे राम के पास भिजवा दो। "भरत ने रानी कौशल्या से क्षमा माँगी। सफ़ाई दी। रानी कैकेयी के व्यवहार पर ग्लानि व्यक्त की। कहा, "राम मेरे प्रिय अग्रज हैं। मैं उनका अहित सोच भी नहीं सकता। मैं निरपराध हूँ। "कौशल्या ने भरत को क्षमा कर दिया। उन्हें गले से लगा लिया। भरत सारी रात फूट-फूटकर रोते रहे।

सुबह तक शत्रुघ्न को पता चल गया था कि कैकेयी के कान किसने भरे। मंथरा अयोध्या के घटनाक्रम से घबरा गई थी। छिप गई। कुछ दिनों से उसे किसी ने नहीं देखा। भरत और शत्रुघ्न राम को वापस लाने पर मंत्रणा कर रहे थे। तभी शत्रुघ्न की दृष्टि, बचकर निकलती मंथरा पर पड़ी। उन्होंने लपककर उसके बाल पकड़ कर भरत के सामने लाए। भरत दासी की भूमिका बताई। शत्रुघ्न उसे जान से मार देने पर उद्यत थे। भरत ने बीच-बचाव किया। मुनि वशिष्ठ अयोध्या का राजसिंहासन रिक्त नहीं देखना चाहते थे। खाली सिंहासन के खतरों से वे परिचित थे। उन्होंने सभा बुलाई। भरत और शत्रुघ्न को आमंत्रित किया। भरत से कहा, "वत्स! तुम राजकाज सँभाल लो। पिता के निधन और बड़े भाई के वन-गमन के बाद यही उचित है। "भरत ने महर्षि का आग्रह अस्वीकार कर दिया। बोले, "मुनिवर, यह राज्य राम का है। वही इसके अधिकारी हैं। मैं यह पाप नहीं कर सकता। हम सब वन जाएंगे। और राम को वापस लाएंगे। "वन जाने के लिए सभी तैयार थे। भरत ने सबके मन की बात कही थी। सबकी इच्छा थी कि राम अयोध्या लौट आएं। अगली सुबह भरत सभी मंत्रियों और सभासदों के साथ वन के लिए चले। गुरु वशिष्ठ साथ थे। नगरवासी भी थे। अयोध्या की चतुरंगिणी सेना तो थी ही। राम तब तक गंगा पार कर चित्रकूट पहुंच गए थे। वहाँ एक आश्रम था। महर्षि भरद्वाज का। गंगा-यमुना के संगम पर। राम आश्रम में नहीं रहना चाहते थे। ताकि महर्षि को असुविधा न हो। महर्षि ने उन्हें एक पहाड़ी दिखाई। सुंदर स्थान। सुरम्य दृश्य। पर्णकुटी वहीं बनाई गई। भरत को सूचना मिल गई थी। वे चित्रकूट ही आ रहे थे। पूरे दल-बल के साथ। सेना के चलने से आसमान धूल अट गया। हर ओर कोलाहल। वे शृंगवेरपुर पहुँचे। निषादराज गुह को सेना देखकर कुछ संदेह हुआ। कहीं राजमद में आकर भरत राम पर आक्रमण करने तो नहीं जा रहे हैं? सही स्थिति पता चली तो उन्होंने भरत की अगवानी की। गंगा पार करने के लिए देखते-देखते पाँच सौ नावें जुटा दी। रास्ते में मुनि भरद्वाज का आश्रम पड़ा। उन्होंने भरत को राम का समाचार दिया। वह मार्ग दिखाया, जिधर से राम गए। वह पहाड़ी दिखाई, जहाँ राम ने पर्णकुटी बनाई। अयोध्यावासियों ने रात आश्रम में ही बिताई। इस संतोष के साथ कि राम अब दूर नहीं है।

आगे जंगल बना था। सेना चली तो वन में खलबची मच गई। जानवर इधर-उधर भागने लगे। पक्षियों ने अपना बसेरा छोड़ दिया। छोटी वनस्पतियों सेना के पांव तले कुचल गईं। बड़े वृक्ष थरथरा उठे। राम और सीता पर्णकुटी में थे। लक्ष्मण पहरा दे रहे थे। कोलाहल उन्होंने भी सुना। वे एक ऊँचे पेड़ पर देखने के लिए कि है। लक्ष्मण ने देखा कि विराट सेना चली आ रही है। सेना का ध्वज जाना पहचाना था। अयोध्या की सेना थी। वे उत्तर की ओर से आगे बढ़ रहे थे। लक्ष्मण ने पेड़ से ही चीखकर कहा, "भैया, भरत सेना के साथ इधर आ रहे हैं। लगता है वे हमें मार डालना चाहते हैं। ताकि एकछत्र राज कर सकें। "राम कुटी से बाहर आए। उन्होंने लक्ष्मण को समझाया। “भरत हम पर हमला नहीं करेगा। कभी नहीं। वह हम लोगों से भेंट करने आ रहा होगा, "राम ने कहा। "भैंट के लिए सेना के साथ आने का क्या औचित्य? दो भाइयों के मिलन में सेना का क्या काम? "लक्ष्मण आश्वस्त नहीं थे। वे सेना पर आक्रमण करना चाहते थे। राम ने उन्हें रोक दिया।
"वीर पुरुष धैर्य का साथ कभी नहीं छोड़ते। कुछ समय प्रतीक्षा करो। इस प्रकार का उतावलापन उचित नहीं है। "भरत ने सेना पहाड़ी के नीचे रोक दी। नगरवासियों से भी वहीं ठहरने को कहा। कोलाहल थम गया। उसकी जगह पुनः वन की नैसर्गिक शांति ने ले ली। भरत ने पहाड़ी को प्रणाम किया। शत्रुघ्न को साथ लेकर नंगे पाँव ऊपर चढ़े। पाँवों की गति अचानक बढ़ गई। भाई से मिलने की उत्कंठा में। वे और प्रतीक्षा नहीं कर सकते थे। पहाड़ी पर दूर से उन्हें एक छवि दिखी। वह राम थे। शिला पर बैठे हुए। पास ही सीता और लक्ष्मण बैठे थे। भरत दौड़ पड़े। राम के चरणों में गिर पड़े। उनके मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला। शत्रुघ्न ने भी राम की चरण वंदना की। बोले वे भी नहीं। उन्होंने दोनों को उठाकर सीने से लगा लिया। सबकी आँखों में आँसू थे। भरत साहस नहीं जुटा पा रहे थे। बड़े भाई को यह सूचना देने का कि पिता दशरथ नहीं रहे। “एक दु:खद समाचार है, भ्राता!" बहुत कठिनाई से उन्होंने कहा। "पिता दशरथ नहीं रहे। आपके आने के छठे दिन। दुख में प्राण त्याग दिए। "राम सन्न रह गए। शोक में डूब गए।

राम को पता चला कि भरत के साथ केवल सेना नहीं आई है। नगरवासी आए है। गुरुजन हैं। माता हैं। कैकेयी भी। राम-लक्ष्मण पहाड़ी से उतरकर उनसे भेंट करने आए। सबसे स्नेह से मिले। सीता को तपस्विनी के वेश में देखकर माताएँ दुःखी हुई। राम ने कैकेयी को प्रणाम किया। सहज भाव से। कैकेयी मन-ही-मन पछता रही थीं। अगले दिन भरत ने राम से राजग्रहण करने की आग्रह किया। समझाया। विनती की कि अयोध्या लौट चलें। राम इसके लिए तैयार नहीं हुए। "पिता की आज्ञा का पालन अनिवार्य है। पिता की मृत्यु के बाद मैं उनका वचन नहीं तोड़ सकता।" भरत को राजकाज समझाया। कहा कि अब तुम ही गद्दी सँभालो। यह पिता की आज्ञा है।

राम-भरत संवाद के समय मंत्री और सभासद वहाँ उपस्थित थे। मुनि वशिष्ठ भी। भरत बार-बार राम से लौटने का आग्रह करते रहे। राम हर बार पूरी विनम्रता और दृढ़ता के साथ इसे अस्वीकार करते रहे। महर्षि वशिष्ठ ने कहा, "राम! रघुकुल की परंपरा में राजा ज्येष्ठ पुत्र ही होता है। तुम्हें अयोध्या लौटकर अपना दायित्व निभाना चाहिए। इसी में कुल का मान है।"

राम ने बहुत संयत स्वर में कहा, "चाहे चंद्रमा अपनी चमक छोड़ दे, सूर्य पानी की तरह ठंडा हो जाए, हिमालय शीतल न रहे, समुद्र की मर्यादा भंग हो जाए, परंतु मैं पिता की आज्ञा से विरत नहीं हो सकता। मैं उन्हीं की आज्ञा से वन आया हूँ। उन्हीं की आज्ञा से भरत को राजगद्दी सँभालनी चाहिए। "राम किसी तरह लौटने को तैयार नहीं हुए। भरत के चेहरे पर निराशा के भाव थे। वे विफल हो गए थे। राम को मनाने में। आप नहीं लौटेंगे तो मैं भी खाली हाथ नहीं जाऊँगा। आप मुझे अपनी खड़ाऊँ दे दें। मैं चौदह वर्ष उसी की आज्ञा से राजकाज चलाऊगा। भरत का यह आग्रह राम ने स्वीकार कर लिया। अपनी खड़ाऊँ दे दी। भरत ने खड़ाऊँ को माथे से लगाया और कहा, "चौदह वर्ष तक अयोध्या पर इन चरण-पादुकाओं का शासन रहेगा।" सबको प्रणाम कर राम ने उन्हें चित्रकूट से विदा किया। राम की चरण पादुकाओं को एक सुसज्जित हाथी पर रखा गया। प्रतिहारी उस पर चवर डुलाते रहे। अयोध्या पहुंचकर भरत ने पादुका पूजन किया। कहा, ये पादुकाएँ राम की धरोहर हैं। मैं इनकी रक्षा करूंगा। इनकी गरिमा को आँच नहीं आने दूंगा। 'भरत अयोध्या में कभी नहीं रुके। तपस्वी के वस्त्र पहने और नंदीग्राम चले गए। जाते समय उन्होंने कहा, "मेरी अब केवल एक इच्छा है। इन पादुकाओं को उन चरणों में देखें, जहाँ इन्हें होना चाहिए। मैं राम के लौटने की प्रतीक्षा करूँगा। चौदह वर्ष।"


राम का वन-गमन | बाल रामकथा |वाल्मीकि रामायण | RAM VANGAMAN | BAL RAMKADHA | VALMIKI RAMAYAN

राम का वन-गमन
बाल रामकथा
वाल्मीकि रामायण

कोपभवन के घटनाक्रम की जानकारी बाहर किसी को नहीं थी। यद्यपि सभी सारी रात जागे थे। कैकेयी अपनी जिद पर अड़ी हुई। राजा दशरथ उन्हें समझाते हुए। नगरवासी राज्याभिषेक की तैयारी करते हुए। गुरु वशिष्ठ की आँखों में भी नींद नहीं थी। आखिर, राम का अभिषेक था! दिन चढ़ते के साथ चहल-पहल और बढ़ गई। हर व्यक्ति शुभ घड़ी की प्रतीक्षा में। 



महामंत्री सुमंत्र कुछ असहज थे। महर्षि के पास आए। दोनों ने महाराज के बारे में चर्चा की। पिछली शाम से किसी ने महाराज को नहीं देखा था। कुछ लोगों के लिए इसका कारण आयोजन की व्यस्तता थी। महर्षि ने सुमंत्र को राजभवन भेजा। समय तेजी से बीत रहा था। शुभ घड़ी निकट आ रही थी। सारी तैयारियाँ हो चुकी थीं। केवल महाराज का आना शेष था। सुमंत्र तत्काल राजभवन पहुंचे। 

कैकेयी के महल की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए सुमंत्र को एक अनजान डर ने घेर लिया। अंदर पहुंचे। देखा कि महाराजा पलंग पर पड़े हैं। बीमार। दीनहीन। सुमंत्र का मन भांपते हुए कैकेयी ने कहा, "चिंता की कोई बात नहीं है, मंत्रिवर। महाराज राज्याभिषेक के उत्साह में रातभर जागे हैं। निकलने से पूर्व राम से बात करना चाहते हैं।" 
"कैसी बात?" सुमंत्र ने पूछा। 
"मैं नहीं जानती। अपने मन की बात वे राम को ही बताएँगे। आप उन्हें बुला लाइए।" 



दशरथ ने बहुत क्षीण स्वर में राम को बुलाने की आज्ञा दी। सुमंत्र के मन में कई तरह की आशंकाएँ थीं। पर वे उन्हें टालते रहे। राम के निवास बाहर भारी भीड़ थी। लक्ष्मण भी वहीं थे। भवन को सजाया गया था। उसकी चमक-दमक देखने योग्य थी। सुमंत्र को देखकर कोलाहल बढ़ गया। लोगों के लिए यह एक संकेत था। राज्याभिषेक के लिए राम को आमंत्रित करने का। सुमंत्र ने कहा, "राजकुमार, महाराज ने आपको बुलाया है। आप मेरे साथ ही चलें।"


कुछ ही पल में राम वहाँ पहुँच गए। लक्षण साथ थे। दोनों भाई विस्मित थे। लोग जय जयकार करने लगे। पुष्पवर्षा होने लगी। राजकुमार समझ नहीं पा रहे थे कि महाराज उन्हें अचानक क्यों बुलाया। लोग समझ रहे थे कि राम राज्याभिषेक के लिए जा रहे हैं। 

महल में पहुंचकर राम ने पिता को प्रणाम किया। फिर माता कैकयी को। राम को देखते ही राजा दशरथ बेसुध हो गए। उनके मुँह से एक हलकी-सी आवाज निकली, "राम" उन्हें होश आया तब भी वे कुछ बोल नहीं सका।

थोड़ी देर तक चुप्पी रही। असहज सन्नाटा। कोई कुछ नहीं बोला तो राम ने पिता से पूछा, "क्या मुझसे कोई अपराध हुआ है? कोई कुछ बोलता क्यों नहीं? आप ही बताइए, माते?" 


"महाराज दशरथ ने मुझे एक बार दो वरदान दिए थे। मैंने कल रात वही दोनों वर मांगे, जिससे वे पीछे हट रहे हैं। यह शारत्र सम्मत नहीं है। रघुकुल की नीति के विरुद्ध है। "कैकेयी ने बोलना जारी रखा, "मैं चाहती हूँ कि राज्याभिषेक भरत का हो और तुम चौदह वर्ष वन में रहो। महाराज यही बात तुमसे नहीं कह पा रहे थे।"

राम संशय में रहे। उन्होंने ढुढता से कहा, "पिता का वचन अवश्य पूरा होगा। भरत को राजगदी दी जाए। मैं आज ही वन चला जाऊंगा।"

राम की शांत और सधी हुई वाणी सुनकर कैकेयी के चेहरे पर प्रसन्नता छा गई। उनकी मनोकामना पूर्ण हुई। राजा दशरथ चुपचाप सब कुछ देख रहे थे। स्पंदनहीन। कैकेयी की और देखते हुए उनके मुंह से बस एक शब्द निकला धिक्कार।

कैकेयी के महल से निकलकर राम सीधे अपनी माँ के पास गए। उन्होंने माता कौशल्या को कैकेयी-भवन का विवरण दिया। और अपना निर्णय सुनाया। राम वन जाएंगे। कौशल्या यह सुनकर सुध खो बैठीं। लक्ष्मण अब तक शांत थे। पर क्रोध से भरे हुए। राम ने समझाया और उनसे वन जाने की तैयारी के लिए कहा। 


कौशल्या का मन था कि राम को रोक लें। वन न जाने दें। राजगद्दी छोड़ दें। पर वह अयोध्या में रहें। उन्होंने कहा, "पुत्र! यह राजाज्ञा अनुचित है। उसे मानने की आवश्यकता नहीं है। "राम ने उन्हें नम्रता से उत्तर दिया, यह राजाज्ञा नहीं. पिता की आज्ञा है। उनकी आज्ञा का उल्लंघन मेरी शक्ति से परे है। आप मुझे आशीर्वाद दें।"

लक्ष्मण से राम का संवाद जारी रहा। राम ने वन-गमन को भाग्यवश आया उलटफेर कहा। लक्ष्मण इससे सहमत नहीं थे। वे इसे कायरों का जीवन मानते थे। उन्होंने राम से कहा, आप बाहुबल से अयोध्या का राजसिंहासन छीन लें। देखता हूँ कौन विरोध करता है।" 

"अधर्म का सिंहासन मुझे नहीं चाहिए। मैं वन जाऊँगा। मेरे लिए तो जैसा राजसिंहासन, वैसा ही वन।" 

कौशल्या ने स्वयं को संभाला। ठठी और राम को गले लगा लिया। वे राम के साथ वन जाना चाहती थीं। राम ने मना कर दिया। कहा कि वृद्ध पिता को आपके सहारे की अधिक आवश्यकता है। कौशल्या ने राम को विदा करते हुए कहा, “जाओ पुत्र! दसों दिशाएँ तुम्हारे लिए मंगलकारी हों। मैं तुम्हारे लौटने तक जीवित रहूंगी।' 


कौशल्या-भवन से निकलकर राम सीता के पास गए। सारा हाल बताया। विदा माँगी। माता-पिता की आयु का उल्लेख किया। उनकी सेवा करने का आग्रह किया। कहा, “प्रिये! तुम निराश मत होना। चौदह वर्ष के बाद हम फिर मिलेंगे।" 

राम के वन-गमन का समाचार तब तक सीता के पास नहीं पहुंचा था। राम को देखकर कुछ आशंका हुई। अनिष्ट की। राम ने विदा मांगी तो सीता व्याकुल हो गई। क्रोधित भी हुई। निर्णय पर प्रतिवाद किया। राम नहीं माने तो सीता ने उनके साथ जंगल जाने का प्रस्ताव रखा। सीता ने कहा, "मेरे पिता का आदेश है कि मैं छाया की तरह हमेशा आपके साथ रहूं।" अंततः राम को उनकी बात माननी पड़ी। तभी लक्ष्मण भी वहाँ आ गए। वह भी साथ जाने को तैयार थे। राम ने उन्हें इसकी स्वीकृति दे दी। शीघ्र तैयारी करने को कहा। 

राम चाहते थे कि सीता वन न जाएँ। अयोध्या में रहें। वे इसकी अनुमति दे चुके थे। फिर भी उन्होंने एक और प्रयास किया। "सीते! वन का जीवन बहुत कठिन है। न रहने का ठीक स्थान, न भोजन का ठिकाना। कठिनाइयाँ कदम-कदम पर। तुम महलों में पली हो। ऐसा जीवन कैसे जी सकोगी?" सीता ने उत्तर नहीं दिया। मुसकरा दीं। उन्हें पता था कि राम अपने दिए वचन से पलट नहीं सकते।


राम वन जा रहे हैं। यह समाचार पूरे नगर में फैल चुका था। नगरवासी दशरथ और कैकेयी को धिक्कार रहे थे। कुछ देर पहले तक जहाँ उत्सव की तैयारियाँ थी, वहाँ उदासी ने घर कर लिया। सड़कें गीली थीं। लोगों के आँसुओं से। सब की इच्छा थी कि राम-सीता वन न जाएँ। वे उन्हें रोकना चाहते थे। पर बेबस थे। 

राम, सीता और लक्ष्मण जंगल जाने से पहले पिता का आशीर्वाद लेने गए। महाराज दशरथ दर्द से कराह रहे थे। तीनों रानियां वहीं थीं। मंत्री आसपास थे। मंत्रीगण रानी कैकेयी को अब भी समझा रहे थे। क्षुब्ध थे पर तर्क का साथ नहीं छोड़ना चाहते थे। ज्ञान, दर्शन, नीति-रीति, परंपरा। सबका हवाला दिया। कैकेयी अड़ी रहीं। 

राम ने कक्ष में प्रवेश किया तो दशरथ में जीवन का संचार हुआ। वे उठकर गए। उन्होंने कहा, "पुत्र! मेरी मति मारी गई लिए विवश हूँ। पर तुम्हारे ऊपर कोई बंधन नहीं है। मुझे बंदी बना लो और राज सँभालो। यह राजसिंहासन तुम्हारा है। केवल तुम्हारा। 

"पिता के वचनों ने राम को झकझोर दिया। वे दु:खी हो गए। पर उन्होंने नीति का साथ नहीं छोड़ा।“ आतरिक पीड़ा आपको ऐसा कहने पर विवश कर रही है। मुझे राज्य का लोभ नहीं है। मैं ऐसा नहीं कर सकता। आप हमें आशीर्वाद देकर विदा करें। विदाई का दु:ख सहन करना कठिन है। इसे और न बढ़ाएँ।'

इसी बीच रानी कैकेयी ने राम, लक्ष्मण और सीता को वल्कल वस्त्र दिए। राम ने राजसी वस्त्र उतार दिए। तपस्वियों के वस्त्र पहने। सीता को तपस्विनी के वेश में देखन सबसे अधिक दुखदायी था। महर्षि वरिष्ठ अब तक शांत थे। उन्हें क्रोध आ रखा। उन्होंने कहा, सीता वन जाएगी तो सब अयोध्यवासी उसके साथ जाएंगे। भरत सूनी अयोध्या पर राज करेंगे। यहाँ कोई नहीं होगा। पशु-पक्षी भी नहीं।"

एक बार फिर राम ने सबसे अनुमति माँगी। आगे-आगे राम उनके पीछे सीता। उनके पीछे लक्ष्मण। महल के ठीक बाहर मंत्री सुमंत्र ऱथ लेकर खड़े थे। रथ पर चढ़कर राम ने कहा, “महामंत्री, रथ तेज़ चलाएँ। नगरवासी रथ के पीछे दौड़े। राज दशरथ और माता कौशल्या भी पीछे-पीछे गए। सब रो रहे थे। सबकी आँखों में आँसू थे। पुरुष, महिलाएँ, बूढ़े, जवान, बच्चे। मीलों तक नंगे पाँव दौड़ते रहे। राम यह दृश्य देखकर विचलित हो गये। भावुक भी। उनसे यह देखा नहीं जा रहा था। उन्होंने सुमंत्र से रथ को और गति से हाँकने को कहा। ताकि लोग हार जाएँ। थककर पीछे छूट जाएँ। घर लौट जाएँ।



राजा दशरथ लगातार रथ की दिशा में नजरें गड़ाए रहे। खड़े रहे, जब तक रथ आँखों से ओझल नहीं हो गया। रथ दिखना बंद हुआ तो वे धरती पर गिर पड़े। रथ दिनभर दौड़ता रहा। वन अभी दूर था। तमसा नदी के तट तक पहुँचते-पहुंचते शाम हो गई। वनवासियों ने रात वहीं बिताई। अगली सुबह वे दक्षिण दिशा की ओर चले। हरे-भरे खेतों के बीच से गोमती नदी पारकर राम-सीता और लक्ष्मण सई नदी के तट पर पहुंचे। महाराज दशरथ के राज्य की सीमा वहीं समाप्त होती थी। राम ने मुड़कर अपनी जन्मभूमि को देखा। उसे प्रणाम किया। कहा, "हे जननी! "अब चौदह वर्ष बाद ही तुम्हारे दर्शन कर सकूँगा।"

शाम होते-होते वे गंगा के किनारे पहुँच गए। शृंगवेरपुर गाँव में। निषादराज गुह ने उनका स्वागत किया। राम ने रात वहीं विश्राम किया। गुहराज के अतिथि के रूप में। वन क्षेत्र आ गया था। नदी के उस पार। अगली सुबह राम ने महामंत्री को समझा बुझाकर वापस भेज दिया। दोनों राजकुमारों और सीता ने नाव से नदी पार की। सुमंत्र तट पर खड़े रहे। वनवासियों के उस पार उतरने तक। उसके बाद वे अयोध्या लौट आए।

सुमंत्र का खाली रथ अयोध्या पहुंचा तो लोगों ने उसे घेर लिया। वे राम के बारे में जानना चाहते थे। सुमंत्र बिना कुछ बोले सीधे राजभवन गए। राजा दशरथ कौशल्या-भवन में थे। बेचैन। सुमंत्र की प्रतीक्षा में। उन्होंने कहा, "महामंत्री! राम कहाँ है? सीता कैसी हैं? लक्ष्मण का क्या समाचार है? वे कहाँ रहते हैं? क्या खाते हैं?

सुमंत्र की आँखों में आँसू थे। उन्होंने एक-एक कर महाराज के सभी प्रश्नों का उत्तर दिया। सुमंत्र को पता था कि दशरथ को इन उत्तरों से संतोष नहीं होगा। महाराज की बेचैनी बनी रही। बढ़ती गई। वन-गमन के छठे दिन दशरथ प्राण त्याग दिए। राम का वियोग उनसे सहा नहीं गया।

दूसरे दिन महर्षि वशिष्ठ ने मंत्रिपरिषद् से चर्चा की। सबकी राय थी कि राजगद्दी खाली नहीं रहनी चाहिए। तय हुआ कि भरत को तत्काल अयोध्या बुलाया जाए। घुड़सवार दूत रवाना किए गए। इस निर्देश के साथ कि उन्हें अयोध्या की घटनाओं के संबंध में मौन रहना है।

गुरुवार, 29 अप्रैल 2021

दो वरदान | बाल रामकथा |वाल्मीकि रामायण | DHO VARDAN | BAL RAMKADHA | VALMIKI RAMAYAN

दो वरदान 
 बाल रामकथा 
वाल्मीकि रामायण 

राजा दशरथ के मन में अब एक ही इच्छा बची थी। राम का राज्याभिषेक उन्हें युवराज का पद देना। अयोध्या लौटने के बाद से ही उन्होंने राम को राज-काज में शामिल करना शुरू कर दिया था। राम यह जिम्मेदारी अच्छी तरह निभा रहे थे। उनकी विनम्रता, विद्वत्ता और पराक्रम का लोहा सभी मानते थे। प्रजा उनको चाहती थी। दशरथ केलिए तो वह प्राणों से प्यारे थे। दरबार में राम का सम्मान निरंतर बढ़ रहा था। 
राजा दशरथ वृद्ध हो चले थे। मुनि वशिष्ठ से विचार-विमर्श के बाद एक दिन उन्होंने दरबार में कहा, "मैंने लंबे समय तक राज-काज चलाया। जैसा बन पड़ा। अब मेरे अंग शिथिल हो गए हैं। मैं वृद्ध हो चला हूँ। मैं चाहता हूँ कि यह कार्यभार राम को सौंप दूं। अगर आप सब सहमत हों तो राम को युवराज का पद दे दिया जाए। अगर आपकी राय इससे भिन्न है तो मैं उस पर भी विचार करने को तैयार हूँ।" 


सभा ने तुमुलध्वनि से राजा दशरथ के प्रस्ताव का स्वागत किया। राम की जय-जयकार होने लगी। दशरथ थोड़ी देर तक सुनते रहे। संतोष के साथ। उन्होंने कहा, "शुभ काम में देरी नहीं होनी चाहिए। मेरी इच्छा है कि राम का राज्याभिषेक कल कर दिया जाए।" यह समाचार पलक झपकते पूरे नगर में फैल गया। हर जगह बस यही चर्चा थी। राज्याभिषेक की तैयारियाँ शुरू हो गईं। 
भरत और शत्रुघ्न उस समय अयोध्या में नहीं थे। वह अपने नाना केकयराज के यहाँ गए हुए थे। भरत जब भी अयोध्या लौटने की बात करते, नाना उन्हें रोक लेते। भरत को अयोध्या की घटनाओं की सूचना नहीं थी। उन्हें अपने पिता के निर्णय के संबंध में नहीं पता था। यह जानकारी भी नहीं थी कि अगले दिन राम का राज्याभिषेक होने वाला है। केकय से एक दिन में भरत और शत्रुघ्न का आना संभव नहीं था। 


राजा दशरथ ने इस संबंध में राम से चर्चा की। कहा कि भरत यहाँ नहीं है पर मैं चाहता हूँ कि राज्याभिषेक का कार्यक्रम न रोका जाए। उन्होंने राम से कहा, "जनता ने तुम्हें अपना राजा चुना है। तुम राजधर्म का पालन करना। कुल की मर्यादा की रक्षा अब तुम्हारे हाथ में है। 
"राज्याभिषेक की तैयारियाँ रानी कैकेयी की दासी ने भी देखीं। मंथरा ने। शुरू में उसे इस चहल-पहल का कारण समझ में नहीं आया। उसने इसे कोई अन्य अनुष्ठान समझा। इतनी रौनक! ऐसी सजावट! ऐसा कुछ उसने अन्य अनुष्ठानों में नहीं देखा था। उसे अचंभा हुआ। फिर उसने रानी कौशल्या की दासी से पूछा। उसे तब पता चला कि कल राम का राज्याभिषेक होने वाला है। यह उत्सव उसी के लिए है। 
मंथरा जलभुन गई। राम का राज्याभिषेक उसे षड्यंत्र लगा। कैकेयी के विरुद्ध। वह कैकेयी की दासी थी। बचपन से। कैकेयी का हित उसके लिए सर्वोपरि था। मंथरा उसे अपना हित मानती थी। वह कैकेयी की मुँहलगी थी। रानी कैकेयी भी उसे बहुत मानती थी। 


क्रोध से आगबबूला मंथरा रनिवास की ओर भागी। सीधे कैकेयी के कक्ष में। वह हाँफ रही थी। क्रोध से चेहरा लाल था। भागने के कारण साँस उखड़ रही थी। उसने रानी कैकेयी को सोते हुए देखा।
किसी तरह स्वयं को संभालते हुए मंथरा ने कहा, "अरे मेरी मूर्ख रानी! उठ। तेरे ऊपर भयानक विपदा आने वाली है। यह समय सोने का नहीं है। होश में आओ। विपत्ति का पहाड़ टूटे, इससे पहले जाग जाओ।" रानी कैकेयी नींद से चौंककर उठीं। उन्हें मंथरा की बात समझ में नहीं आई। "बात क्या है? तुम इतना घबराई क्यों हो? सब कुशल तो है?" उन्होंने पूछा।
"कैसा कुशल? कैसा मंगल? सब अमगल होने वाला है। तुम्हारे सुखों का अंत। महाराज दशरथ ने कल राम का राज्याभिषेक करने का निर्णय लिया है। अब राम युवराज होंगे।" 
"यह तो बहुत शुभ समाचार है!" कैकेयी ने प्रसन्नता से अपने गले का हार उतारकर मंथरा को दे दिया।" मैं बहुत प्रसन्न हूँ। राम युवराज पद के लिए हर तरह से योग्य हैं।" 
"रानी! तुम्हारी बुद्धि फिर गई है। मति मारी गई है। सवाल राम की योग्यता का नहीं है। राजा दशरथ के षड्यंत्र का है। तुम्हारे अधिकार छीनने का है, "मंथरा ने हार दूर फेंकते हुए कहा।" यह षड्यंत्र नहीं तो और क्या है? कल सुबह राज्याभिषेक है। भरत को जानबूझकर ननिहाल भेज दिया। समारोह के लिए बुलाया तक नहीं।"


कैकेयी का स्वर उग्र हो गया। उन्होंने मंथरा को डाँटते हुए कहा, "राम के प्रति मेरा अगाध स्नेह है। वह मुझे माँ के समान मानते हैं। तुझे इसमें षड्यंत्र दिखाई देता है? इसमें षड्यंत्र नहीं है। राम के बाद भरत ही राजा बनेंगे। राज सर्वदा ज्येष्ठ पुत्र को ही मिलता है। 
"मंथरा पर इस फटकार का कोई प्रभाव नहीं हुआ। उसके लिए यह दशरथ का षड्यंत्र था। वह रानी कैकेयी के पलंग पर बैठ गई। उनके बहुत निकट। कैकेयी के चेहरे की ओर देखते हुए उसने कहा, "तुम बहुत भोली हो। नादान हो। तुम्हें आसन्न संकट नहीं दिखता। दुःख की जगह प्रसन्नता होती है। इस बुद्धि पर किसी को भी तरस आएगा। समझो रानी! राम राजा बने तो तुम कौशल्या की दासी बन जाओगी। भरत राम के दास हो जाएंगे। वह राजा नहीं बनेंगे। राम के बाद अगला राजा राम का पुत्र होगा। अनर्थ को अर्थ समझने की मूर्खता मत करो, रानी! राम को राज मिला तो वे भरत को देश निकाला दे देंगे। वे भरत को दंड देंगे। इस तिरस्कार से भरत की रक्षा करो, रानी! कोई ऐसा उपाय करो कि राजगद्दी भरत को मिले और राम को जंगल भेज दिया जाए।"
कैकेयी पर मंथरा की बातों का असर होने लगा। उनका सिर चकरा गया। वह पलंग से उठी तो पाँव सीधे नहीं पड़े। आँखों में आंसू थे। मन भारी हो गया। प्रसन्नता की जगह अव्यक्त क्रोध ने ले ली। मंथरा के तर्कों में उन्हें सच्चाई दिखने लगी। 


"तुम्हीं बताओ मैं क्या करूं?" कैकेयी ने आँसू पोंछते हुए मंथरा से कहा। 
मंथरा पलंग से उठी। कैकेयी के पास जाकर खडी हो गई। उसने कहा, "याद रानी! महाराज दशरथ ने तुम्हें दो वरदान दिए थे। दशरथ से अपना वचन पूरा करने को कहो। एक से भरत के लिए राजगद्दी माँग लो। दूसरे से राम को चौदह वर्ष का वनवास। 
"कैकेयी का चेहरा तमतमाया हुआ था। उन्हें मंथरा की बात ठीक लगी। उनके मन में एक प्रश्न अब भी था। यह बात दशरथ से कैसे कहें? उन्हें रनिवास बुलवाएँ या प्रतीक्षा करें। मंथरा ने कैकेयी के मन की बात भाँप ली। उसने कहा, "तुम मैले कपड़े पहनकर कोपभवन चली जाओ। महाराज दशरथ आएँ तो उनकी ओर मत देखो। बात मत करो। तुम उनकी प्रिय रानी हो। तुम्हारा दुःख देख नहीं पाएँगे। बस उसी समय तुम उन्हें पिछली बात याद दिलाना। दोनों वचन माँग लेना।"
"मैं ऐसा ही करूंगी। महाराज का षड्यंत्र सफल नहीं होने दूंगी। "
मंथरा का लक्ष्य पूरा हो गया था। चलते-चलते उसने रानी कैकेयी से कहा, "राम के लिए चौदह वर्ष से कम वनवास मत मांगना। भरत इतने समय में राज-काज संभाल लेंगे। जब तक राम लौटेंगे, लोग उन्हें भूल चुके होंगे। अब जल्दी करो, रानी! समय बहुत कम है। 


"रानी कैकेयी कोपभवन चली गईं। मंथरा रनिवास से निकल गई। 
दिनभर की गहमागहमी के बाद महाराज दशरथ को रानियों की याद आई। तुरंत रनिवास की ओर चल पड़े। उन्हें शुभ समाचार देने। सबसे पहले वह कैकेयी के कक्ष की ओर मुड़े। कैकेयी वहाँ नहीं थीं। प्रतिहारी से पूछा। पता चला कि वे कोपभवन में हैं। दशरथ को चिंता हुई। कैकेयी कोपभवन में! परंतु क्यों? क्या इसलिए कि उन्हें अब तक सूचना नहीं मिली। "मैं उसे अवश्य मना लूँगा," दशरथ ने सोचा। 
दशस्थ कोपभवन का दृश्य देखकर हैरान हो गए। उन्हें कुछ समझ में नहीं आया। कैकेयी जमीन पर लेटी हुई थीं। बाल बिखरे हुए। गहने कक्ष में बिखरे हुए। कपड़े मैले।" 
तुम्हें क्या दु:ख है? क्या हुआ है तुम्हें? मुझे बताओ। अस्वस्थ हो? राजवैद्य को बुलाऊँ?" दशरथ ने कई सवाल पूछे। कोई उत्तर नहीं मिला। कैकेयी रोती रहीं। 
"तुम मेरी सबसे प्रिय रानी हो। मैं तुम्हें प्रसन्न देखना चाहता हूँ। तुम्हारी खुशी के लिए मैं कुछ भी कर सकता हूँ। कुछ भी। धरती आसमान एक कर सकता हूँ।" दशरथ ने कैकेयी को मनाने का बहुत प्रयास किया। उत्तर उन्हें फिर भी नहीं मिला। 
दशरथ भी भूमि पर बैठ गए। विनती करते रहे। हाँ, "मै बीमार हूँ"  कैकेयी ने कहा, अपनी बीमारी के संबंध में बताऊँगी। लेकिन पहले आप एक वचन दें। मैं जो माँगें, उसे पूरा करेंगे।"
राजा ने तत्काल हामी भर दी। कहा, “मैं राम की सौगंध खाकर कहता हूँ। तुम्हारी हर इच्छा पूरी करूँगा।" 
महाराज दशरथ ने राम की सौगंध ली तो कैकेयी उठकर बैठ गईं। 
“आप मुझे वे दोनों वरदान दीजिए, जिसका संकल्प आपने वर्षों पहले रणभूमि में लिया था।" 
महाराज दशरथ ने हामी भरी।
"कल सुबह राज्याभिषेक भरत का हो, राम का नहीं," कैकेयी ने कहा। दशरथ भौचक रह गए। उन पर वज्रपात-सा हुआ। थोड़ा रुककर कैकेयी बोली, "राम को चौदह वर्ष का वनवास हो।"
दशरथ का चेहरा सफ़ेद पड़ गया। अवाक रह गए। सिर चकराने लगा। वे मूच्छित होकर गिर पड़े। 
कुछ देर में राजा को होश आया। कैकेयी की ओर देखा। बड़े कातर भाव से बोले, "यह तुम क्या कह रही हो? मुझे विश्वास नहीं होता कि मैंने सही सुना है। "कैकेयी अड़ी रहीं। दशरथ कैकेयी की माँग को अस्वीकार करते रहे। अनर्थ बताते रहे। तब कैकेयी ने अंतिम हथियार चलाया। 
"अपने वचन से पीछे हटना रघुकुल का अनादर है। आप चाहें तो ऐसा कर सकते हैं। पर तब आप दुनिया को मुँह दिखाने योग्य नहीं रहेंगे। रही मेरी बात। आप वरदान नहीं देंगे तो मैं विष पीकर आत्महत्या कर लूँगी। यह कलंक आपके माथे होगा। 


"राजा दशरथ यह सुन नहीं सके। दोबारा बेहोश हो गए। रातभर बेसुध पड़े रहे। बीच-बीच में होश आता। वह कैकेयी को समझाते। गिड़गिड़ाते, धमकाते, डराते। पर कैकेयी टस-से-मस नहीं हुई। सारी रात इसी तरह बीत गई।

जंगल और जनकपुर | बाल रामकथा |वाल्मीकि रामायण | JANGIL AUR JANAKPUR| BAL RAMKADHA | VALMIKI RAMAYAN

जंगल और जनकपुर
बाल रामकथा 
वाल्मीकि रामायण

राजमहल से निकलकर महर्षि विश्वामित्र सरयू नदी की ओर बढ़े। दोनों राजकुमार साथ थे। उन्हें नदी पार करनी थी। आश्रम पहुँचने के लिए। विश्वामित्र ने अयोध्या के निकट नदी पार नहीं की। दूर तक सरयू के किनारे-किनारे चलते रहे। दक्षिणी तट पर। उसी तट पर, जिस पर अयोध्या नगरी थी।



वे चलते रहे। नदी के घुमाव के साथ-साथ। राजमहल पीछे छूट गया। उसकी आखिरी बस्ती भी निकल गई। चलते-चलते एक तीखा मोड़ आया तो सब कुछ दृष्टि से ओझल हो गया।

राम और लक्ष्मण ने एक बार भी पीछे मुड़कर नहीं देखा। उनकी नजर सामने थी। महर्षि विश्वामित्र के सधे कदमों की ओर। सूरज की चमक धीमी पड़ने लगी। शाम होने को आई। राजकुमारों के चेहरों पर थकान का कोई चिह्न नहीं था। उत्साह था। वे दिन भर पैदल चले थे। और चलने को तैयार थे।

महर्षि अचानक रुके। उन्होंने आसमान पर दृष्टि डाली। चिड़ियों के झुंड अपने बसेरे की ओर लौट रहे थे। आसमान मटमैला-लाल हो गया था। चरवाहे लौट रहे थे। गायों के पैर से उठती धूल में आधे छिपे हुए।

"हम आज रात नदी तट पर ही विश्राम करेंगे, महर्षि ने पीछे मुड़ते हुए कहा। दोनों राजकुमारों के चेहरे के भाव देखते

हुए विश्वामित्र हलका-सा मुसकराए। राम के निकट आते हुए उन्होंने कहा, "मैं तुम दोनों को कुछ विद्याएँ सिखाना चाहता हूँ। इन्हें सीखने के बाद कोई तुम पर प्रहार नहीं कर सकेगा। उस समय भी नहीं, जब तुम नींद में रहो।"


राम और लक्ष्मण नदी में मुँह-हाथ धोकर लौटे। महर्षि के निकट आकर बैठे। विश्वामित्र ने दोनों भाइयों को 'बला-अतिबला' नाम की विद्याएँ सिखाईं। रात में वे लोग वहीं सोए। तिनकों और पत्तों का बिस्तर बनाकर। नींद आने तक महर्षि उनसे बात करते रहे।

सुबह हुई। यात्रा फिर शुरू हुई। मार्ग वही था। सरयू नदी के किनारे-किनारे। चलते-चलते वे एक ऐसी जगह पहुंचे , जहाँ दो नदियां आपस में मिलती थीं। उस संगम की दूसरी नदी गंगा थी। महर्षि अब भी आगे चल रहे थे। लेकिन एक अंतर-आ गया था। राम-लक्ष्मण अब दूरी बनाकर नहीं चलते थे। महर्षि के ठीक पीछे थे ताकि उनकी बातें ध्यान से सुन सकें। रास्ते में पड़ने वाले आश्रमों के बारे में। वहाँ के लोगों के बारे में। वृक्षों- वनस्पतियों के संबंध में। स्थानीय इतिहास उसमें शामिल होता था।

आगे की यात्रा कठिन थी। जंगलों से होकर। उससे पहले उन्हें नदी पार करनी थी। रात में ऐसा करना महर्षि विश्वामित्र को उचित नहीं लगा। तीनों लोग वही रूक गए। संगम पर बने एक आश्रम में। अगली सुबह उन्होंने नाव से गंगा पार की।

नदी पार जंगल था। घना। दुर्गम। सूरज की किरणें धरती तक नहीं पहुँचती थीं, इतना घना। वह डरावना भी था। हर ओर से झींगुरों की आवाज। जानवरों की दहाड़। कर्कश ध्वनियाँ। राम और लक्ष्मण को आश्वस्त करते हुए महर्षि ने कहा, “ये जानवर और वनस्पतियाँ जंगल की शोभा हैं। इनसे कोई डर नहीं है। असली खतरा राक्षसी ताड़का से है। वह यहीं रहती है। तुम्हें वह खतरा हमेशा के लिए मिटा देना है।"

ताड़का के डर से कोई उस वन में नहीं आता था। जो भी आता, ताड़का उसे मार डालती। अचानक आक्रमण कर देती। ठसका डर इतना था कि उस सुंदर वन का नाम 'ताड़का वन' पड़ गया था।



राम ने महर्षि की आज्ञा मान ली। धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाई। और उसे एक बार खींचकर छोड़ा। इतना ताड़का को क्रोधित करने के लिए बहुत था। टॅकार सुनते ही क्रोध से बिलबिलाई ताड़का गरजती हुई राम की ओर दौड़ी। दो बालकों को देखकर उसका क्रोध और भड़क उठा।

जंगल में जैसे तूफ़ान आ गया। विशालकाय पेड़ काँप उठे। पत्ते टूटकर इधर-उधर उड़ने लगे। धूल का घना बादल छा गया। उसमें कुछ दिखाई नहीं पड़ता था। फिर ताड़का ने पत्थर बरसाने शुरू कर दिए। राम ने उस पर बाण चलाए। लक्ष्मण ने भी निशाना साधा। ताड़का बाणों से घिर गई। राम का एक बाण उसके हृदय में लगा। वह गिर पड़ी। फिर नहीं उठ पाई।

विश्वामित्र बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने राम को गले लगा लिया। उन्होंने दोनों राजकुमारों को सौ तरह के नए अस्त्र-शस्त्र दिए। उनका प्रयोग करने की विधि बताई। उनका महत्व समझाया। महर्षि का आश्रम वहाँ से अधिक दूर नहीं था। लेकिन तब तक रात हो चली थी। विश्वामित्र ने वह दूरी अगले दिन तय करने का निर्णय लिया। ताड़का मर चुकी थी। उसका भय नहीं था। तीनों ने रात वहीं बिताई। ताड़का वन में, जो अब पूरी तरह भयमुक्त था। सुबह जंगल बदला हुआ था। अब वह ताड़का वन नहीं था। क्योंकि ताड़का नहीं थी। भयानक आवाजें गायब हो चुकी थीं। पत्तों से गुजरती हवा थी। उसकी सरसराहट का संगीत था। चिड़ियों की चहचहाहट थी। शांति थी। तसवीर बदल गई थी। सिद्धाश्रम का अतिम पड़ाव था-महर्षि का आश्रम। रास्ता छोटा भी था। मनोहारी भी। प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद लेते तीनों लोग जल्दी ही आश्रम पहुंच गए। आश्रमवासियों ने उनकी अगवानी की। अभिनंदन किया। उनकी प्रसन्नता दुगुनी हो गई थी। महर्षि विश्वामित्र के आश्रम लौटने की खुशी। राम-लक्ष्मण के आगमन का सुख! विश्वामित्र यज्ञ की तैयारियों में लग गए। अनुष्ठान प्रारंभ हुआ। आश्रम की रक्षा की जिम्मेदारी राम-लक्ष्मण को सौंपकर महर्षि आश्वस्त थे। अनुष्ठान अपने अंतिम चरण में था। पूरा होने वाला था। कुछ ही दिनों में।


पाँच दिन तक सब ठीक-ठाक चलता रहा। शांति से। निर्विघ्न। लगता था कि राजकुमारों की उपस्थिति ने ही राक्षसों को भगा दिया है। राम और लक्ष्मण ने यज्ञ पूरा होने तक न सोने का निर्णय किया। वे लगातार जागते रहे। चौकस रहे। कमर में तलवार। पीठ पर तुणीर। हाथ में धनुष। प्रत्यंचा चढ़ी हुई। हर स्थिति के लिए तैयार। अनुष्ठान का अंतिम दिन। अचानक भयानक आवाजों से आसमान पर गया। सुबाहु और मारीच ने राक्षसों के दल-बल के साथ आश्रम पर धावा बोल दिया। मारीच क्रोधित था। यज्ञ के अलावा भी। इस बात से कि राम-लक्ष्मण ने उसकी माँ को मारा था। ताड़का को। राम ने राक्षसों का हमला होते ही कार्रवाई की। धनुष उठाया और मारीच को निशाना बनाया। मारीच बाण लगते ही मूच्छित हो गया। बाण के वेग से बहुत दूर जाकर गिरा। समुद्र के किनारे। वह मरा नहीं। जब होश आया तो उठकर दक्षिण दिशा की ओर भाग गया। राम का दूसरा बाण सुबाहु को लगा। उसके प्राण वहीं निकल गए। सुबाहु के मरने पर राक्षस सेना में भगदड़ मच गई। वे चीखते-चिल्लाते भागे। कुछ लक्ष्मण के बाणों का शिकार हुए अन्य जान बचाकर

भाग खड़े हुए। महर्षि विश्वामित्र का अनुष्ठान संपन हुआ। राम ने महर्षि को प्रणाम करते हुए पूछा, "अब हमारे लिए क्या आज्ञा है, मुनिवर?" महर्षि ने राम को गले लगाया। कहा, "हम लोग यहाँ से मिथिला जाएंगे। महाराज जनक के यहाँ। विदेहराज के दरबार में। मैं चाहता हूँ कि तुम दोनों मेरे साथ चलो। उनके आयोजन में हिस्सा लेने। महाराज के पास एक अद्भुत शिव-धनुष है। तुम भी उसे देखो। "राम और लक्ष्मण अगली यात्रा को लेकर उत्साहित थे। नए स्थान देखने और जानने का अवसर! सोन नदी पार कर विश्वामित्र मिथिला की सीमा के पास पहुंचे। अपने शिष्यों और राजकुमारों के साथ। वे गौतम ऋषि के आश्रम से होते हुए नगर में पहुंचे। राजा जनक ने महल से बाहर आकर विश्वामित्र का स्वागत किया। तभी उनकी दृष्टि राजकुमारों पर पड़ी। विदेहराज चकित रह गए। वे स्वयं को रोक नहीं पाए। महर्षि से पूछा, “ये सुंदर राजकुमार कौन हैं? मैं इनके आकर्षण से खिंचता जा रहा हूँ।" "ये राम और लक्ष्मण हैं। महाराज दशरथ के पुत्र। मैं इन्हें अपने साथ लाया हूँ। आपका अद्भुत धनुष दिखाने।"


भाग खड़े हुए। महर्षि विश्वामित्र का अनुष्ठान संपन हुआ। राम ने महर्षि को प्रणाम करते हुए पूछा, "अब हमारे लिए क्या आज्ञा है, मुनिवर? "महर्षि ने राम को गले लगाया। कहा, "हम लोग यहाँ से मिथिला जाएंगे। महाराज जनक के यहाँ। विदेहराज के दरबार में। मैं चाहता हूँ कि तुम दोनों मेरे साथ चलो। उनके आयोजन में हिस्सा लेने। महाराज के पास एक अद्भुत शिव-धनुष है। तुम भी उसे देखो। "राम और लक्ष्मण अगली यात्रा को लेकर उत्साहित थे। नए स्थान देखने और जानने का अवसर! सोन नदी पार कर विश्वामित्र मिथिला की सीमा के पास पहुंचे। अपने शिष्यों और राजकुमारों के साथ। वे गौतम ऋषि के आश्रम से होते हुए नगर में पहुंचे। राजा जनक ने महल से बाहर आकर विश्वामित्र का स्वागत किया। तभी उनकी दृष्टि राजकुमारों पर पड़ी। विदेहराज चकित रह गए। वे स्वयं को रोक नहीं पाए। महर्षि से पूछा, “ये सुंदर राजकुमार कौन हैं? मैं इनके आकर्षण से खिंचता जा रहा हूँ।" "ये राम और लक्ष्मण हैं। महाराज दशरथ के पुत्र। मैं इन्हें अपने साथ लाया हूँ। आपका अद्भुत धनुष दिखाने।"

राम ने सिर झुकाकर गुरु की आज्ञा स्वीकार की। आगे बढ़े। पेटी का ढक्कन खोल दिया। राम ने पहले धनुष देखा फिर महर्षि को। गुरु का संकेत मिलने पर राम ने वह विशाल धनुष सहज ही उठा लिया। यज्ञशाला में उपस्थित सभी लोग हतप्रभ थे। "इसकी प्रत्यंचा चढ़ा दूं, मुनिवर?" राम ने पूछा।" अवश्य। यदि ऐसा कर सकते हो। "विदेहराज चकित थे। राम ने आसानी से धनुष झुकाया। ऊपर से दबाकर प्रत्यंचा खींची। दबाव से धनुष बीच से टूट गया। उसके दो टुकड़े हो गए। बच्चों के खिलौने की तरह। यज्ञशाला में सन्नाटा छा गया। सब चुप थे। एक-दूसरे की ओर देख रहे थे।


सभागार की चुप्पी महाराज जनक ने तोड़ी। उनकी खुशी का ठिकाना न था । उन्हें सीता के लिए योग्य वर मिल गया था। उनकी प्रतिज्ञा पूरी हुई। जनकराज ने कहा, "मुनिवर! आपकी अनुमति हो तो मैं महाराज दशरथ के पास संदेश भेजूं। बारात लेकर आने का निमंत्रण। यह शुभ संदेश उन्हें शीघ्र भेजना चाहिए।" महर्षि की अनुमति से दूत अयोध्या भेजे गए। सबसे तेज चलने वाले रथों से। इस बीच जनकपुर में धूम मच गई। बारात के स्वागत की तैयारियाँ होने लगी। नगर की प्रसन्नता चरम पर थी।

महाराज जनक का संदेश मिलते ही अयोध्या में भी खुशी छा गई। आनन-फानन में बारात तैयार हुई। हाथी, घोड़े, रथ, सेना। बारात को मिथिला पहुंचने में पांच दिन लग गए। जनकपुरी जगमगा रही थी। हर मार्ग पर तोरणद्वार। हर जगह फूलों की चादर। एक-एक कोना सुवासित। हर घर के प्रवेशद्वार पर वंदनवार। एक-एक घर से मंगलगीत। मुख्यमार्ग पर दर्शकों की अपार भीड़। खिड़कियों और छज्जों से झाँकती महिलाएँ। एक नजर राम को देख लें। राम-सीता की जोड़ी दिख जाए। विवाह से ठीक पहले विदेहराज ने महाराज दशरथ से कहा, "राजन! राम ने मेरी प्रतिज्ञा पूरी कर बड़ी बेटी सीता को अपना लिया। मेरी इच्छा है कि छोटी पुत्री उर्मिला का विवाह लक्ष्मण से हो जाए। मेरे छोटे भाई कुशध्वज की भी दो पुत्रियाँ हैं- मांडवी और श्रुतकीर्ति। कृपया उन्हें भरत और शत्रुघ्न के लिए स्वीकार करें। "राजा दशरथ ने यह प्रस्ताव तत्काल मान लिया। विवाह के बाद बारात कुछ दिन जनकपुरी में रुकी। बाराती बहुओं को लेकर अयोध्या लौटे तो रानियों ने पुत्र-वधुओं की आरती उतारी। स्त्रियों ने फूल बरसाए। शंखध्वनि से गलियाँ गँज उठीं। यह आनंदोत्सव लगातार कई दिनों तक चलता रहा।


रविवार, 25 अप्रैल 2021

आश्रम का अनुमानित व्यय | मोहनदास करमचंद गांधी | MAHATMA GANDHI | AASHRAM KA ANUMAANIT VYAY | CBSE | HINDI | CLASS VII

आश्रम का अनुमानित व्यय 
मोहनदास करमचंद गांधी

दक्षिण अफ्रीका से लौटकर गांधी जी ने अहमदाबाद में एक आश्रम की स्थापना की, उसके प्रारंभिक सदस्यों तथा सामान आदि का विवरण इस पाठ में है।

आरंभ में संस्था (आश्रम) में आ चालीस लोग होंगे। कुछ समय में इस संख्या के पचास हो जाने की संभावना है।

हर महीने औसतन दस अतिथियों के आने की संभावना है। इनमें तीन या पाँच सपरिवार होंगे, इसलिए स्थान की व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि परिवारवाले लोग अलग रह सकें और शेष एक साथ।

इसको ध्यान में रखते हुए तीन रसोईघर हों और मकान कुल पचास हजार वर्ग फुट क्षेत्रफल में बने तो सब लोगों के लायक जगह हो जाएगी।

इसके अलावा तीन हजार पुस्तकें रखने लायक पुस्तकालय और अलमारियाँ होनी चाहिए।

कम-से-कम पाँच एकड़ जमीन खेती करने के लिए चाहिए, जिसमें कम से कम तीस लोग काम कर सकें, इतने खेती के औजार चाहिए। इनमें कुदालियों, फावड़ों और खुरपों की जरूरत होगी।

बढ़ईगिरी के निम्नलिखित औजार भी होने चाहिए - पाँच बड़े हथौड़े, तीन बसूले, पाँच छोटी हथौड़ियाँ, दो एरन, तीन बम, दस छोटी-बड़ी छेनियाँ, चार रंदे, एक सालनी, चार केतियाँ, चार छोटी-बड़ी बेधनियाँ, चार आरियाँ, पाँच छोटी-बड़ी संडासियों, बीस रतल कीलें छोटी और बड़ी, एक मोंगरा (लकड़ी का हथौड़ा), मोची के औजार।

मेरे अनुमान से इन सब पर कुल पाँच रुपया खर्च आएगा।

रसोई के लिए आवश्यक सामान पर एक सौ पचास रुपये खर्च आएगा।

स्टेशन दूर होगा तो सामान को या मेहमानों को लाने के लिए बैलगाड़ी चाहिए।

मैं खाने का खर्च दस रुपये मासिक प्रति व्यक्ति लगाता हूँ। मैं नहीं समझता कि हम यह खर्च पहले वर्ष में निकाल सकेंगे। वर्ष में औसतन पचास लोगों खर्च छह हजार रुपये आएगा।

मुझे मालूम हुआ है कि प्रमुख लोगों की इच्छा यह है कि अहमदाबाद में यह प्रयोग एक वर्ष तक किया जाए। यदि ऐसा हो तो अहमदाबाद को ऊपर बताया गया सब खर्च उठाना चाहिए। मेरी माँग तो यह भी है कि अहमदाबाद मुझे पूरी जमीन और मकान सभी दे दे तो बाकी खर्च मैं कहीं और से या दूसरी तरह जुटा लूँगा। अब चूँकि विचार बदल गया है, इसलिए ऐसा लगता है कि एक वर्ष का या इससे कुछ कम दिनों का खर्च अहमदाबाद को उठाना चाहिए। यदि अहमदाबाद एक वर्ष के खर्च का बोझ उठाने के लिए तैयार न हो, तो ऊपर बताए गए खाने के खर्च का इंतजाम मैं कर सकता हूँ। चूँकि मैंने खर्च का यह अनुमान जल्दी में तैयार किया है, इसलिए यह संभव है कि कुछ मदें मुझसे छूट गई हों। इसके अतिरिक्त खाने के खर्च के सिवा मुझे स्थानीय स्थितियों की जानकारी नहीं है। इसलिए मेरे अनुमान में भूलें भी हो सकती हैं।

यदि अहमदाबाद सब खर्च उठाए तो विभिन्न मदों में खर्च इस तरह होगा -

• किराया बंगला और खेत की जमान

• किताबों की अलमारियों का खर्च

• बढ़ई के औजार

• मोची के औजार

चौके का सामान

एक बैलगाड़ी या घोडागाडी

एक वर्ष के लिए खाने का खर्च -

छह हजार रुपया।

मेरा खयाल है कि हमें लुहार और राजमिस्त्री के औजारों की भी जरूरत होगी। दूसरे बहुत से औजार भी चाहिए, किंतु इस हिसाब से मैंने उनका खर्च और शिक्षण - संबंधी सामान का खर्च शामिल नहीं किया है। शिक्षण के सामान में पाँच-छह देशी हथकरघों की आवश्यकता होगी।

मोहनदास करमचंद गांधी

(अहमदाबाद में स्थापित आश्रम का संविधान स्वयं गांधी जी ने तैयार किया था। इस संविधान के मसविदे से पता चलता है कि वह भारतीय जीवन का निर्माण किस प्रकार करना चाहते थे।)

घरेलू सामान

चार पतीले चालीस आदमियों का खाना बनाने के योग्य: दो छोटी पतीलिया दस आदमियों के योग्यः तीन पानी भरने के पतीले या तांबे के कलशे; चार मिट्टी के बड़े; चार तिपाइया; एक कढ़ाई; दस रतल खाना पकाने योग्य; तीन कलछिया; दो आटा गूंधने की परातें; एक पानी गरम करने का बड़ा पतीला; तीन केतलिया; पाच बाल्टिया या नहाने का पानी रखने के बरतन; पाच पतीले के ढक्कन; पाच अनाज रखने के बरतनः तीन तइया; दस थालिया; दस कटोरिया; दस गिलास: दस प्याले; चार कपड़े धोने के टब; दो छलनिया। एक पीतल की छलनी: तीन चक्किया; दस चम्मच; एक करछा, एक इमामदस्ता-मूसली; तीन झाडू, छह कुरसिया: तीन मेजें; छह किताबें रखने की अलमारिया; तीन दवातें: छह काले तख्ते, छह रैक; तीन भारत के नक्शे; तीन दुनिया के नक्शे; दो बंबई अहाते के नक्शे; एक गुजरात का नक्शा; पाच हाथकरणे; बढ़ई के औजार, मोची के औजार; खेती के औजार; चार चारपाइया: एक गाड़ी; पांच लालटेन: तीन कमोड; दस गहे; तीन चैबर पॉट; चार सड़क की बत्तियाँ।

(वैशाख बदी तेरह, मंगलवार 11 मई, 1915)