रविवार, 25 अप्रैल 2021

आश्रम का अनुमानित व्यय | मोहनदास करमचंद गांधी | MAHATMA GANDHI | AASHRAM KA ANUMAANIT VYAY | CBSE | HINDI | CLASS VII

आश्रम का अनुमानित व्यय 
मोहनदास करमचंद गांधी

दक्षिण अफ्रीका से लौटकर गांधी जी ने अहमदाबाद में एक आश्रम की स्थापना की, उसके प्रारंभिक सदस्यों तथा सामान आदि का विवरण इस पाठ में है।

आरंभ में संस्था (आश्रम) में आ चालीस लोग होंगे। कुछ समय में इस संख्या के पचास हो जाने की संभावना है।

हर महीने औसतन दस अतिथियों के आने की संभावना है। इनमें तीन या पाँच सपरिवार होंगे, इसलिए स्थान की व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि परिवारवाले लोग अलग रह सकें और शेष एक साथ।

इसको ध्यान में रखते हुए तीन रसोईघर हों और मकान कुल पचास हजार वर्ग फुट क्षेत्रफल में बने तो सब लोगों के लायक जगह हो जाएगी।

इसके अलावा तीन हजार पुस्तकें रखने लायक पुस्तकालय और अलमारियाँ होनी चाहिए।

कम-से-कम पाँच एकड़ जमीन खेती करने के लिए चाहिए, जिसमें कम से कम तीस लोग काम कर सकें, इतने खेती के औजार चाहिए। इनमें कुदालियों, फावड़ों और खुरपों की जरूरत होगी।

बढ़ईगिरी के निम्नलिखित औजार भी होने चाहिए - पाँच बड़े हथौड़े, तीन बसूले, पाँच छोटी हथौड़ियाँ, दो एरन, तीन बम, दस छोटी-बड़ी छेनियाँ, चार रंदे, एक सालनी, चार केतियाँ, चार छोटी-बड़ी बेधनियाँ, चार आरियाँ, पाँच छोटी-बड़ी संडासियों, बीस रतल कीलें छोटी और बड़ी, एक मोंगरा (लकड़ी का हथौड़ा), मोची के औजार।

मेरे अनुमान से इन सब पर कुल पाँच रुपया खर्च आएगा।

रसोई के लिए आवश्यक सामान पर एक सौ पचास रुपये खर्च आएगा।

स्टेशन दूर होगा तो सामान को या मेहमानों को लाने के लिए बैलगाड़ी चाहिए।

मैं खाने का खर्च दस रुपये मासिक प्रति व्यक्ति लगाता हूँ। मैं नहीं समझता कि हम यह खर्च पहले वर्ष में निकाल सकेंगे। वर्ष में औसतन पचास लोगों खर्च छह हजार रुपये आएगा।

मुझे मालूम हुआ है कि प्रमुख लोगों की इच्छा यह है कि अहमदाबाद में यह प्रयोग एक वर्ष तक किया जाए। यदि ऐसा हो तो अहमदाबाद को ऊपर बताया गया सब खर्च उठाना चाहिए। मेरी माँग तो यह भी है कि अहमदाबाद मुझे पूरी जमीन और मकान सभी दे दे तो बाकी खर्च मैं कहीं और से या दूसरी तरह जुटा लूँगा। अब चूँकि विचार बदल गया है, इसलिए ऐसा लगता है कि एक वर्ष का या इससे कुछ कम दिनों का खर्च अहमदाबाद को उठाना चाहिए। यदि अहमदाबाद एक वर्ष के खर्च का बोझ उठाने के लिए तैयार न हो, तो ऊपर बताए गए खाने के खर्च का इंतजाम मैं कर सकता हूँ। चूँकि मैंने खर्च का यह अनुमान जल्दी में तैयार किया है, इसलिए यह संभव है कि कुछ मदें मुझसे छूट गई हों। इसके अतिरिक्त खाने के खर्च के सिवा मुझे स्थानीय स्थितियों की जानकारी नहीं है। इसलिए मेरे अनुमान में भूलें भी हो सकती हैं।

यदि अहमदाबाद सब खर्च उठाए तो विभिन्न मदों में खर्च इस तरह होगा -

• किराया बंगला और खेत की जमान

• किताबों की अलमारियों का खर्च

• बढ़ई के औजार

• मोची के औजार

चौके का सामान

एक बैलगाड़ी या घोडागाडी

एक वर्ष के लिए खाने का खर्च -

छह हजार रुपया।

मेरा खयाल है कि हमें लुहार और राजमिस्त्री के औजारों की भी जरूरत होगी। दूसरे बहुत से औजार भी चाहिए, किंतु इस हिसाब से मैंने उनका खर्च और शिक्षण - संबंधी सामान का खर्च शामिल नहीं किया है। शिक्षण के सामान में पाँच-छह देशी हथकरघों की आवश्यकता होगी।

मोहनदास करमचंद गांधी

(अहमदाबाद में स्थापित आश्रम का संविधान स्वयं गांधी जी ने तैयार किया था। इस संविधान के मसविदे से पता चलता है कि वह भारतीय जीवन का निर्माण किस प्रकार करना चाहते थे।)

घरेलू सामान

चार पतीले चालीस आदमियों का खाना बनाने के योग्य: दो छोटी पतीलिया दस आदमियों के योग्यः तीन पानी भरने के पतीले या तांबे के कलशे; चार मिट्टी के बड़े; चार तिपाइया; एक कढ़ाई; दस रतल खाना पकाने योग्य; तीन कलछिया; दो आटा गूंधने की परातें; एक पानी गरम करने का बड़ा पतीला; तीन केतलिया; पाच बाल्टिया या नहाने का पानी रखने के बरतन; पाच पतीले के ढक्कन; पाच अनाज रखने के बरतनः तीन तइया; दस थालिया; दस कटोरिया; दस गिलास: दस प्याले; चार कपड़े धोने के टब; दो छलनिया। एक पीतल की छलनी: तीन चक्किया; दस चम्मच; एक करछा, एक इमामदस्ता-मूसली; तीन झाडू, छह कुरसिया: तीन मेजें; छह किताबें रखने की अलमारिया; तीन दवातें: छह काले तख्ते, छह रैक; तीन भारत के नक्शे; तीन दुनिया के नक्शे; दो बंबई अहाते के नक्शे; एक गुजरात का नक्शा; पाच हाथकरणे; बढ़ई के औजार, मोची के औजार; खेती के औजार; चार चारपाइया: एक गाड़ी; पांच लालटेन: तीन कमोड; दस गहे; तीन चैबर पॉट; चार सड़क की बत्तियाँ।

(वैशाख बदी तेरह, मंगलवार 11 मई, 1915)

गुरुवार, 22 अप्रैल 2021

वैज्ञानिक चेतना के वाहक चंद्रशेखर वेंकट रामन् | धीरंजन मालवे | CHANDRASEKHARA VENKATA RAMAN | DHIRANJAN MALVE | CBSE | HINDI | NCERT

वैज्ञानिक चेतना के वाहक चंद्रशेखर वेंकट रामन् 

धीरंजन मालवे


पेड़ से सेब गिरते हुए तो लोग सदियों से देखते आ रहे थे, मगर पीछे छिपे रहस्य को न्यूटन से पहले कोई और समझ नहीं पाया था। ठीक उसी प्रकार विराट समुद्र की नील-वर्णीय आभा को भी असंख्य लोग आदि से देखते आ रहे थे, मगर इस आभा पर पड़े रहस्य के परदे हटाने के हमारे समक्ष उपस्थित हुए सर चंद्रशेखर वेंकट रामन्।


बात सन् 1921 की है, जब रामन् समुद्री यात्रा पर थे। जहाज के डेक पर खड़े होकर नीले समुद्र को निहारना, प्रकृति-प्रेमी रामन् को अच्छा लगता था। वे समुद्र की नीली आभा में घंटों खोए रहते। लेकिन रामन् केवल भावुक प्रकृति-प्रेमी ही नहीं थे। उनके अंदर एक वैज्ञानिक की जिज्ञासा भी उतनी ही सशक्त थी। यही जिज्ञासा उनसे सवाल कर बैठी - 'आखिर समुद्र का रंग नीला ही क्यों होता है? कुछ और क्यों नहीं? ' रामन् सवाल का जवाब ढूँढ़ने में लग गए। जवाब ढूँढ़ते ही वे विश्वविख्यात बन गए।


रामन् का जन्म 7 नवंबर सन् 1888 को तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली नगर में हुआ था। इनके पिता विशाखापत्तनम् में गणित और भौतिकी के शिक्षक थे। पिता इन्हें बचपन से गणित और भौतिकी पढ़ाते थे। इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि जिन दो विषयों के ज्ञान ने उन्हें जगत-प्रसिद्ध बनाया, उनकी सशक्त नींव उनके पिता ने ही तैयार की थी। कॉलेज की पढ़ाई उन्होंने पहले ए.बी.एन. कॉलेज तिरुचिरापल्ली से और फिर प्रेसीडेंसी कॉलेज मद्रास से की। बी.ए. और एम.ए. - दोनों ही परीक्षाओं में उन्होंने काफ़ी ऊँचे अंक हासिल किए।

रामन् का मस्तिष्क विज्ञान के रहस्यों को सुलझाने के लिए बचपन से ही बेचैन रहता था। अपने कॉलेज के जमाने से ही उन्होंने शोधकार्यों में दिलचस्पी लेना शुरू कर दिया था। उनका पहला शोधपत्र फिलॉसॉफिकल मैगजीन में प्रकाशित हुआ था। उनकी दिल का इच्छा तो यही थी कि वे अपना सारा जीवन शोधकार्यों को ही समर्पित कर दें, मगर उन दिनों शोधकार्य को पूरे समय के कैरियर के रूप में अपनाने की कोई खास व्यवस्था नहीं थी। प्रतिभावान छात्र सरकारी नौकरी की ओर आकर्षित होते थे। रामन् भी अपने समय के अन्य सुयोग्य छात्रों की भाँति भारत सरकार के वित्त-विभाग में अफ़सर बन गए। उनकी तैनाती कलकत्ता में हुई।

कलकत्ता में सरकारी नौकरी के दौरान उन्होंने अपने स्वाभाविक रुझान को बनाए रखा। दफ़्तर से फुर्सत पाते ही वे लौटते हुए बटू बाजार आते, जहाँ 'इंडियन एसोसिएशन फॉर द कल्टीवेशन ऑफ़ साइंस' की प्रयोगशाला थी। यह अपने आपमें एक अनूठी संस्था थी, जिसे कलकत्ता के एक डॉक्टर महेंद्रलाल सरकार ने वर्षों की कठिन मेहनत और लगन के बाद खड़ा किया था। इस संस्था का उद्देश्य था देश में वैज्ञानिक चेतना का विकास करना। अपने महान् उद्देश्यों के बावजूद इस संस्था के पास साधनों का नितांत अभाव था। रामन् इस संस्था की प्रयोगशाला में कामचलाऊ उपकरणों का इस्तेमाल करते हुए शोधकार्य करते। यह अपने आपमें एक आधुनिक हठयोग का उदाहरण था, जिसमें एक साधक दफ़्तर में कड़ी मेहनत के बाद बहू बाजार की इस मामूली-सी प्रयोगशाला में पहुँचता और अपनी इच्छाशक्ति के जोर से भौतिक विज्ञान को समृद्ध बनाने के प्रयास करता।


उन्हीं दिनों वे वाद्ययंत्रों की ओर आकृष्ट हुए। वे वाद्ययंत्रों की ध्वनियों के पीछे छिपे वैज्ञानिक रहस्यों की परतें खोलने का प्रयास कर रहे थे। इस दौरान उन्होंने अनेक वाद्ययंत्रों का अध्ययन किया जिनमें देशी और विदेशी, दोनों प्रकार के वाद्ययंत्र थे।

वाद्ययंत्रों पर किए जा रहे शोधकार्यों के दौरान उनके अध्ययन के दायरे में जहाँ वायलिन, चैलो या पियानो जैसे विदेशी वाद्य आए, वहीं वीणा, तानपूरा और मृदंगम् पर भी उन्होंने काम किया। उन्होंने वैज्ञानिक सिद्धांतों के आधार पर पश्चिमी देशों की इस भ्रांति को तोड़ने की कोशिश की कि भारतीय वाद्ययंत्र विदेशी वाद्यों की तुलना में घटिया है। वाद्ययंत्रों के कंपन के पीछे छिपे गणित पर उन्होंने अच्छा-खासा काम किया और अनेक शोधपत्र भी प्रकाशित किए।

उस ज़माने के प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री सर आशुतोष मुखर्जी को इस प्रतिभावान युवक के बारे में जानकारी मिली। उन्हीं दिनों कलकत्ता विश्वविद्यालय में प्रोफेसर का नया पद सृजित हुआ था। मुखर्जी महोदय ने रामन् के समक्ष प्रस्ताव रखा कि वे सरकारी नौकरी छोड़कर कलकत्ता विश्वविद्यालय में प्रोफेसर पद स्वीकार कर लें। रामन् के लिए यह एक कठिन निर्णय था। उस जमाने के हिसाब से वे एक अत्यंत प्रतिष्ठित सरकारी पद पर थे, जिसके साथ मोटी तनख्वाह और अनेक सुविधाएँ जुड़ी हुई थीं। उन्हें नौकरी करते हुए दस वर्ष बीत चुके थे। ऐसी हालत में सरकारी नौकरी छोड़कर कम वेतन और कम सुविधाओंवाली विश्वविद्यालय की नौकरी में आने का फैसला करना हिम्मत का काम था।

रामन् सरकारी नौकरी की सुख-सुविधाओं को छोड़ सन् 1917 में कलकत्ता विश्वविद्यालय की नौकरी में आ गए। उनके लिए सरस्वती की साधना सरकारी सुख-सुविधाओं से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण थी। कलकत्ता विश्वविद्यालय के शैक्षणिक माहौल में वे अपना पूरा समय अध्ययन, अध्यापन और शोध में बिताने लगे। चार साल बाद यानी सन् 1921 में समुद्र-यात्रा के दौरान जब रामन् के मस्तिष्क में समुद्र के नीले रंग की वजह का सवाल हिलोरें लेने लगा, तो उन्होंने आगे इस दिशा में प्रयोग किए, जिसकी परिणति रामन् प्रभाव की खोज के रूप में हुई।

रामन् ने अनेक ठोस रवों और तरल पदार्थों पर प्रकाश की किरण के प्रभाव का अध्ययन किया। उन्होंने पाया कि जब एकवर्णीय प्रकाश की किरण किसी तरल या ठोस रखेदार पदार्थ से गुजरती है तो गुजरने के बाद उसके वर्ण में परिवर्तन आता है। वजह यह होती है कि एकवर्णीय प्रकाश की किरण के फोटॉन जब तरल या ठोस रवे से गुजरते हुए इनके अणुओं से टकराते हैं तो इस टकराव के परिणामस्वरूप वे या तो ऊर्जा का कुछ अंश खो देते हैं या पा जाते हैं। दोनों ही स्थितियाँ प्रकाश के वर्ण (रंग) में बदलाव लाती हैं। एकवर्णीय प्रकाश की किरणों में सबसे अधिक ऊर्जा बैजनी रंग के प्रकाश में होती है। बैजनी के बाद क्रमश: नीले, आसमानी, हरे, पीले, नारंगी और लाल वर्ण का नंबर आता है। इस प्रकार लाल-वर्णीय प्रकाश की ऊर्जा है। एकवर्णीय प्रकाश तरल या ठोस रवों से गुजरते हुए जिस परिमाण में ऊर्जा खोता या पाता है, उसी हिसाब से उसका वर्ण परिवर्तित हो जाता है।


रामन् की खोज भौतिकी के क्षेत्र में एक क्रांति के समान थी। इसका पहला परिणाम तो यह हुआ कि प्रकाश की प्रकृति के बारे में आइंस्टाइन के विचारों का प्रायोगिक प्रमाण मिल गया। आइंस्टाइन के पूर्ववर्ती वैज्ञानिक प्रकाश को तरंग के रूप में मानते थे, मगर आइंस्टाइन ने बताया कि प्रकाश अति सूक्ष्म कणों की तीव्र धारा है। इन अति कणों की तुलना आइंस्टाइन ने बुलेट से की और इन्हें 'फोटॉन' नाम दिया। रामन् के प्रयोगों ने आइंस्टाइन की धारणा का प्रत्यक्ष प्रमाण दे दिया, क्योंकि एकवर्णीय प्रकाश के वर्ण में परिवर्तन यह साफ़तौर पर प्रमाणित करता है कि प्रकाश की किरण तीव्रगामी सूक्ष्म कणों के प्रवाह के रूप में व्यवहार करती है।

रामन् की खोज की वजह से पदार्थों के अणुओं और परमाणुओं की आंतरिक संरचना का अध्ययन सहज हो गया। पहले इस काम के लिए इंफ्रा रेड स्पेक्ट्रोस्कोपी का सहारा लिया जाता था। यह मुश्किल तकनीक है और गलतियों की संभावना बहुत अधिक रहती है। रामन् की खोज के बाद पदार्थों की आणविक और परमाणविक संरचना के अध्ययन के लिए रामन् स्पेक्ट्रोस्कोपी का सहारा लिया जाने लगा। यह तकनीक एकवर्णीय प्रकाश के वर्ण में परिवर्तन के आधार पर, पदार्थों के अणुओं और परमाणुओं की संरचना की सटीक जानकारी देती है। इस जानकारी की वजह से पदार्थों का संश्लेषण प्रयोगशाला में करना तथा अनेक उपयोगी पदार्थों का कृत्रिम रूप से निर्माण संभव हो गया है।

रामन् प्रभाव की खोज ने रामन् को विश्व के चोटी के वैज्ञानिकों की पंक्ति में ला खड़ा किया। पुरस्कारों और सम्मानों की तो जैसे झड़ी-सी लगी रही। उन्हें सन् 1924 में रॉयल सोसाइटी की सदस्यता से सम्मानित किया गया। सन् 1929 में उन्हें 'सर' की उपाधि प्रदान की गई। ठीक अगले ही साल उन्हें विश्व के सर्वोच्च पुरस्कार-भौतिकी में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उन्हें और भी कई पुरस्कार मिले, जैसे रोम का मेत्यूसी पदक, रॉयल सोसाइटी का ह्यूज पदक, फ़िलोडेल्फ़िया इंस्टीट्यूट का फ्रैंकलिन पदक, सोवियत रूस का अंतर्राष्ट्रीय लेनिन पुरस्कार आदि। सन् 1954 में रामन् को देश के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया। वे नोबेल पुरस्कार पानेवाले पहले भारतीय वैज्ञानिक थे। उनके बाद यह पुरस्कार भारतीय नागरिकतावाले किसी अन्य वैज्ञानिक को अभी तक नहीं मिल पाया है। उन्हें अधिकांश सम्मान उस दौर में मिले जब भारत अंग्रेजों का गुलाम था। उन्हें मिलनेवाले सम्मानों ने भारत को एक नया आत्म - सम्मान और आत्म-विश्वास दिया। विज्ञान के क्षेत्र में उन्होंने एक नयी भारतीय चेतना को जाग्रत किया।

भारतीय संस्कृति से रामन् को हमेशा ही गहरा लगाव रहा। उन्होंने अपनी भारतीय पहचान को हमेशा अक्षुण्ण रखा। अंतरराष्ट्रीय प्रसिद्धि के बाद भी उन्होंने अपने दक्षिण भारतीय पहनावे को नहीं छोड़ा। वे कट्टर शाकाहारी थे और मदिरा से सख्त परहेज रखते थे। जब वे नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने स्टॉकहोम गए तो वहाँ उन्होंने अल्कोहल पर रामन् प्रभाव का प्रदर्शन किया। बाद में आयोजित पार्टी में जब उन्होंने शराब पीने से इनकार किया तो एक आयोजक ने परिहास में उनसे कहा कि रामन् ने जब अल्कोहल पर रामन् प्रभाव का प्रदर्शन कर हमें आह्लादित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, तो रामन् पर अल्कोहल के प्रभाव का प्रदर्शन करने से परहेज क्यों?

रामन् का वैज्ञानिक व्यक्तित्व प्रयोगों और शोधपत्र-लेखन तक ही सिमटा हुआ नहीं था। उनके अंदर एक राष्ट्रीय चेतना थी और वे देश में वैज्ञानिक दृष्टि और चिंतन के विकास के प्रति समर्पित थे। उन्हें अपने शुरुआती दिन हमेशा ही याद रहे।

जब उन्हें ढंग की प्रयोगशाला और उपकरणों के अभाव में काफ़ी संघर्ष करना पड़ा था। इसीलिए उन्होंने एक अत्यंत उन्नत प्रयोगशाला और शोध संस्थान की स्थापना की जो बंगलोर में स्थित है और उन्हीं के नाम पर 'रामन् रिसर्च इंस्टीट्यूट' नाम से जानी जाती है। भौतिक शास्त्र में अनुसंधान को बढ़ावा देने के लिए उन्होंने इंडियन जरनल ऑफ फिजिक्स नामक शोध-पत्रिका प्रारंभ की। अपने जीवनकाल में उन्होंने सैकड़ों शोध छात्रों का मार्गदर्शन किया। जिस प्रकार एक दीपक से अन्य कई दीपक जल उठते हैं, उसी प्रकार उनके शोध-छात्रों ने आगे चलकर काफी अच्छा काम किया। उन्हीं में कई छात्र बाद में उच्च पदों पर प्रतिष्ठित हुए। विज्ञान के प्रचार-प्रसार के लिए वे ‘करेंट साइंस’ नामक एक पत्रिका का भी संपादन करते थे। रामन् प्रभाव केवल प्रकाश की किरणों तक ही सिमटा नहीं था। उन्होंने अपने व्यक्तित्व के प्रकाश की किरणों से पूरे देश को आलोकित और प्रभावित किया। उनकी मृत्यु 21 नवंबर सन् 1970 के दिन 82 वर्ष की आयु में हुई।

रामन् वैज्ञानिक चेतना और दृष्टि की साक्षात प्रतिमूर्ति थे। उन्होंने हमें हमेशा ही यह संदेश दिया कि हम अपने आसपास घट रही विभिन्न प्राकृतिक घटनाओं की छानबीन एक वैज्ञानिक दृष्टि से करें। तभी तो उन्होंने संगीत के सुर-ताल और प्रकाश की किरणों की आभा के अंदर से वैज्ञानिक सिद्धांत खोज निकाले। हमारे आसपास ऐसी न जाने कितनी ही चीजें बिखरी पड़ी हैं, जो अपने पात्र की तलाश में हैं। ज़रूरत है रामन् के जीवन से प्रेरणा लेने की और प्रकृति के बीच छुपे वैज्ञानिक रहस्य का भेदन करने की।

बुधवार, 21 अप्रैल 2021

नृत्यांगना सुधा चंद्रन | रामाज्ञा तिवारी | NRITYANGANA SUDHA CHANDRAN | RAMAGNA TIWARI | CBSE | CLASS VII | HINDI

नृत्यांगना सुधा चंद्रन 

रामाज्ञा तिवारी


जीवन के किसी भी क्षेत्र में शिखर तक पहुँचने के लिए दृढ़ इच्छाशक्ति और कठिन परिश्रम की आवश्यकता पड़ती है। कई लोग ऐसे भी हैं जिन शारीरिक अक्षमता के बावजूद संघर्ष किया है और लक्ष्य प्राप्त किया है। ऐसा ही एक नाम है - सुधा चंद्रन। पैर खराब होने के बावजूद वह चोटी की नृत्यांगना बनी।

सुधा चंद्रन की माता श्रीमती थंगम एवं पिता श्री के.डी.चंद्रन की हार्दिक इच्छा थी कि उनकी पुत्री राष्ट्रीय ख्याति की नृत्यांगना बने। इसीलिए चंद्रन दंपत्ति ने सुधा को पाँच वर्ष की अल्पायु में ही मुंबई के प्रसिद्ध नृत्य विद्यालय 'कला-सदन' में प्रवेश दिलवाया। पहले-पहल तो नृत्य विद्यालय के शिक्षकों ने इतनी छोटी उम्र की बच्ची के दाखिले में हिचकिचाहट महसूस की किंतु सुधा की प्रतिभा देखकर सुप्रसिद्ध नृत्य शिक्षक श्री के.एस. रामास्वामी भागवतार ने उसे शिष्या के रूप में स्वीकार कर लिया और सुधा उनसे नियमित प्रशिक्षण प्राप्त करने लगी। जल्द ही सुधा के नृत्य कार्यक्रम विद्यालय के आयोजनों में होने लगे। नृत्य के साथ-साथ, अध्ययन में भी सुधा ने अपनी प्रतिभा दिखाई लेकिन सुधा के स्वप्नों की इंद्रधनुषी दुनिया में एकाएक 2 मई, 1981 को अँधेरा छा गया।

2 मई को तिरूचिरापल्ली से मद्रास जाते समय उनकी बस दुर्घटनाग्रस्त हो गई। इस दुर्घटना में सुधा के बाएँ पाँव की एड़ी टूट गई और दायाँ पाँव बुरी तरह जख्मी हो गया। प्लास्टर लगने पर बायाँ पाँव तो ठीक हो गया किंतु दायीं टाँग में 'गैंग्रीन' (एक प्रकार का कैंसर) हो गया। ऐसे में डॉक्टरों के पास सुधा की दायीं टाँग काट देने के अलावा और कोई रास्ता नहीं था। अंततः दुर्घटना के एक महीने बाद सुधा की दायीं टाँग घुटने के साढ़े सात इंच नीचे से काट दी गई। एक टाँग का कट जाना संभवतः किसी भी नृत्यांगना के जीवन का अंत ही होता। सुधा के साथ भी यही हुआ। सुधा ने लकड़ी के गुटके के पाँव और बैसाखियों के सहारे चलना शुरू कर दिया और मुंबई आकर वह पुनः अपनी पढ़ाई में जुट गई।

इसी बीच सुधा ने मैग्सेसे पुरस्कार विजेता सुप्रसिद्ध कृत्रिम अंग विशेषज्ञ डॉ.पी.सी.सेठी के बारे में सुना। वह जयपुर गई और डॉ.सेठी से मिली। डॉ.सेठी ने सुधा को आश्वस्त किया कि वह दुबारा सामान्य ढंग से चल सकेगी। इस पर सुधा ने पूछा- "क्या मैं नाच सकूँगी?" डॉ.सेठी ने कहा - "क्यों नहीं, प्रयास करो तो सब कुछ संभव है। "डॉ.सेठी ने सुधा के लिए एक विशेष प्रकार की टाँग बनाई जो अल्यूमिनियम की थी और इसमें ऐसी व्यवस्था थी कि वह टाँग को आसानी से घुमा सकती थी। सुधा एक नए विश्वास के और उसने नृत्य का अभ्यास शुरू करना चाहा किंतु इस प्रयास में कटी हुई टाँग से खून निकलने लगा। कोई भी सामान्य व्यक्ति इस तरह की घटना के बाद दुबारा नाचने की हिम्मत कतई नहीं करता किंतु सुधा साधारण मिट्टी की नहीं बनी थी। जल्दी ही उसने अपनी निराशा पर काबू प्राप्त किया और अपने नृत्य प्रशिक्षक को साथ लेकर डॉ.सेठी से पुनः मिली।

डॉ. सेठी ने सुधा के नृत्य प्रशिक्षक से नृत्य हेतु पाँवों की विभिन्न मुद्राओं को गंभीरता से देखा-परखा और एक नयी टौंग बनवाई, जो नृत्य विशेष जरूरतों को ध्यान में रखकर बनाई गई थी। टाँग लगाते समय डॉ . सेठी ने सुधा से कहा- "मैं जो कुछ कर सकता था मैंने कर दिया, अब तुम्हारी बारी है।" 



सुधा ने पुनः नृत्य का अभ्यास प्रारंभ किया। शुरुआत बहुत अच्छी नहीं रही। कटे हुए पाँव के हूँठ से खून रिसने लगा किंतु सुधा ने कड़ा अभ्यास जारी रखा। कठिन अभ्यास से सुधा जल्द ही सामान्य नृत्य मुद्राओं को प्रदर्शित करने में सफल हो गई। 28 जनवरी, 1984 को मुंबई के 'साउथ इंडिया वेलफेयर सोसायटी' के हाल में एक अन्य नृत्यांगना प्रीति के साथ सुधा ने दुबारा नृत्य के सार्वजनिक प्रदर्शन का आमंत्रण स्वीकार कर लिया। यह दिन सुधा की जिंदगी का संभवत : सबसे कठिन दिन था, उस दिन से भी ज्यादा जबकि उसका पाँव काट दिया गया था। सुधा का यह प्रदर्शन बेहद सफल रहा। चहेतों ने उसे देखते-देखते पलकों पर उठा लिया और वह रातों-रात एक ऐतिहासिक महत्त्व की व्यक्तित्त्व हो गई। उसकी अद्भुत जीवन-यात्रा से प्रभावित होकर तेलुगु के फ़िल्मकार ने उसकी जिंदगी को आधार बना कर एक कहानी लिखवाई और 'मयूरी' नाम से तेलुगु में एक फ़िल्म बनाई। अपने पात्र को सुधा ने स्वयं परदे पर जीवंत कर दिया। फ़िल्म को अद्भुत सफलता मिली और इस फ़िल्म में अभिनय के लिए सुधा को भारत के 33 वें राष्ट्रीय फ़िल्म समारोह में विशेष पुरस्कार प्रदान किया गया। 'मयूरी' की सफलता को देखते हुए इसके निर्माता ने यह फ़िल्म हिंदी में भी 'नाचे मयूरी' नाम से प्रदर्शित की और सुधा ने पूरे भारत को अपनी प्रतिभा का मुरीद कर दिया। आज सुधा एक व्यस्त नृत्यांगना ही नहीं, फ़िल्म कलाकार भी है। सुधा को उसके असामान्य साहस और श्रेष्ठ उपलब्धियों के लिए कई पुरस्कार भी प्राप्त हो चुके हैं। 
- रामाज्ञा तिवारी

सोमवार, 19 अप्रैल 2021

ईदगाह | प्रेमचंद | IDGAH | PREMCHAND | STORY | HINDI | NTA | UGC | CBSE | NET

ईदगाह - प्रेमचंद

प्रेमचंद बहुमुखी प्रतिभा संपन्न साहित्यकार थे। प्रेमचंद ने कहानी और उपन्यास दोनों ही लिखे हैं। वे भारत के श्रेष्ठतम कहानीकार और उपन्यासकार के रूप में जानते हैं। ईदगाह मुंशी प्रेमचंद द्वारा लिखित एक प्रसिद्ध कहानी है। इस कहानी में दादी और पोते का मार्मिक प्रेम दर्शाया गया है। इस में कथन व संदर्भ, वातावरण का सजीव चित्रण है। इस में बाल्यावस्था की निर्मल भावनाओं का सुंदर प्रतिबिंब दर्शाया गया है। ईदगाह कहानी बाल मनोविज्ञान पर आधारित कहानी है। इस कहानी में हामिद के मनोभावों और परिस्थितियों का सूक्ष्म चित्रण मिलता है।

कहानी के मुख्य पात्र

हामिद, अमीना, महमूद, मोहसिन, नूरे, सम्मी

रमज़ान के पूरे तीस रोज़ों के बाद आज ईद आयी है। कितना मनोहर, कितना सुहावना प्रभात! वृक्षों पर कुछ अजीब हरियाली है। खेतों में कुछ अजीब रौनक है, आसमान पर कुछ अजीब लालिमा है। आज का सूर्य देखो, कितना प्यारा, कितना शीतल है! मानो संसार को ईद की बधाई दे रहा है! ईदगाह जाने की तैयारियाँ हो रही हैं लड़के सबसे ज्यादा प्रसन्न है। बार-बार जेब से खज़ाना निकालकर गिनते हैं। महमूद गिनता है, एक दो... दस-बारह। उसके पास बारह पैसे हैं। मोहसिन के पास पंद्रह पैसे हैं। इनसे अनगिनत चीजें लाएँगे–खिलौने, मिठाइयाँ, बिगुल, गेंद और न जाने क्या-क्या। और सबसे ज्यादा प्रसन्न है हामिद। वह भोली सूरत का चार-पांच साल का दुबला-पतला लड़का था। उसका पिता गत वर्ष हैजे की भेंट हो गया और माँ न जाने क्यों पीली पड़ती गयी और एक दिन वह भी परलोक सिधार गयी। किसी को पता न चला कि आखिर अचानक यह क्या हुआ।

अब हामिद अपनी दादी अमीना की गोदी में सोता है। दादी अम्मा हामिद से कहती है कि उसके अब्बाजान रुपये कमाने गये हैं। अम्मीजान अल्लाह मियाँ के घर से उसके लिए बहुत-सी अच्छी चीजें लाने गयी हैं। आशा तो बड़ी चीज़ है। हामिद के पाँव में जूते नहीं हैं, सिर पर एक पुरानी टोपी है, जिसका गोटा काला पड़ गया है। फिर भी वह प्रसन्न है। अभागिन अमीना अपनी कोठरी में बैठी रो रही है। आज ईद का दिन है और उसके घर में दाना तक नहीं है। लेकिन हामिद! उसके अंदर प्रकाश है, बाहर आशा की किरण। हामिद भीतर जाकर दादी से कहता है - "तुम डरना नहीं अम्मा, मैं सबसे पहले आऊँगा। बिलकुल न डरना। अमीना का दिल कचोट रहा है। गाँव के बच्चे अपने पिता के साथ जा रहे हैं। हामिद का प्रश्न अमीना के सिवा कौन है? भीड़ में बच्चा कहीं खो गया तो क्या होगा? तीन कोस चलेगा कैसे? पैरों में छाले पड़ जाएँगे।

जूते भी तो नहीं हैं। वह थोड़ी दूर चलकर, उसे गोदी ले लेगी, लेकिन यहाँ सेवइयाँ कौन पकाएगा? पैसे होते तो लौटते लौटते सारी सामग्री जमा करके झटपट बना लेती। यहाँ तो चीजें जमा करते-करते घंटों लगेंगे। गाँव से मेला चला। और बच्चों के साथ हामिद जा रहा था। शहर का दामन आ गया। सड़क के दोनों ओर अमीरों के बगीचे हैं। बड़ी-बड़ी इमारतें- अदालत, कॉलेज, क्लब, घर आदि दिखायी देने लगे। ईदगाह जानेवालों की टोलियाँ नज़र आने लगीं। एक-से-एक भड़कीले वस्त्र पहने हुए हैं। सहसा ईदगाह नज़र आयी और उसी के पास ईद का मेला। नमाज़ पूरी होते ही सब बच्चे मिठाई और खिलौनों की दुकानों पर धावा बोल देते हैं। हामिद दूर खड़ा है। उसके पास केवल तीन पैसे हैं। मोहसिन भिश्ती तो खरीदता है, महमूद सिपाही, नूरे वकील और सम्मी धोबिन। हामिद खिलौनों को ललचाई आँखों से देखता है।

वह अपने आपको समझाता है, “मिट्टी के तो हैं, गिरें तो चकनाचूर हो जाएँ। ”फिर मिठाइयों की दुकानें आती हैं। किसी ने रेवड़ियाँ लीं, किसी ने गुलाबजामुन, किसी ने सोहन हलवा। मोहसिन कहता है, “हामिद, रेवड़ी ले ले, कितनी खुशबूदार है।" हामिद ने कहा, "रखे रहो, क्या मेरे पास पैसे नहीं है? "सम्मी बोला, "तीन ही पैसे तो हैं, तीन पैसे में क्या-क्या लोगे? "हामिद मौन रह गया। मिठाइयों के बाद लोहे की चीज़ों की दुकानें आती हैं। कई चिमटे रखे हुए थे। हामिद को ख्याल आता है, दादी के पास चिमटा नहीं है। तवे से रोटियाँ उतारती हैं तो हाथ जल जाते हैं, अगर चिमटा ले जाकर दादी को दे दें, तो वह कितनी प्रसन्न होंगी। फिर उनकी उँगलियाँ कभी नहीं जलेंगी। दादी अम्मा चिमटा देखते ही दौड़कर मेरे हाथ से ले लेंगी और कहेंगी- "मेरा बच्चा! अम्मा के लिए चिमटा लाया है। हज़ारों दुआएँ देती रहेंगी। फिर पड़ोस की औरतों को दिखाएँगी। सारे गाँव में चर्चा होने लगेगी। हामिद चिमटा लाया है। कितना अच्छा लड़का है। बड़ों की दुआएँ सीधे अल्लाह के दरबार में पहुँचती हैं और तुरंत सुनी जाती हैं। हामिद ने दुकानदार से पूछा, “यह चिमटा कितने का है? "छह पैसे कीमत सुनकर हामिद का दिल बैठ गया। हामिद ने कलेजा मज़बूत करके कहा, " तीन पैसे लोगे? "दुकानदार ने बुलाकर चिमटा दे दिया। हामिद ने उसे इस तरह कंधे पर रखा, मानो बंदूक हो और शान से अकड़ता हुआ संगियों के पास आया। दोस्तों ने मजाक किया, “यह चिमटा क्यों लाया पगले! इसे क्या करेगा? "घर आने पर अमीना हामिद की आवाज सुनते ही दौड़ी और उसे गोद में उठाकर प्यार करने लगीं। सहसा हाथ में चिमटा देखकर वह चौकी। "यह चिमटा कहाँ से लाया?" "मैंने मोल लिया है अम्मा। "कितने पैसे में?" "तीन पैसे दिये। अमीना ने अपने माथे पर हाथ रखा। वह अफ़सोस करती हुई, आह! भरती हुई बोली - “यह कैसा बेसमझ लड़का है कि दोपहर हुई, कुछ खाया न पिया। लाया क्या, चिमटा! सारे मेले में तुझे और कोई चीज़ न मिली, जो यह लोहे का चिमटा उठा लाया?

हामिद ने अपराधी भाव से कहा, “ तुम्हारी उँगलियाँ तवे से जल जाती थीं, यह मुझसे देखा न जाता था अम्मा। इसलिए मैं इसे लिवा लाया। "अमीना का क्रोध तुरंत स्नेह में बदल गया। यह मूक स्नेह था मार्मिक प्रेम था जो रस और स्वाद से भरा। बच्चे में कितना त्याग, कितना सद्भाव और कितना विवेक है। दूसरों को खिलौने लेते और मिठाई खाते देखकर इसका मन कितना ललचाया होगा! वहाँ भी अपनी बुढ़िया दादी की याद बनी रही। अमीना का मन गद्गद् हो गया। आँचल फैलाकर हामिद को दुआएँ देती जातीं और आँसुओं की बड़ी-बड़ी बूंदें गिरानी जाती थीं। हामिद इसका रहस्य क्या समझता!

अवधपुरी में राम | बाल रामकथा |वाल्मीकि रामायण | AVADPURI MAI RAM | BAL RAMKADHA | VALMIKI RAMAYAN

वाल्मीकि रामायण 

बाल रामकथा 

अवधपुरी में राम


अवध यह कथा अवध की है और बहुत पुरानी है। अवध में सरयू नदी के किनारे एक अति सुंदर नगर था अयोध्या। सही अर्थों में दर्शनीय और देखने लायक| भव्यता जैसे उसका दूसरा नाम हो! अयोध्या में केवल राजमहल भव्य नहीं था। उसकी एक-एक इमारत आलीशान थी। आम लोगों के घर भव्य थे। सड़कें चौड़ी थीं। सुंदर बाग-बगीचे। पानी से लबालब भरे सरोवर। खेतों में लहराती हरियाली। हवा में हिलती फ़सलें सरयू की लहरों के साथ खेलती थीं। अयोध्या हर तरह से संपन्न नगरी थी । संपन्नता कोन-अंतरे तक बिखरी हुई। सभी सुखी। सब समृद्रा दुःख और विपन्नता को अयोध्या का पता नहीं मालूम था या उन्हें नगर की सीमा में प्रवेश की अनुमति नहीं थी। पूरा नगर विलक्षण था। अद्भुत और मनोरमा उसे ऐसा होना ही था। वह कोसल राज्य की राजधानी था। राजा दशरथ वहीं रहते थे। उनके राज में दुःख का भला क्या काम? राजा दशरथ कुशल योद्धा और न्यायप्रिय शासक थे। महाराज अज के पुत्र। महाराज रघु के वंशज। रघुकुल के उत्तराधिकारी। रघुकुल की रीति-नीति का प्रभाव हर सुख-समृद्धि लेकर बात-व्यवहार तक। लोग मर्यादाओं का पालन करते थे। सदाचारी थे। पवित्रता और शांति हर जगह थी। नगर में भी। लोगों के मन में भी। राजा दशरथ यशस्वी थे। उन्हें किसी चीज़ की कमी नहीं थी। राज-सुख था। कमी होने का प्रश्न ही नहीं था। लेकिन उन्हें एक दु:ख था। छोटा सा दुःख। मन के एक कोने में छिपा हुआ। वह रह-रहकर उभर आता था। उन्हें सालता रहता था। उनके कोई संतान नहीं थी। आयु लगातार बढ़ती जा रही थी। उनकी तीन रानियाँ थीं कौशल्या, सुमित्रा और कैकेयी। रानियों के मन में भी बस यही एक दुःख था। संतान की कमी। जीवन सूना-सूना लगता था। राजा दशरथ से रानियों की बातचीत प्रायः इसी विषय पर आकर रुक जाती थी। राजा दशरथ की चिंता बढ़ती जा रही थी।


बहुत सोच-विचारकर महाराज दशरथ ने इस संबंध में वशिष्ठ मुनि से चर्चा की। उन्हें पूरी बात विस्तार से बताई। रघुकुल के अगले उत्तराधिकारी के बारे में अपनी चिंता बताई। मुनि वशिष्ठ राजा दशरथ की चिंता समझते थे। उन्होंने दशरथ को यज्ञ करने की सलाह दी। पुत्रेष्टि यज्ञ। महर्षि ने कहा, "आप पुत्रेष्टि यज्ञ करें, महाराज! आपकी इच्छा अवश्य पूरी होगी।" यज्ञ महान तपस्वी ऋष्यशृंग की देखरेख में हुआ। पूरा नगर उसकी तैयारी में लगा हुआ था। यज्ञशाला सरयू नदी के किनारे बनाई गई। यज्ञ में अनेक राजाओं निमंत्रित किया गया। तमाम ऋषि-मुनि पधारे। शंखध्वनि और मंत्रोच्चार के बीच एक-एक कर सबने आहुति डाली। अंतिम आहुति राजा दशरथ की थी। यज्ञ पूरा हुआ। अग्नि के देवता ने महाराज दशरथ को आशीर्वाद दिया। कुछ समय बाद दशरथ की इच्छा पूरी हुई। तीनों रानियाँ पुत्रवती हुईं। महारानी कौशल्या ने राम को जन्म दिया। चैत्र माह की नवमी के दिन। रानी सुमित्रा के दो पुत्र हुए। लक्ष्मण और शत्रुघ्न। रानी कैकेयी के पुत्र का नाम भरत रखा गया। राजमहल में खुशी छा गई। नगर में बधाइयाँ बजने लगी। मंगलगीत गाए गए।


हर ओर खुशी। उत्सव जैसा दृश्य। राजा दशरथ प्रसन्न थे। उनकी मनोकामना पूरी हुई। प्रजा प्रसन्न थी कि दशरथ की चिंता दूर हुई। नगर में बड़ा समारोह आयोजित किया गया। धूमधाम से। आयोजन में दूर-दूर से लोग आए। राजा दशरथ ने सबको पूरा सम्मान दिया। उन्हें कपड़े, अनाज और धन देकर विदा किया। चारों राजकुमार धीरे-धीरे बड़े हुए। वे बहुत सुंदर थे। सुदर्शन। साथ खेलने निकलते तो लोग उन्हें देखते रह जाते। आँखें उनसे हटती नहीं थीं। चारों भाइयों में आपस में बहुत प्रेम था। वे अपने बड़े भाई राम की आज्ञा मानते थे। खेलकूद में लक्ष्मण प्रायः राम के साथ रहते। भरत और शत्रुघ्न की एक अलग जोड़ी थी। और बड़े होने पर राजकुमारों को शिक्षा-दीक्षा के लिए भेजा गया। उन्होंने कुशल और अपनी विद्या में दक्ष गुरुजनों से ज्ञान अर्जित किया। शास्त्रों का अध्ययन किया। शस्त्र-विद्या सीखी। चारों राजकुमार कुशाग्र बुद्धि थे। जल्द ही सब विद्याओं में पारंगत हो गए। राम इसमें सर्वोपरि थे। उनमें कई अन्य गुण भी थे। विवेक, शालीनता और न्यायप्रियता। राजा दशरथ को राम सबसे अधिक प्रिय थे। ज्येष्ठ पुत्र होने के कारण। और इन मानवीय गुणों के कारण भी।


राजकुमार कुछ और बड़े हुए। विवाह योग्य। नगर में इसकी चर्चा होने लगी। महाराज दशरथ भी ऐसा ही चाहते थे। अपनी संतानों के लिए सुयोग्य वधुएँ। परिजनों में चर्चा पहले से ही हो रही थी। बाद में पुरोहितों को भी इसमें शामिल कर लिया गया। अयोध्या का राजमहल। एक दिन ऐसी ही चर्चा चल रही थी। गहन मंत्रणा। तभी एक द्वारपाल घबराया हुआ अंदर आया। उसने सूचना दी कि महर्षि विश्वामित्र पधारे हैं। महाराज दशरथ तत्काल अपना आसन छेड़कर खड़े हो गए। द्वार की ओर बढ़े। महर्षि अगवानी करने। उन्हें लेकर दरबार में आए। विश्वामित्र को ऊँचा आसन दिया गया। विश्वामित्र कभी स्वयं राजा थे। बड़े और बलशाली। बाद में अपना राजपाट छोड़ दिया। संन्यास ग्रहण कर लिया। जंगल चले गए। वहीं उन्होंने अपना आश्रम बनाया। उसे उन्होंने सिद्धाश्रम नाम दिया। महर्षि के स्वागत-सत्कार के बाद दशरथ ने कहा, " महर्षि, आज्ञा दें, मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ। आप अपने मन की बात कहिए। आपकी आज्ञा का पूरी तरह पालन होगा।" "राजन! मैं जो माँगने जा रहा हूँ उसे देना आपके लिए कठिन होगा। "

"आप आज्ञा दीजिए, महर्षि! मैं पूरा करने के लिए तत्पर हूँ। बिलकुल नहीं हिचकूँगा।" "मैं सिद्धि के लिए एक यक्ष कर रहा हूँ। अनुष्ठान लगभग पूरा हो गया है। लेकिन दो राक्षस ठस में बाधा डाल रहे हैं। मैं जानता हूँ कि उन राक्षसों को केवल एक ही व्यक्ति मार सकता है। वह राम हैं। आप अपने ज्येष्ठ पुत्र को मुझे दे दें यज्ञ पूरा हो, "विश्वामित्र ने कहा। दशरथ पर जैसे बिजली गिर पड़ी। वह अचकचा गए। उन्हें उम्मीद ही नहीं थी कि मुनिवर उनसे राम को माँग लेंगे। उनके ज्येष्ठ पुत्र। उनके सबसे प्रिय। दशरथ चिंता में पड़ गए। विश्वामित्र दशरथ की दुविधा समझ रहे थे। उन्होंने कहा, "मैं राम को केवल कुछ दिनों के लिए माँग रहा हूँ। यज्ञ दस दिन में संपन्न हो जाएगा। "महाराज दशरथ दु:खी हो गए। पुत्र-वियोग की आशंका से काँप उठे। दरबार में सन्नाटा छा गया। दशरथ की दशा देखकर मंत्री चिंतित थे। पर चुप थे। महर्षि वशिष्ठ शांत थे। इतने में दशरथ काँप कर बेहोश हो गए। होश आया तो डर ने उन्हें फिर जकड़ लिया। मूच्छित होकर दोबारा गिर पड़े। संज्ञा-शून्य पड़े रहे।


महर्षि विश्वामित्र का क्रोध बढ़ता जा रहा था। दरबार सशंकित था। किसी अनिष्ट की आशंका से। वे कुछ समझ नहीं पा रहे थे। महर्षि और महाराज के बीच संवाद में कुछ बोलना उचित भी नहीं था। मुनि वशिष्ठ चुपचाप आकर महाराज दशरथ के पास खड़े हो गए। थोड़ी देर बाद दशरथ उठे। स्वयं को सँभालते हुए उन्होंने महर्षि से विनती की, "महामुनि! मेरा राम तो अभी सोलह वर्ष का भी नहीं हुआ है। वह राक्षसों से कैसे लड़ेगा? राक्षस मायावी हैं। वह उनका छल-कपट कैसे समझेगा? उन्हें कैसे मारेगा? इससे अच्छा तो यही होगा कि आप मेरी सेना ले जाएँ। मैं स्वयं आपके साथ चलूँ। राक्षसों से युद्ध करूँ।" महर्षि विश्वामित्र ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। क्रोधित थे, पर उसे व्यक्त नहीं कर रहे थे। उन्हें अपने यज्ञ के नियम याद थे। क्रोध करने से यज्ञ खंडित हो जाता। अनुष्ठान अधूरा रह जाता। "मैं राम के बिना नहीं रह सकता, महामुनि! एक पल भी नहीं। आप राम को छोड़कर जो चाहें माँग लें। उसे मत ले जाइए। मैं राम को नहीं दूँगा। बिलकुल नहीं। वह मेरी बुढ़ापे की संतान है। मैं उससे बहुत प्रेम करता हूँ।"

महर्षि का क्रोध भभक उठा। दरबार, मंत्रीगण और ऋषि-मुनि सकते में आ गए। “ आप रघुकुल की रीति तोड़ रहे हैं, राजन। वचन देकर पीछे हट रहे हैं। यह बरताव कुल के विनाश का सूचक है। आप जानते हैं कि मैं स्वयं दुष्ट राक्षसों का संहार कर सकता था। लेकिन मैंने संन्यास ले लिया है। अगर आप राम को नहीं देंगे तो मैं खाली हाथ लौट जाऊँगा।"


बात बिगडती देखकर मुनि वशिष्ठ आगे आये। महाराज दशरथ को समझाया। राम की शक्ति के बारे में। प्रतिज्ञा तोड़ने के संबंध में। महर्षि विश्वामित्र के साथ रहने पर राजकुमार राम को होने वाले लाभ के बारे में। "राजन, आपको अपना वचन पूरा करना चाहिए। रघुकुल की रीति यही है। प्राण देकर भी आपके पूर्वजों ने वचन निभाया है। आप राम की चिंता न करें। महर्षि के होते उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता।" महाराज दशरथ की चिंता कुछ कम हुई। पर मन अब भी खिन्न था। पुत्र-बिछोह का दु:ख सभी तर्कों पर भारी पड़ रहा था। गुरु वशिष्ठ ने कहा, "महाराज, महर्षि विश्वामित्र सिद्ध पुरुष हैं। तपस्वी हैं। अनेक गुप्त विद्याओं के जानकार हैं। वह कुछ सोचकर ही यहाँ आए हैं। राम उनसे अनेक नयी विद्याएँ सीख सकेंगे। आप राम को महर्षि विश्वामित्र के साथ जाने दें। राम को उन्हें सौंप दें।

"दशरथ ने मुनि वशिष्ठ को बात दु:खी मन से स्वीकार कर ली। लेकिन वह राम को अकेले नहीं भेजना चाहते थे। उन्होंने विश्वामित्र से आग्रह किया। कहा कि वे राम के साथ उनके छोटे भाई लक्ष्मण को भी ले जाएँ। महर्षि विश्वामित्र ने महाराज दशरथ का यह आग्रह स्वीकार कर लिया। राम और लक्ष्मण को तत्काल दरबार में बुलाया गया। महाराज दशरथ ने उन्हें अपने निर्णय को सूचना दी। दोनों भाइयों ने उसे सहर्ष स्वीकार कर लिया। सिर झुकाकर। आदर सहित।

इसकी सूचना माता कौशल्या को दी गई। बताया गया कि राम और लक्ष्मण वन जा रहे हैं। महर्षि विश्वामित्र के साथ। नितांत गंभीर माहौल में स्वस्तिवचन हुआ। शंखध्वनि हुई। नगाड़े बजे। महाराज दशरथ ने भावुक होकर दोनों पुत्रों का मस्तक चूमकर उन्हें महर्षि को सौंप दिया। दोनों राजकुमार बिना विलंब किए महर्षि के साथ चल पड़े। बीहड़ और भयानक जंगलों की ओर। विश्वामित्र आगे-आगे चल रहे थे। राम उनके पीछे थे। लक्ष्मण राम से दो कदम पीछे। अपने धनुष सँभाले हुए। पीठ पर तुणीर बाँधे। कमर में तलवारें लटकाए।


रविवार, 18 अप्रैल 2021

राही | कहानी | सुभद्रा कुमारी चौहान | RAHI | SUBHADRA KUMARI CHAUHAN | STORY | HINDI | NTA | UGC | CBSE | NET | देशभक्ति है या सत्ताभक्ति!

'राही' - कहानी 

सुभद्रा कुमारी चौहान 

सुभद्रा कुमारी चौहान हिन्दी की सुप्रसिद्ध कवयित्री और लेखिका थी। राही कहानी सुभद्रा कुमारी चौहान ने अपने कारागार के अनुभवों के ऊपर लिखी है। कारागारों में बीती हुई समय के अनुभवों को इस कहानी के माध्यम से सुभद्रा कुमारी चौहान जी ने पेश किया है।

कहानी के मुख्य पात्र : -

कहानी के केवल दो ही केंद्रीय स्त्री पात्र है एक राही दूसरा अनिता। इस कहानी में स्त्री वेदना की झलक मिलता है।

राही – एक गरीब औरत जिसे चोरी के जुर्म में कैद किया गया था।

अनिता – एक अमीर घर की महिला जो स्वातंत्रता संग्राम में क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण जेल गयी थी।

इन दोनों के बीच के वार्तालाप के साथ ही कहानी भी चलती है।

अब मैं आपके सामने राही कहानी का आदर्श पाठ प्रस्तुत कर रहा हूँ।

*******

तेश नाम क्या है?
राही।
तुझे किस अपराध में सज़ा हुई?
चोरी की थी, सरकार।
चोरी? क्या चुराया था।
नाज की गठरी।
कितना अनाज था?
होगा पाँच-छ: सेर।
और सजा कितने दिन की हैं?
साल भर की।
तो तूने चोरी क्यों की? 
मजदूरी करती तब भी तो दिन भर में तीन-चार आने पैसे मिल जाते!
हमें मजदूरी नहीं मिलती सरकार। हमारी जाति माँगरोरी हैं। हम केवल माँगते-खाते हैं।
और भीख न मिले तो?
तो फिर चोरी करते हैं। उस दिन घर में खाने को नहीं था। बच्चे भूख से तड़प रहे थे। बाजार में बहुत देर तक माँगा। बोझा ढोने के लिए टोकरा लेकर भी बैठी रही। पर कुछ न मिला। सामने किसी का बच्चा रो रहा था, उसे देखकर मुझे अपने भूखे बच्चों की याद आ गई। वहीं पर किसी की जान की गठरी रखी हुई थी। उसे लेकर भागी ही थी कि पुलिसवाले ने पकड़ लिया।

अनिता ने एक ठडी साँस ली। बोली - फिर तूने कहा नहीं कि बच्चे भूखे थे, इसलिए चोरी की। संभव है इस बात से मजिस्ट्रेट कम सज़ा देता।

'हम गरीबों की कोई नहीं सुनता, सरकार! बच्चे आये थे कचहरी में। मैंने सब-कुछ कहा, पर किसी ने नही सुना। राही ने कहा।

'अब तेरे बच्चे किसके पास है? उनका बाप हैं?' अनिता ने पूछा।

राही की आँखों में आँसू आ गए। वह बोली - 'उनका बाप मर गया, सरकार!'

जेल में उसे मारा था और वहीं अस्पताल में वह मर गया। अब बच्चों का कोई नहीं है।

तो तेरे बच्चों का बाप भी जेल में ही मरा। वह क्यों जेल आया था? अनिता ने प्रश्न किया।

उसे तो बिना कसूर के ही पकड़ लिया था, सरकार! 'राही ने कहा - 'ताड़ी पीने को गया था। दो-चार दोस्त भाई उसके साथ थे। मेरे घरवाले का एक वक्त पुलिसवाले से झगड़ा हो गया था, उसी का बदला उसने लिया। 109 में उसका चालान करके साल भर की सजा दिला दी। वहीं वह मर गया।

अनीता ने एक दीर्घ निःश्वास के साथ कहा - अच्छा जा, अपना काम कर। राही चली गई।

अनीता सत्याग्रह करके जेल आई थी। पहिले उसे 'बी क्लास दिया था फिर उसके घरवालों ने लिखा-पढ़ी करके उसे ए क्लास दिलवा दिया।

अनीता के सामने आज एक प्रश्न था। वह सोच रही थी कि देश की दरिद्रता और इन निरीह गरीबों के कष्टों को दूर करने का कोई उपाय नहीं है? हम सभी परमात्मा की संतान हैं। एक ही देश के निवासी। कम-से-कम हम सबको खाने पहनने का समाज अधिकार तो है ही? फिर यह क्या बात है कि कुछ लोग तो बहुत आराम से रहते हैं और कुछ लोग पेट के अन के लिए चोरी करते हैं? उसके बाद विचारक की अदूरदर्शिता के कारण या सरकारी वकील के चातुर्यपूर्ण जिरह के कारण छोटे-छोटे बच्चों की माता जेल भेज दी जाती है। उनके बच्चे भूखों मरने के लिए छोड़ दिये जाते हैं। एक ओर तो यह कैदी है, जो जेल आकर सचमुच जेल जीवन के कष्ट उठाती है और दूसरी ओर है हम लोग जो अपनी देशभक्ति और त्याग का टिढोरा पीटते हुए जेल आते हैं। हमें आमतौर से दूसरे कैदियों के मुकाबिले में अच्छा बरताव मिलता है।

फिर भी हमें संतोष नहीं होता। हम जेल आकर ए और बी क्लास के लिए झगड़ते हैं। जेल आकर ही हम कौन-सा बड़ा त्याग कर देते हैं? जेल में हमें कौन-सा कष्ट रहता है? सिवा इसके कि हमारे माथे पर नेतृत्व की सील लग जाती है। हम बड़े अभिमान से कहते हैं - 'यह हमारी चौथी जेल यात्रा है, यह हमारी पांचवीं जेल यात्रा है। और अपनी जेल यात्रा के किस्से बार-बार सुना-सुनाकर आत्मगौरव अनुभव करते हैं, तात्पर्य यह कि हम जितने बार जेल जा चुके होते हैं, उतनी ही सीढी हम देशभक्ति और त्याग से दूसरों से ऊपर उठ जाते हैं और इसके बल पर जेल से छूटने के बाद, काग्रेस को राजकीय सत्ता मिलते ही, हम मिनिस्टर, स्थानीय संस्थाओं के मेम्बर और क्या-क्या हो जाते है।

अनीता सोच रही थी - कल तक जो खद्दर भी न पहनते थे, बात-बात पर काग्रेस का मजाक उड़ाते थे, कांग्रेस के हाथों में थोड़ी शक्ति आते ही वे काग्रेस भक्त बन गए। खद्दर पहनने लगे। यहाँ तक कि जेल में भी दिखाई पड़ने लगे। वास्तव में यह देशभक्ति है या सत्ताभक्ति!

अनीता के विचारों का ताँता लगा हुआ था। वह दार्शनिक हो रही थी। उसे अनुभव हुआ जैसे कोई भीतर ही भीतर उसे काट रहा हो। अनीता की विचारावल्ली अनीता को ही खाये जा रही थी। उसी बार-बार यह लग रहा था कि उसकी देशभक्ति सच्ची देशभक्ति नहीं वरन् मज़ाक है। उसे आत्मग्लानि हुई और साथ ही साथ आत्मानुभूति भी। अनीता की आत्मा बोल उठी - वास्तव में सच्ची देशभक्ति तो इन गरीबों के कष्ट निवारण में है। ये कोई दूसरे नहीं, हमारी ही भारतमाता की संतानें हैं। इन हज़ारों, लाखों भूखे-नंगे भाई बहिनों की यदि हम कुछ भी सेवा कर सकें, थोड़ा भी कष्ट-निवारण कर सकें तो सचमुच हमने अपने देश की कुछ सेवा की। हमारा वास्तविक देश तो देहातों में ही है। किसानों की दुर्दशा से हम सभी थोड़े बहुत परिचित है, पर इन गरीबों के पास न घर है, न द्वार। अशिक्षा और अज्ञान का इतना गहरा पर्दा इनकी आँखों पर है कि होश संभालते ही माता पुत्री को और सास बहू को चोरी की शिक्षा देती है। और उनका यह विश्वास है कि चोरी करना और भीख माँगना ही उनका काम है। इससे अच्छा जीवन बिताने की वह कल्पना ही नहीं कर सकते। आज यहाँ डेरा डाल के रहे तो कल दूसरी जगह चोरी की। बचे तो बचे, नहीं तो फिर साल दो साल के लिए जेल। क्या मानव जीवन का यही लक्ष्य है? लक्ष्य है भी अथवा नही? यदि नहीं है तो विचारादर्श की उच्च सतह पर टिके हुए हमारे जन-नायकों और सुख-पुरुषों की हमें क्या आवश्यकता? इतिहास, धर्म-दर्शन, ज्ञान-विज्ञान का कोई अर्थ नहीं होता? पर जीवन का लक्ष्य है, अवश्य है। संसार की मृगमरीचिका में हम लक्ष्य को भूल जाते हैं। सतह के ऊपर तक पहुँच पानेवाली कुछेक महान आत्माओं को छोड़कर सारा जन-समुदाय संसार में अपने को खोया हुआ पाता है, उनका कर्त्तव्य का उसे ध्यान नहीं, सत्यासत्य की समझ नहीं, अन्यथा मानवीयता से बढ़कर कौन-सा मानव धर्म है? पतित मानवता को जीवन-दान देने की अपेक्षा भी कोई महत्तर पुण्य है? राही जैसी भोली-भाली किन्तु गुमराह आत्माओं के कल्याण की साधना जीवन की साधना होनी चाहिए। सत्याग्रही की यह प्रथम प्रतिज्ञा क्यों न हो? देशभक्ति का यही मापदंड क्यों न बने? अनीता दिन भर इन्हीं विचारों में डूबी रही। शाम को भी वह इसी प्रकार कुछ सोचते-सोचते सो गई।

रात में उसने सपना देखा कि जेल से छुटकर वह इन्हीं माँगरोरी लोगों के गाँव में पहुंच गई है। वहाँ उसने एक छोटा-सा आश्रम खोल दिया है। उसी आश्रम में एक तरफ छोटे-छोटे बच्चे पढ़ते हैं और स्त्रियाँ सूत काटती है। दूसरी तरफ़ मर्द कपड़ा बुनते हैं और रई ध्रुनकते हैं। शाम को रोज़ उन्हें धार्मिक पुस्तकें पढ़कर सुनाई जाती है और देश में कहाँ क्या हो रहा है, यह सरल भाषा में समझाया जाता है। वही भीख मांगने और चोरी करनेवाले आदर्श ग्रामवासी हो चले है। रहने के लिए उन्होंने छोटे-छोटे घर बना लिए हैं। राही के अनाथ बच्चों को अनीता अपने साथ रखने लगी है। अनीता यही सुख-स्वप्न देख रही थी। रात में वह देर से सोई थी। सुबह सात बजे तक उसकी नीद न खुल पाई। अचानक स्त्री जेलर ने आकर उसे जगा दिया और बोली - आप घर जाने के लिए तैयार हो जाइए। आपके पिता बीमार है। आप बिना शर्त छोड़ी जा रही है। अनीता अपने स्वप्न को सच्चाई में परिवर्तित करने की एक मधुर कल्पना लेकर घर चली गई।

- सुभद्राकुमारी चौहान

ज्योतिबा फुले | सुधा अरोड़ा | सावित्री बाई फुले | JYOTIBA PHULE | SAVITRIBAI PHULE | CBSE | NCERT

ज्योतिबा फुले – सुधा अरोड़ा

यह अप्रत्याशित नहीं है कि भारत के सामाजिक विकास बदलाव के आंदोलन में जिन पाँच समाज-सुधारकों के नाम लिए जाते हैं, महात्मा ज्योतिबा फुले के नाम का शुमार नहीं है। इस सूची को बनानेवाले उच्चवर्णीय समाज के प्रतिनिधि है। ज्योतिबा फुले ब्राह्मण वर्चस्व और सामाजिक मूल्यों को कायम रखनेवाली शिक्षा और सुधार के समर्थक नहीं थे। उन्होंने पूँजीवादी और पुरोहितवादी मानसिकता पर हल्ला बोल दिया। उनके द्वारा स्थापित सत्यशोधक समाज और उनका क्रांतिकारी साहित्य इसका प्रमाण है। जब ब्राह्मणों ने कहा - 'विद्या शूद्रों के घर चली गई' तो फुले ने तत्काल उत्तर दिया 'सच का सबेरा होते ही वेद डूब गए, विद्या शूद्रों के घर चली गई, भू-देव (ब्राह्मण) शरमा गए।'

महात्मा ज्योतिबा फुले ने वर्ण, जाति और वर्ग-व्यवस्था में निहित शोषण-प्रक्रिया को एक-दूसरे का पूरक बताया। उनका कहना था कि राजसत्ता और ब्राह्मण आधिपत्य के तहत धर्मवादी सत्ता आपस में साँठ-गाँठ कर इस सामाजिक व्यवस्था और मशीनरी का उपयोग करती है। उनका कहना था कि इस शोषण- व्यवस्था के खिलाफ़ दलितों के अलावा स्त्रियों को भी आंदोलन करना चाहिए।

महात्मा ज्योतिबा फुले के मौलिक विचार 'गुलामगिरी', 'शेतकऱ्यांचा आसूड' (किसानों का प्रतिशोध) ' सार्वजनिक सत्यधर्म ' आदि पुस्तकों में संगृहीत हैं। उनके विचार, अपने समय से बहुत आगे या आदर्श परिवार के बारे में उनकी अवधारणा है - जिस परिवार मे पिता बौद्ध, माता ईसाई, बेटी पुसलमान और बैद्य सत्यधर्मी हो, यह परिवार पक आदर्श परिवार है।" आधुनिक शिक्षा के बारे में फुल कहते हैं 'यदि आधुनिक शिक्षा का लाभ सिर्फ़ उच्च वर्ग को ही मिलता है, तो उसमें शदों का क्या स्थान रहँगा? गरीबों से कर जमा करता और उसे उच्चवर्गीय लोगों के बच्चों की शिक्षा पर खर्च करना - किसे चाहिए ऐसी शिक्षा? 'स्वाभाविक है कि विकसित वर्ग का प्रतिनिधित्व करनेवाले और सर्वांगीण समाज सुधार न चाहनवाले तथाकथित संप्रान्त समीक्षकों महात्मा फुले को समाज-सुधारकों की सूची में कोई स्थान नहीं दिया ब्राह्मणी मानसिकता की असलियत का भी पर्दाफ़ाश करता है। 1883 में ज्योतिबा फुले अपने बहुचर्चित ग्रंथ 'शेतकर्यांचा आसूड' के उपोद्घात में लिखते है।'

विद्या बिना मति गई

मति बिना नीति गई

नीति बिना गति गई

गति बिना वित्त गया

वित्त बिना शूद्र गए

इतने अनर्थ एक अविद्या ने किए।

'महात्मा ज्योतिबा फुले ने लिखा है - 'स्त्री-शिक्षा के दरवाजे पुरुषों ने इसलिए बंद कर रखे हैं कि वह मानवीय अधिकारों को समझ न पाए, जैसी स्वतंत्रता पुरुष लेता है, वैसी ही स्वतंत्रता स्त्री ले तो? पुरुषों के लिए अलग नियम और स्त्रियों के लिए अलग नियम यह पक्षपात है। 'ज्योतिबा ने स्त्री - समानता को प्रतिष्ठित करनेवाली नयी विवाह - विधि की रचना की। पूरी विवाह - विधि से उन्होंने ब्राह्मण का स्थान ही हटा दिया। उन्होंने नए मंगलाष्टक (विवाह के अवसर पर पढ़े जानेवाले मंत्र) तैयार किए। वे चाहते थे कि विवाह - विधि में पुरुष प्रधान संस्कृति के समर्थक और स्त्री की गुलामगिरी सिद्ध करनेवाले जितने मंत्र हैं, वे सारे निकाल दिए जाएँ। उनके स्थान पर ऐसे मंत्र हों, जिन्हें वर - वधू आसानी से समझ सकें। ज्योतिबा ने जिन मंगलाष्टकों की रचना की, उनमें वधू वर से कहती है – 'स्वतंत्रता का अनुभव हम स्त्रियों को है ही नहीं। इस बात की आज शपथ लो कि स्त्री को उसका अधिकार दोगे और उसे अपनी स्वतंत्रता का अनुभव करने दोगे। 'यह आकांक्षा सिर्फ़ वधू की ही नहीं, गुलामी से मुक्ति चाहनेवाली हर स्त्री की थी। स्त्री के अधिकारों और स्वतंत्रता के लिए ज्योतिबा फुले ने हर संभव प्रयत्न किए।

1888 में जब ज्योतिबा फुले को 'महात्मा' की उपाधि से सम्मानित किया गया तो उन्होंने कहा - "मुझे 'महात्मा' कहकर मेरे संघर्ष को पूर्णविराम मत दीजिए। जब व्यक्ति मठाधीश बन जाता है तब वह संघर्ष नहीं कर सकता। इसलिए आप सब साधारण जन ही रहने दें, मुझे अपने बीच से अलग न करें।" महात्मा ज्योतिबा फुले की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे जो कहते थे, उसे अपने आचरण और व्यवहार में उतारकर दिखाते थे। इस दिशा में अग्रसर उनका पहला कदम था अपनी पत्नी सावित्री बाई को शिक्षित करना। ज्योतिबा ने उन्हें मराठी भाषा ही नहीं, अंग्रेज़ी लिखना-पढ़ना और बोलना भी सिखाया। सावित्री बाई की भी बचपन से शिक्षा में रुचि थी और उनकी ग्राह्य-शक्ति तेज थी। उनके बचपन की एक घटना बहुत प्रसिद्ध है – छः - सात साल की उम्र में वह हाट-बाजार अकेली ही चली जाती थी। एक बार सावित्री शिखल गाँव के हाट में गई। वहाँ कुछ खाते-खाते उसने देखा कि एक पेड़ के नीचे कुछ मिशनरी स्त्रियाँ और पुरुष गा रहे हैं। एक लाट साहब ने उसे खाते हुए और रुककर गाना सुनते देखा तो कहा, "इस तरह रास्ते में खाते-खाते घूमना अच्छी बात नहीं है। "सुनते ही सावित्री ने हाथ का खाना फेंक दिया। लाट साहब ने कहा "बड़ी अच्छी लड़की हो तुम। यह पुस्तक ले जाओ। तुम्हें पढ़ना न आए तो भी इसके चित्र तुम्हें अच्छे लगेंगे। "घर आकर सावित्री ने वह पुस्तक अपने पिता को दिखाई। आगबबूला होकर पिता ने उसे कूड़े में फेंक दिया , "ईसाइयों से ऐसी चीजें लेकर तू भ्रष्ट हो जाएगी और सारे कुल को भ्रष्ट करेगी। तेरी शादी कर देनी चाहिए। "सावित्री ने वह पुस्तक उठाकर एक कोने में छुपा दी। सन् 1840 में ज्योतिबा फुले से विवाह होने पर वह अपने सामान के साथ उस किताब को सहेजकर ससुराल ले आई और शिक्षित होने के बाद वह पुस्तक पढ़ी।

14 जनवरी 1848 को पुणे के बुधवार पेठ निवासी भिड़े के बाड़े में पहली कन्याशाला की स्थापना हुई। पूरे भारत में लड़कियों की शिक्षा की यह पहली पाठशाला थी। भारत में 3000 सालों के इतिहास में इस तरह का काम नहीं हुआ था। शूद्र और शूद्रातिशूद्र लड़कियों के लिए एक के बाद एक पाठशालाएँ खोलने में ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई को लगातार व्यवधानों, अड़चनों, लांछनों और बहिष्कार का सामना करना पड़ा। ज्योतिबा के धर्मभीरू पिता ने पुरोहितों और रिश्तेदारों के दबाव में अपने बेटे और बहू को घर छोड़ देने पर मजबूर किया। सावित्री जब पढ़ाने के लिए घर से पाठशाला तक जाती तो रास्ते में खड़े लोग उसे गालियाँ देते, थूकते, पत्थर मारते और गोबर उछालते। दोनों पति-पत्नी बाधाओं से जूझते हुए अपने काम में डटे रहे। 1840-1890 तक पचास वर्षों तक ज्योतिबा और सावित्री बाई ने एक प्राण होकर अपने मिशन को पूरा किया। कहते हैं - एक और एक मिलकर ग्यारह होते हैं। ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई फुले ने हर मुकाम पर कंधे-से-कंधा मिलाकर काम किया मिशनरी महिलाओं की तरह किसानों और अछूतों की झुग्गी-झोपड़ी में जाकर लड़कियों को पाठशाला भेजने का आग्रह करना या बालहत्या प्रतिबंधक गृह में अनाथ बच्चों और विधवाओं के लिए दरवाजे खोल देना और उनके नवजात बच्चों की देखभाल करना या महार, चमार और मांग जाति के लोगों की एक चूंट पानी पीकर प्यास बुझाने की तकलीफ़ देखकर अपने घर के पानी का हौद सभी जातियों के के लिए खोल देना - हर काम पति-पत्नी ने डंके की चोट पर किया और कुरीतियों, अंध-श्रद्धा और पारंपरिक अनीतिपूर्ण रूढ़ियों को ध्वस्त कर दलितों-शोषितों के हक में खड़े हुए। आज के प्रतिस्पर्धात्मक समय में, जब प्रबुद्ध वर्ग के प्रतिष्ठित जाने-माने दंपती साथ रहने के कई बरसों के बाद अलग होते ही एक-दूसरे को संपूर्णत: नष्ट-भ्रष्ट करने और एक-दूसरे की जड़ें खोदने पर आमादा हो जाते हैं, महात्मा ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई फुले का एक-दूसरे के प्रति और एक लक्ष्य के प्रति समर्पित जीवन एक आदर्श दांपत्य की मिसाल बनकर चमकता है।

मेरा बचपन | डॉ.ए.पी.जे. अब्दुल कलाम | MY CHILDHOOD | Dr A. P. J. ABDUL KALAM | FORMER PRESIDENT OF INDIA | CBSE | HINDI

मेरा बचपन
डॉ.ए.पी.जे. अब्दुल कलाम


इस पाठ के द्वारा छात्र सादगी, धार्मिक सहिष्णुता, मिल-जुलकर रहना और किताबें पढ़ने का प्रयोजन आदि की प्रेरणा पा सकते हैं। मेरा जन्म मद्रास राज्य (अब तमिलनाडु) के रामेश्वरम् कस्बे में एक मध्यवर्गीय परिवार में हुआ मेरे पिता जैनुलाबदीन की कोई बहुत अच्छी औपचारिक शिक्षा नहीं हुई थी और न ही वे कोई बहुत धनी व्यक्ति थे। इसके बावजूद ये बुद्धिमान थे और उनमें उदारता की सच्ची भावना थी। आशियम्मा, उनकी आदर्श जीवनसंगिनी थीं। मेरे माता-पिता को हमारे समाज में एक आदर्श दंपती के रूप में देखा जाता था।


मैं कई बच्चों में से एक था, लम्बे-चौड़े व सुंदर माता-पिता का छोटी कद-काठी का साधारण-सा दिखनेवाला बच्चा। हम लोग अपने पुश्तैनी घर में रहते थे। रामेश्वरम् की मसजिदवाली गली में बना यह घर चूने-पत्थर व ईट बना पक्का और बड़ा था। मेरे पिता आडंबरहीन व्यक्ति थे और सभी अनावश्यक एवं ऐशो-आरामवाली चीज़ों से दूर रहते थे। पर घर में सभी आवश्यक चीजें समुचित मात्रा में सुलभता से उपलब्ध थी। वास्तव में, मैं कहूँगा कि मेरा बचपन बहुत ही निश्चितता और सादगी में बीता - भौतिक एवं भावनात्मक दोनों ही दृष्टियों से।

मैं प्रायः अपनी माँ के साथ ही रसोई में नीचे बैठकर खाना खाया करता था। वे मेरे सामने केले का पत्ता विछाती और फिर उस पर चायल एवं सुगंधित, स्वादिष्ट सांबार डालती, साथ में घर का बना अचार और नारियल की ताज़ी चटनी भी होती।



प्रतिष्ठित शिव मंदिर - जिसके कारण रामेश्वरम् प्रसिद्ध तीर्थस्थल है - हमारे घर से दस मिनट का पैदल रास्ता था। जिस इलाके में हम रहते थे, यह मुसलिम बहुल था। लेकिन यहँ कुछ हिंदू परिवार भी थे, जो अपने मुसलमान पडोसियों के साथ मिल-जुलकर रहते थे। हमारे इलाके में एक बहुत ही पुरानी मसजिद थी, वहाँ शाम को नमाज के लिए मेरे पिताजी मुझे अपने साथ ले जाते थे।

रामेश्वरम् मंदिर के सबसे बड़े पुजारी पक्षी लक्ष्मण शास्त्री मेरे पिताजी के अभिन्न मित्र थे। आध्यात्मिक मामलों पर चर्चाएँ करते रहते। जब में प्रश्न पूछने लायक बड़ा हुआ तो मैने पिताजी से नमाज की प्रासंगिकता के बारे में पूछा। वे कहते - जब तुम नमाज़ पढ़ते हो तो तुम अपने शरीर से इतर ब्रम्हाड का एक हिस्सा बन जाते हो, जिसमें दौलत, आय, जाति या धर्म-पंथ का कोई भेदभाव नहीं होता।

मुझे याद है, पिताजी की दिनचर्या पौ फटने के पहले ही सुबह चार बजे नमाज पढने के साथ शुरू हो जाती थी। नमाज के बाद वे हमारे नारियल के बाग जाया करते। बाग घर से करीब चार मील दूर था। करीब दर्जन भर नारियल कंधे पर लिये पिताजी घर लौटते और उसके बाद ही उनका नास्ता होता।

मैने अपनी विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी की सारी जिंदगी में पिताजी की बातों का अनुसरण करने की कोशिश की है। मैने उन बुनियादी सत्यों को समझने का भरसक प्रयास किया है कि ऐसी कोई दैवी शक्ति जरूर है जो हमें भ्रम, दुखों, विषाद और असफलता छुटकारा दिलाती है तथा सही रास्ता दिखाती है।


जब पिताजी ने लकड़ी की नौकाएँ बनाने का काम शुरू किया, उस समय मैं छः साल का था। वे नौकाएँ तीर्थयात्रियों को रामेश्वरम् से धनुषकोटी (सेतुक्कराई भी कहा जाता है) तक लाने-ले जाने के काम आती थी। एक स्थानीय ठेकेदार अहमद जलालुद्दीन के साथ पिताजी समुद्र तट के पास नौकाएँ बनाने लगे। बाद में अहमद जलालुद्दीन की मेरी बड़ी बहन जोहरा के साथ शादी हो गई। नौकाओं को आकार लेते हुए मैं गौर से देखता था। पिताजी का कारोबार काफी अच्छा चल रहा था। एक दिन सौ मील प्रति घंटे की रफ्तार से हवा चली और समुद्र में तूफान आ गया। तूफान में सेतुक्कराई के कुछ लोग और हमारी नावें बह गई। उसी में पामबन पुल भी टूट गया और यात्रियों से भरी ट्रेन दुर्घटनाग्रस्त हो गई। तब तक मैंने सिर्फ समुद्र की खूबसूरती को ही देखा था। उसकी अपार एवं अनियंत्रित ऊर्जा ने मुझे हतप्रभ कर दिया।

उम्र में काफ़ी फर्क होने के बावजूद अहमद जलालुद्दीन मेरे अंतरंग मित्र बन गए। वह मुझसे करीवन पंद्रह साल बड़े थे और मुझे 'आज़ाद' कहकर पुकारा करते थे। हम दोनों रोज़ाना शाम को दूर तक साथ घूमने जाया करते। हम मसजिदवाली गली से निकलते और समुद्र के रेतीले तट पर चल पड़ते। मैं और जलालुद्दीन प्रायः आध्यात्मिक विषयों पर बातें करते।

प्रसंगवश मुझे यहाँ यह भी उल्लेख कर देना चाहिए कि पूरे इलाके में सिर्फ जलालुद्दीन ही थे, जो अंग्रेज़ी में लिख सकते थे। मेरे परिचितों में, जलालुद्दीन के बराबर शिक्षा का स्तर किसी का भी नहीं था और न ही किसी को उनके बराबर बाहरी दुनिया के बारे में पता था। जलालुद्दीन मुझे हमेशा शिक्षित व्यक्तियों, वैज्ञानिक खोजों, समकालीन साहित्य और चिकित्सा विज्ञान की उपलब्धियों के बारे में बताते रहते थे। यही थे जिन्होंने मुझे सीमित दायरे से बाहर निकालकर नई दुनिया का बोध कराया।


मेरे बाल्यकाल में पुस्तकें एक दुर्लभ वस्तु की तरह हुआ करती थीं। हमारे यहाँ स्थानीय स्तर पर एक पूर्व क्रांतिकारी या कहिए, उग्र राष्ट्रवादी एम.टी.आर. मानिकम का निजी पुस्तकालय था। उन्होंने मुझे हमेशा पढने के लिए उत्साहित किया। मैं, अक्सर उनके घर में पढने के लिए किताबें ले आया करता था।

दूसरे जिस व्यक्ति का मेरे बाल-जीवन पर गहरा असर पड़ा, यह मेरे चचेरे भाई शम्सुद्दीन थे। यह रामेश्वरम् में अखबारों के एकमात्र वितरक थे। अखबार रामेश्वरम् स्टेशन पर सुबह की ट्रेन से पहुँचते थे, जो पामबन से आती थी। इस अखबार एजेंसी को अकेले शम्सुद्दीन ही चलाते थे। रामेश्वरम् में अखबारों की जुमला एक हज़ार प्रतियाँ बिकती थीं।

बचपन में मेरे तीन पक्के दोस्त थे - रामानंद शास्त्री, अरविंदन और शिवप्रकाश। ये तीनों ही ब्राह्मण परिवारों से थे। रामानंद शास्त्री तो रामेश्वरम् मंदिर के सबसे बड़े पुजारी पक्षी लक्ष्मण शास्त्री का बेटा था। अलग-अलग धर्म, पालन-पोषण, पढ़ाई-लिखाई को लेकर हममें से किसी भी बच्चे ने कभी भी आपस में कोई भेदभाव महसूस नहीं किया।

पाठ का आशय : भारत के राष्ट्रपति कलाम जी का जीवन सादगी का मिसाल था। उनके माता-पिता का परिश्रम, आडंबरहीन जीवन सबके लिए आदर्शप्राय है। उनका परिवार अतिथियों की सेवा से संतृप्त था। उनका परिवार धार्मिक एकता को मानता था। बच्चों के चैतन्यशील, बहुमुखी व्यक्तित्व के निर्माण के लिए ऐसे आदर्श व्यक्तियों की जीवनी प्रेरणाप्रद है।


लेखक परिचय : -

अउल फकीर जैनुलाबदीन अब्दुल कलाम जी का जन्म 15-10-1931 को हुआ। बड़े वैज्ञानिक डॉ.ए.पी.जे. अब्दुल कलाम जी 25-07-2002 से 24-07 2007 तक हमारे देश के राष्ट्रपति थे। देश के आदर्श तथा 'जनवादी राष्ट्रपति' के नाम से भारत के करोड़-करोड़ हृदयों में प्रतिष्ठित कलाम जी अपनी 82 वर्षों की उम्र में भी अनेकानेक सामाजिक प्रगतिशील आंदोलनों में अत्यंत सक्रिय रहे। बच्चों तथा युवकों के चैतन्यशील एवं बहुमुखी व्यक्तित्व के निर्माणार्थ आपके नये अभियान का मंत्र था 'मैं क्या दूँ?' स्वपरिवर्तन की ओर उन्मुख इस अभियान का उद्घोष था - ईमानदार कार्य एवं ईमानदार का नाम। 'होमपाल' अभियान द्वारा आप बचपन में ही इन सवालों को बोना चाहते थे कि "मैं देश के लिए क्या दे सकता हूँ? समाज एवं परिसर के लिए क्या कर सकता हूँ?"

शुक्रवार, 16 अप्रैल 2021

मेरी कल्पना का आदर्श-समाज | बाबासाहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर | BHIMRAO RAMJI AMBEDKAR |

मेरी कल्पना का आदर्श-समाज
बाबासाहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर

जाति-प्रथा के खेदजनक परिणामों की नीरस गाथा को सुनते-सुनाते आप में से कुछ लोग निश्चय ही ऊब होंगे। यह अस्वाभाविक भी नहीं है। अतः अब मैं समस्या के रचनात्मक पहलू को लेता हूँ। मेरे द्वारा जाति-प्रथा की आलोचना सुनकर आप लोग मुझसे यह प्रश्न पूछना चाहेंगे कि यदि मैं जातियों के विरुद्ध हूँ, तो फिर मेरी दृष्टि में आदर्श-समाज क्या है? ठीक है, यदि ऐसा पूछेगे, तो मेरा उत्तर होगा कि मेरा आदर्श-समाज स्वतंत्रता, समता, भ्रातृता पर आधारित होगा। क्या यह ठीक नहीं है, भ्रातृता अर्थात भाईचारे में किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? किसी भी आदर्श-समाज में इतनी गातिशीलता होनी चाहिए जिससे कोई भी वांछित परिवर्तन समाज के एक छोर से दूसरे तक संचारित हो सके। ऐसे समाज के बहुविधि हितों में सबका भाग होना चाहिए तथा सबको उनकी रक्षा के प्रति सजग रहना चाहिए। सामाजिक जीवन में अबाध संपर्क के अनेक साधन व अवसर उपलब्ध रहने चाहिए। तात्पर्य यह कि दूध-पानी के मिश्रण की तरह भाईचारे का यही वास्तविक रूप है, और इसी का दूसरा नाम लोकतंत्र है। क्योंकि लोकतंत्र केवल शासन की एक पद्धति ही नहीं है, लोकतंत्र मूलतः सामूहिक जीवनचर्या की एक रीति तथा समाज के सम्मिलित अनुभवों के आदान-प्रदान का नाम है। इनमें यह आवश्यक है कि अपने साथियों के प्रति श्रद्धा व सम्मान का भाव हो।

इसी प्रकार स्वतंत्रता पर भी क्या कोई आपत्ति हो सकती है? गमनागमन की स्वाधीनता, जीवन तथा शारीरिक सुरक्षा की स्वाधीनता के अर्थों में शायद ही कोई ' स्वतंत्रता' का विरोध करे। इसी प्रकार संपत्ति के अधिकार, जीविकोपार्जन के लिए आवश्यक औज़ार व सामग्री रखने के अधिकार जिससे शरीर को स्वस्थ रखा जा सके, के अर्थ में भी 'स्वतंत्रता' पर कोई आपत्ति नहीं हो सकती। तो फिर मनुष्य की शक्ति के सक्षम एवं प्रभावशाली प्रयोग की भी स्वतंत्रता क्यों न प्रदान की जाए?

जाति-प्रथा के पोषक, जीवन, शारीरिक सुरक्षा तथा संपत्ति के अधिक की स्वतंत्रता को तो स्वीकार कर लेंगे, परंतु मनुष्य के सक्षम एवं प्रभावशाली प्रयोग स्वतंत्रता देने के लिए जल्दी तैयार नहीं होंगे, क्योंकि इस प्रकार की स्वतंत्रता का अर्थ अपना व्यवसाय चुनने की स्वतंत्रता किसी को नहीं है, तो उसका अर्थ उसे 'दासता जकड़कर रखना होगा, क्योंकि 'दासता' केवल कानूनी पराधीनता को ही नहीं कहा जा सकता। 'दासता' में वह स्थिति भी सम्मिलित है जिससे कुछ व्यक्तियों को दूसरे लोगों के द्वारा निर्धारित व्यवहार एवं कर्तव्यों का पालन करने के लिए विवश होना पड़ता है। यह स्थिति कानूनी पराधीनता न होने पर भी पाई जा सकती है। उदाहरणार्थ, जाति प्रथा की तरह ऐसे वर्ग होना संभव है, जहाँ कुछ लोगों की अपनी इच्छा के विरुद्ध पेशे अपनाने पड़ते हैं।

अब आइए समता पर विचार करें। क्या 'समता' पर किसी की आपत्ति हो सकती है। फ्रांसीसी क्रांति के नारे में 'समता शब्द ही विवाद का विषय रहा है। 'समता' के आलोचक यह कह सकते हैं कि सभी मनुष्य बराबर नहीं होते। और उनका यह तर्क वज़न भी रखता है। लेकिन तथ्य होते हुए भी यह विशेष महत्त्व नहीं रखता। क्योंकि शाब्दिक अर्थ में 'समता' असंभव होते हुए भी यह नियामक सिद्धांत है। मनुष्यों की क्षमता तीन बातों पर निर्भर रहती है।

1. शारीरिक वंश परंपरा

2. सामाजिक उत्तराधिकार अर्थात सामाजिक परंपरा के रूप में माता-पिता की कल्याण कामना, शिक्षा तथा वैज्ञानिक ज्ञानार्जन आदि, सभी उपलब्धियाँ जिनके कारण सभ्य समाज, जंगली लोगों की अपेक्षा विशिष्टता प्राप्त करता है, और अंत में

3. मनुष्य के अपने प्रयत्न। इन तीनों दृष्टियों से निस्संदेह मनुष्य समान नहीं होते। तो क्या इन विशेषताओं के कारण, समाज को भी उनके साथ असमान व्यवहार करना चाहिए? समता विरोध करने वालों के पास इसका क्या जवाब है?

व्यक्ति विशेष के दृष्टिकोण से, असमान प्रयत्न के कारण, असमान व्यवहार को अनुचित नहीं कहा जा सकता। साथ ही प्रत्येक व्यक्ति को अपनी क्षमता का विकास करने का पूरा प्रोत्साहन देना सर्वथा उचित है। परंतु यदि मनुष्य प्रथम दो बातों में असमान है, तो क्या इस आधार पर उनके साथ भिन्न व्यवहार उचित हैं? उत्तम व्यवहार के हक की प्रतियोगिता में वे लोग निश्चय ही बाजी मार ले जाएंगे, जिन्हें उत्तम कुल, शिक्ष , पारिवारिक ख्याति, पैतृक संपदा तथा व्यवसायिक प्रतिष्ठा का लाभ प्राप्त है। इस प्रकार पूर्ण सुविधा संपन्नों को ही 'उत्तम व्यवहार' का हकदार माना जाना वास्तव में निष्पक्ष निर्णय नहीं कहा जा सकता। क्योंकि यह सुविधा संपन्नों के पक्ष में निर्णय देना होगा। अतः न्याय का तकाज़ा यह है कि जहाँ हम तीसरे (प्रयासों की असमानता, जो मनुष्यों के अपने वश की बात है) आधार पर मनुष्यों के साथ असमान व्यवहार को उचित ठहराते हैं, वहाँ प्रथम दो आधारों (जो मनुष्य के अपने वश की बातें नहीं हैं) पर उनके साथ असमान व्यवहार नितांत अनुचित है। और हमें ऐसे व्यक्तियों के साथ यथासंभव समान व्यवहार करना चाहिए। दूसरे शब्दों में, समाज की यदि अपने सदस्यों से अधिकतम उपयोगिता प्राप्त करनी है, तो यह तो संभव है, जब समाज के सदस्यों को आरंभ से ही समान अवसर एवं समान व्यवहार उपलब्ध कराए जाए।

'समता' का औचित्य यहीं पर समाप्त नहीं होता । इसका और भी आधार उपलब्ध है । एक राजनीतिज्ञ पुरुष का बहुत बड़ी जनसंख्या से पाला पड़ता है । अपनी जनता से व्यवहार करते समय , राजनीतिज्ञ के पास न तो इतना समय होता है न प्रत्येक के विषय में इतनी जानकारी ही होती है , जिससे वह सबकी अलग - अलग आवश्यकताओं तथा क्षमताओं के आधार पर वाछित व्यवहार अलग - अलग कर सके । वैसे भी आवश्यकताओं और क्षमताओं के आधार पर भिन्न व्यवहार कितना भी आवश्यक तथा औचित्यपूर्ण क्यों न हो , ' मानवता ' के दृष्टिकोण से समाज दो वर्गों व श्रेणियों में नहीं बाँटा जा सकता । ऐसी स्थिति में , राजनीतिज्ञ को अपने व्यवहार में एक व्यवहार्य सिद्धांत की आवश्यकता रहती है और यह व्यवहार्य सिद्धांत यही होता है , कि सब मनुष्यों के साथ समान व्यवहार किया जाए । राजनीतिज्ञ यह व्यवहार इसलिए नहीं करता कि सब लोग समान होते , बल्कि इसलिए कि वर्गीकरण एवं श्रेणीकरण संभव होता । इस प्रकार ' समता ' यद्यपि काल्पनिक जगत की वस्तु है , फिर भी राजनीतिज्ञ को सभी परिस्थितियों को दृष्टि में रखते हुए , उसके लिए यही मार्ग भी रहता है , क्योंकि यही व्यावहारिक भी है और यही उसके व्यवहार की एकमात्र कसौटी भी है ।

श्रम विभाजन और जाति प्रथा | बाबासाहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर | BHIMRAO RAMJI AMBEDKAR |

श्रम विभाजन और जाति प्रथा
बाबासाहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर

यह विडंबना की ही बात है कि इस युग में भी 'जातिवाद' के पोषकों की कमी नहीं हैं। इसके पोषक कई आधारों पर इसका समर्थन करते हैं। समर्थन का एक आधार यह कहा जाता है, कि आधुनिक सभ्य समाज 'कार्य-कुशलता' के लिए श्रम विभाजन को आवश्यक मानता है, और चूँकि जाति-प्रथा भी श्रम विभाजन का ही दूसरा रूप है इसलिए इसमें कोई बुराई नहीं है। इस तर्क के संबंध में पहली बात तो यही है कि जाति-प्रथा श्रम विभाजन के साथ-साथ श्रमिक-विभाजन का भी रूप लिए श्रम विभाजन, निश्चय ही सभ्य समाज की आवश्यकता है, परंतु किसी भी सभ्य समाज में श्रम विभाजन की व्यवस्था श्रमिकों का विभिन्न वर्गों में अस्वाभाविक विभाजन नहीं करती। भारत की जाति-प्रथा की एक और विशेषता यह है कि यह श्रमिकों का स्वाभाविक विभाजन ही नहीं करती बल्कि विभाजित विभिन्न वर्गों को एक-दूसरे की अपेक्षा ऊँच-नीच भी करार देती है, जो कि विश्व के किसी भी समाज में नहीं पाया जाता।

जाति-प्रथा को यदि श्रम मान लिया जाए, तो यह स्वाभाविक विभाजन नहीं है, क्योंकि यह मनुष्य की रुचि पर आधारित नहीं है। कुशल व्यक्ति या सक्षम-श्रमिक-समाज का निर्माण करने के लिए यह वश्यक है कि हम व्यक्तियों की क्षमता इस सीमा तक विकसित करें, जिससे वह अपना पेशा या कार्य का चुनाव स्वयं कर सके। इस सिद्धांत के विपरीत जाति-प्रथा का दृषित सिद्धांत यह है कि इससे मनुष्य के प्रशिक्षण अथवा उसकी निजी क्षमता का विचार किए बिना, दूसरे ही दृष्टिकोण जैसे माता-पिता के सामाजिक स्तर के अनुसार, पहले से ही अर्थात गर्भधारण के समय से ही मनुष्य का पेशा निर्धारित कर दिया जाता है। जाति-प्रथा पेशे का दोषपूर्ण पूर्वनिर्धारण ही नहीं करती बल्कि मनुष्य को जीवन-भर के लिए एक पेशे में बाँध भी देती है। भले ही पेशा अनुपयुक्त या अपर्याप्त होने के कारण वह भूखों मर जाए। आधुनिक युग में यह स्थिति प्रायः आती है, क्योंकि उद्योग-धंधों की प्रक्रिया व तकनीक में निरंतर विकास और कभी-कभी अकस्मात परिवर्तन हो जाता है, जिसके कारण मनुष्य को अपना पेशा बदलने की आवश्यकता पड़ सकती है और यदि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी मनुष्य को अपना पेशा बदलने की स्वतंत्रता न हो, तो इसके लिए भूखों मरने के अलावा क्या चारा रह जाता है? हिंदू धर्म की जाति प्रथा किसी भी व्यक्ति को ऐसा पेशा चुनने की अनुमति नहीं देती है, जो उसका पैतृक पेशा न हो, भले ही वह उस में पारंगत हो। इस प्रकार पेशा परिवर्तन की अनुमति न देकर जाति-प्रथा भारत में बेरोजगारी का एक प्रमुख व प्रत्यक्ष कारण बनी हुई है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि श्रम विभाजन की दृष्टि से भी जाति-प्रथा गंभीर दोषों से युक्त है। जाति-प्रथा का श्रम विभाजन मनुष्य की स्वेच्छा पर निर्भर नहीं रहता। मनुष्य की व्यक्तिगत भावना तथा व्यक्तिगत रुचि का इसमें कोई स्थान अथवा महत्त्व नहीं रहता। 'पूर्व लेख' ही इसका आधार है। इस आधार पर हमें यह स्वीकार करना गा कि आज के उद्योगों में गरीबी और उत्पीड़न इतनी बड़ी समस्या नहीं जितनी यह बहुत से लोग 'निर्धारित' कार्य को 'अरुचि' के साथ केवल विवशतावश करते हैं। ऐसी स्थिति स्वभावतः मनुष्य को दुर्भावना से ग्रस्त रहकर टालू काम करने और कम काम करने के लिए प्रेरित करती है। ऐसी स्थिति में जहाँ काम करने वालों का न दिल लगता न दिमाग, कोई कुशलता कैसे प्राप्त की जा सकती है। अत : यह निर्विवाद रूप से हो जाता है कि आर्थिक पहलू से भी जाति-प्रथा हानिकारक प्रथा है। क्योंकि यह मनुष्य की स्वाभाविक प्रेरणारुचि व आत्म-शक्ति को दबा कर उन्हें अस्वाभाविक नियमों में जकड़ कर निष्क्रिय बना देती है।