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गुरुवार, 25 फ़रवरी 2021

बिहारी की श्रृंगारी भावना (या) कला पर लेख लिखिए। | BIHARI

बिहारी की श्रृंगारी भावना (या) कला पर लेख लिखिए।

रूपरेखा :

1. प्रस्तावना

2. रीति काव्य के लक्षण

3. श्रृंगार का शास्त्रीय स्वरूप

4. श्रृंगार की व्यापकता

5. संयोग पक्ष

6. नख शिख वर्णन

7. सौन्दर्य

8. उद्दीपन

9. वियोग पक्ष

10. उपसंहार

1. प्रस्तावना :

श्रृंगारी काव्य रचना परम्परा में बिन्दु में सिन्धु और गागर में सागर भरनेवाले रीतिकालीन मूर्धन्य कवि बिहारीलाल का महत्वपूर्ण स्थान है। बिहारी सतसई भावपक्ष तथा कलापक्ष दोनों में अत्यधिक लोक रंजक बन गई है। कहा जाता है कि - वे आचार्य केशवदास के पुत्र हैं। उनकी पत्नी भी एक कुशल कवयत्री थी। वे राजाओं के और सामन्तों के दरबारों में कुछ श्रृंगार परक तथा अन्य दोहे सुनकर पुरस्कार तथा दक्षिणा प्राप्त करते थे। एक बार जयपूर के राजा जयसिंह नई चौहान रानी से विवाह करके उसी के साथ भोग - विलास में डूबै हुए थे। बिहारी ने -

“नहिं पराग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास इहि काल।

अली कली ही सो बाँध्यों, आगे कौन हवाल॥”

राजा जयसिंह इस दोहे का प्रतीका समझ गये। उन्होंने बिहारी का अपने दरबार में कवि के रूप में सम्मान किया। जीवन पर्यान्त बिहारी वहीं रहें और अपने रसिकतापूर्ण वैविध्य दोहों से दरबार को रंजित करते रहे।

2. रीतिकाव्य के लक्ष्ण :

रीति शब्द संस्कृत, साहत्यि शास्त्र में एक विशिष्ट स्थान रखता है। रीति संप्रदाय के नाम पर यह सिद्धान्त आचार्य वामन के द्वारा प्रयुक्त हुआ। संस्कृत के काव्यों का मार्ग ही रीति शब्द का अर्थ बताया गया - तत्र तस्मिन् काव्ये मार्गा। मतिराम, देव, सुरति मिश्र, सोमनाथ आदि ने रीति शब्द का प्रयोग किया है। डॉ. भगीरथमिश्र के अनुसार रीति शास्त्र का तात्पर्य अलंकार, रस, रीति, वक्रोक्ति, ध्वनि आदि के स्वरूप भेद आदि से समन्वित ग्रन्थ है। रीतिकाल का नामकरण कुछ विद्वानों के अनुसार श्रृंगार और अलंकार से सम्बन्धित है। बिहारी सतसई श्रृंगाररस प्रधान काव्य है। यह मुक्तक काव्य है। भाषा, अलंकार, शब्द योजना तथा समास शक्ति के आधार पर भाव आम्भीर्याथ विम्बयोजना के कारण एक उक्ति प्रचार में है।

“सतसैया के दोहरे, ज्यों नावक के तीर।

देखन में छोटे लगें घाव करें गम्भीर||"

3. श्रृंगार का शस्त्रीय स्वरूप :

श्रृंगार 'रसराज' कहलाता है। लौकिक भाषा में प्रेमही श्रृंगार है। प्रेम की व्यापक भावना श्रृंगार रस है।

'श्रृंग' का अर्थ है - कामोद्रेक और 'आर' का अर्थ है - लानेवाला । अतः कामोद्रेक लानेवाला श्रृंगार कहलाता है। इस में स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव और संचारी भाव उपकरण हैं। स्थायी भाव ही रति है। यह नर नारी के अनुराग को प्रकट करता है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से विभाव और संचारी भाव मानसिक पक्ष कहलाते है और अनुभाव शारीरिक पंक्ष।

4. श्रृंगार की व्यापकता :

गाथा सप्तशती, अमरुक शतक, आर्या सप्तशती आदि ग्रन्थों से बिहारी को भावप्रेरणा प्राप्त हुई। विलक्षण कल्पना, सूक्ष्म निरीक्ष्ण तथा अनुपम प्रतिभा की तूलिका से बिहारी ने सतसई में श्रृंगारी भावना को परिपुष्ट किया। बिहारी लाल संस्कृत के भी विद्वान होने के कारण अग्नि पुराण आदि ग्रन्थों का प्रभाव भी उन पर पडा। परखने पर पता चलता है कि विहारी पर कालिदास की भी छाप है। प्रेम पयोधि में पहाड़ों से भी ऊँचे रसिकों के मन डूब जाते हैं।

"गिरि तैं ऊँचे रसिक मन, बूडे जहाँ हजारू।

वहै सदा पशु नरनु कौं प्रेम - पयोधि पगारू॥”

इस के विपरीत नर रूपी पशु प्रेम रूपी सागर को कोई गढ़ा समझते हैं। तंत्रीनाद, कविता - रस, सरस राग और रति रंग में डूबने वालों का जीवन सफल बताया गया है।

"तंत्री - नाद कवित्त - रस सरस राग रति-रंग।

अन बूड़े बूड़े तरे जे बूड़े सब अङ्ग॥”

सत्य और काव्य दोनों एक ही वस्तु हैं। काव्य की जीवन धारा सत्य है। कवि सच्चा शिक्षक है।

“अली कली ही सो बाँयों आगे कौन हवाल।"

उक्ति के द्वारा बिहारी ने श्रृंगार का अनौचित्य रूप प्रस्तुत करके राजा जयसिंह के नेत्र खोल दिये और राजा को कार्योन्मुख किया।

5. संयोग पक्ष : :

संयोग पक्ष में आलम्बन, आश्रय आदि होते हैं। हास्य तथा विनोद के साथ प्रेमियों के नाना प्रकार की क्रीडाएँ होती हैं। साहित्य शास्त्र में संयोग की पृष्टभूमि पूर्वराग है। सौन्दर्य छवि से उन्मन्त नाइका का पूर्वराग देखिए -

"डर न टरै, नींद न परै हरै न काल बिपाकु।"

इसी प्रकार बिहारी सद्यः स्नाता का मनोहर रूप हमारे सामने प्रस्तुत करते हैं।

"छुटी न सिसुता की झलक, झलकौ जोवन अंग।"

यौवन का उभार कविवर बिहारी विम्बात्मकता के साथ प्रस्तुत करते है।

"दुरत न कुच बिच कंचुकी चुपरीः सारी सेत।"

6. नख शिख वर्णन : :

नख - शिख वर्णन काव्य का एक प्रधान अंग है। चाहे महाकाव्य हो या खण्ड काव्य हो नाइका का नख - शिख वर्णन किसी किसी रूप में प्रस्तुत होता ही रहता है। बिहारी वस्तुतः श्रृंगारी कवि होने के कारण नाइका के सौन्दर्य वर्णन - न - में अत्यन्त प्रमुख तथा सफल हुए हैं। उदाहरण के लिए नाइका का मुख वे 'आनन ओप उजास' कहते हैं। नाइका की दृष्टि पर वे कलम चलाते हैं।

"भौंह उँचै आँचरु उलटि मौरि मोरि मुँहु मोरि ।

नीठि नीठि भीतर गई, दीठि दीठि सौं जोरि ॥”

7. सौन्दर्य :

नख शिख वर्णन करना एक प्रकार से कवि परंपरा (Treadition) है। लेकिन नाइका के सौन्दर्य जगत को पाठक के सामने मनोहर रूप में चित्रांकित करना सच्चा कवि कर्म है।

कवि की प्रतिभा में विद्वत्ता के साथ-साथ भावना तथा काल्पनिक वैविध्य होना चाहिए। क्षण क्षण बदलते हुए नाइका का सौन्दर्य विशेष बिहारी अनुपम ढंग से प्रस्तुत करते हैं।

"लिखन बैठि जाकी सबी, गहि गहि गरब गरुर।

भए न केते जगत के चतुर चितेरे कूर।"

बिहारी लाल के इस सौन्दर्य वर्णन पर महाकवि माघ कृत.-

‘क्षणे - क्षणे यन्नवतामुपैति, तदेक रूप रमणीयतायाः' का प्रभाव है। संयोग के अन्तर्गत बिहारी ने जलक्रीडा, आँख मिचौनी, झूला झूलना, फाग खेलना आदि सभी प्रकार की विलास केलियों का वर्णन किया है।

8. उद्दीपन :

उद्दीपन का श्रृंगार रस में महत्त्वपूर्ण स्थान है। आलम्बन की चेष्टाएँ उद्दीपन मानी जाती हैं। ऋतु वर्णन में भिन्न - भिन्न ऋतुओं से संबन्धित त्योहारों का भी वर्णन किया जाता है। निम्न लिखित वसन्त चित्र में उद्दीपन की मात्रा देखिए।

“छकि रसाल - सौरभ सने मधुर माधुरी गंध।

ठौर-ठौर झौंहत झपत भौर झौर मधु अंध॥"

विभाव, अनुभाव तथा संचारी भावों से बिहारी की 'सतसई' सचमुच श्रृंगार रस का 'सदन' बन गयी है। संयोग श्रृंगार का एक दोहा अवलोक करें

"चमक तमक हाँसो ससक मसक झपट लमटानि।

ए जिहि रति सो रति मुक्ति और मुकति अति हानि॥"

9. वियोग पक्ष :

संयोग में कवि नायक तथा नाइका के बाह्य पक्ष तक ही सीमित रहता है। वियोग पक्ष में अधिकांश कवियों की मर्म वेदना प्रकट होती है। नायक और नाइका को आलम्बन बनाकर कवि अपनी अन्तर्वेदना प्रकट करता है। वियोग श्रृंगार में आत्म प्रसार होता है। अभिलाषा, चिन्ता, स्मृति, गुण, कंपन, उद्वेग, प्रलाप, उन्माद, व्याधि, जडता और मरण वियोग के फल माने जाते हैं। सतसई के दोहों का शब्द - शब्द और अक्षर - प्रत्यक्षर वियोग श्रृंगार के लिए भरमार है। नाइका का हृदय पसीज - पसीज कर नेत्रों में आँसू के द्वारा बहता है।

"हियौ पसीजि पसीजि हाय, दृग द्वार बहत है"

वियोग पक्ष में बिहारी लाल अधिकांश अतिशयोक्ति को आधार बनाते हैं। विरहणी नाइका पर डाला जाने वाला गुलाब जल बीच में ही भाप बनकर जाता है। उसी प्रकार वियोग व्यथा से व्याकुल तथा कृशित नाइका साँस के साथ आगे और पीछे चली।

"औंधाई सीसी सुलखि बिरह बरनि बितलात।

नहीं सूखि गुलाबु गौ छींटौ छई न गात॥”

"इति आवति चलि जाति उत, चली छसांतक हाथ । चढ़ी हिंडोरै सै रहै लगी उसासनु साथ॥"

वियोग में पूर्वराग, मान, प्रवास तथा करुणा के स्तर होते हैं। प्रवास के समय नाइका पियतम के निरीक्षण में व्याकुलपूर्ण जीवन बिताती है। विरह व्यथिता नाइका को कभी-कभी नायक से पत्र मिलता है तब नाइका उस पत्र को झूम झूम कर तथा चूम चूम कर हृदय पर लगा लेती है।

"कर लै चूमि चढ़ाइ सिर, उर लगाइ, भुज, भेंटि।

लहि पाती पिय की लखति बाँचति धरति समेटि॥"

बिहारी की नाइका प्रियतम को पत्र लिखना चाहती है, लेकिन कागज पर अक्षर लिख न पाती वह जिस कागज का स्पर्श करती है उस की विरहाग्नि के कारण वह पत्र जल जाता है। इसलिए वह पत्र लिख न पाती। कभी-कभी व्यक्ति के द्वारा सन्देश भेजना चाहती हो (होगी) संस्कार के कारण वह शर्माती है। इसी लिए वह कह देती है कि मेरे हृदय की बात उसका (नायक का) हृदय जानता है।

कागद पर लिखत न बनत, कहत संदेसु लजात।

कहिंहै सबु तेरौ हियौ, मेरे हिय की बात॥

10. उपसंहार :

श्रृंगार रस संसार में हर जीव के लिए अनुभवगम्य है। इस में अतुलित आनन्द की प्राप्ति होती है। बिहारी लाल रीतिकालीन श्रृंगार रस के सम्राट हैं। लेकिन श्रृंगार रस पोषण शब्द चयन के साथ ही अधिक हुआ है। प्रधानतया वियोग श्रृंगार में वियोग जन्य भाव गंभीरता बिहारी जायसी और तुलसी के समकक्ष नहीं कर सके। विरहणी नाइका के अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णन में कभी हँसी मजाक आ गया है। अधिक ऊहात्मकता के कारण वियोग वर्णन में कहीं-कहीं अस्वभाविकता आ गई है।

बिहारी की काव्य कला पर चर्चा कीजिए। | BIHARI LAL

बिहारी की काव्य कला पर चर्चा कीजिए।
(अथवा)
रीति कालीन मूर्धन्य कवि बिहारी के काव्य सौष्ठव का विवेचन कीजिए।
(अथवा)
गागर में सागर और बिन्दु में सिन्धु भरनेवाले रीति कालीन विशिष्ट कवि बिहारी लाल की काव्य कला पर झाँकी डालिए।

रूपरेखा :

1. प्रस्तावना

2. युग की परिस्थितियाँ

3. श्रृंगारी भावना

क. संयोग पक्ष

ख. वियोग पक्ष

4. भक्ति भावना

5. प्रकृति चित्रण

6. सूक्ति तथा नीति

7. विद्वत्ता

8. अलंकारयोजना

9. भाषा – शैली

10. उपसंहार

1. प्रस्तावना

शृंगारी काव्य रचना परम्परा में बिन्दु में सिन्धु और गागर में सागर भरनेवाले रीतिकालीन गर्भन्य कवि बिहारीलाल का यपूर्ण स्थान है। बिहारी सतसई भावपक्ष तथा कलापक्ष दोनों में अत्यधिक लोक रंजक बन गई है। कहा जाता है कि वे चार्य केशवदास के पुत्र हैं। उनकी पत्नी भी एक कुशल कवयत्री थी। वे राजाओं के और सामन्तों के दरबारों में कुछ श्रृंगार क तथा अन्य दोहे सुनाकर पुरस्कार तथा दक्षिणा प्राप्त करते थे। एक बार जयपुर के राजा जयसिंह चौहान रानी से विवाह के उसी के साथ भोग-बिलास में डूबे हुये थे। बिहारी ने.....

"नहिं परग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास इहि काल।

अनी कली ही सौ बाँध्यो, आगे कौन हवाल॥"

राजा जयसिंह इस दोने का प्रतीकार्थ समझ गये। उन्होंने बिहारी का अपने दरबार में कवि के रूप में सम्मान किया। जीवन - बिहारी वहीं रहें और अपने रसिकतापूर्ण वैविध्य दोहों से दरबार को रंजित करते रहे।

2. युग की परिस्थितियाँ :

बिहारी का युग बिलकुल बिलासपूर्ण था। मुसलमानी शासन का बोलबाला था। मुसलमानों की संस्कृति के सामने हिन्दू संस्कृति कुछ झुकी हुई थी। बादशाह, राजा, अमीर आदि विलासिता में डूबे हुए थे। धार्मिक संप्रदाय भी चलते थे। लेकिन सारा वातावरण श्रृंगारी रस व्यंजना में अधिक डूबा हुआ था। संस्कृत साहित्य को आधार बनाकर व्यावहारिक ज्ञान से काव्य का निर्माण होता था।

बिहारी के व्यापक परिवेश में नारी भावना केन्द्रित थी। नारी की चमक, दमक, हाँसी, दीरघनयन, भौहें, नख - शिख वर्णन, वयः सान्धि, नारी के विविध अनुभाव आदि आदि का बिहारी ने रसमय वर्णन किया।

3. श्रृंगारी भावना :

बिहारी लाल हिन्दी साहित्य के श्रेष्टतम श्रृंगारी कवि हैं। लौकिक भाषा में प्रेम को श्रृंगार कहते हैं। लेकिन वास्तव में श्रृंगार प्रेम की व्यापक भावना है।

'श्रृंग' का अर्थ है - कमोद्रेक

'आर' का अर्थ है - लानेवाला

नर- नारी के परस्पर झुकाब को 'रति' कहते हैं। इस में बाह्य सौन्दर्य की मात्रा अधिक होती है। विभाव और भाव, रति का मानसिक पक्ष है और अनुभाव शारीरक पक्ष है।

बिहारी ने श्रृंगार के सारे पक्षों का विवरण दिया है।

क संयोग पक्ष : बिहारी नाइका के पूर्वराग की झलक बताते है।

"डर न टरै नींद न परै हरै न काल बिपाकु!'

इसी प्रकार नायक और नाइका के बीच होनेवाले अनुभाव पूर्ण चमत्कार को बिहारी इस प्रकार प्रस्तुत करते है -

"चमक, तमक, हाँसी, ससक, मसक, झपट, लपटानि।

ए जिहि रति, सो रति मुकति और मुकति अति हानि॥"

नाइका के उभरे यैवन का बिहारी चित्रांकन करते हैं।

दुरत न कुचबिच कंचुकी चुपरि

नाइका की सौंदर्य विशेषता बिहारी अतिशियोक्ति के साथ प्रस्तुत करते हैं।

लिखन बैठि जाकी सबी गहि- गहि गरब गरूर।

भए न केते जगत के चतुर चितेरे कूर ॥

विभाव पक्ष में कभी आलम्न की चेष्टाएँ उद्दीपन का काम करती है। नाइका नायक पर गुलाल की मूठ चलाती है।

पीठि दिये ही, नैक मुंरि, कर घूँघट - पटु टारि ।

भरि गुलाल की मूठि सौं, गई मूठि सी मारि ॥

ख. वियोग पक्ष :- वास्तव में श्रृंगार को रसराज कहते हैं। संयोग में तो प्रेम एकन्त रूप में और सीमित रहता है। वियोग में आत्मा का प्रसार अधिक होता है। नदी, पहाड, लता, वृक्ष आदि वियोग में उद्दीपन का काम करते हैं। प्रकृति में प्रियतम की झलक दिखाई देती है। हृदय की वीणा जितनी विप्रलम्भ श्रृंगार में झंकृत होती है, उतनी संयोग श्रृंगार में नहीं। विप्रलम्भ में हृदय की मर्म वेदना का झंकार होता है। कालिदास का मेघदूत वियोग श्रृंगार का सुन्दर काव्य है। बिहारी ने वियोग पक्ष का भी सुन्दर चित्रण किया है। अभिलाषा, चिन्ता, स्मृति, गुणगान, उद्वेग, प्रलाप, उन्माद, व्याधि और मरण- वियोग की सारी दशाओं पर बिहारी ने अपनी तूलिका फेरी।

वास्तव में वियोग विरह में मनुष्य सूखकर काँटा हो जाता है। विरहाज्ञी के कारण नाइका के ऊपर गिरनेवाला गुलाब जल भी भाप बन जाता है। नाईका का शरीर क्षण-क्षण क्षीण हो जाता है।

“करी बिरह ऐसी तऊ गैल न छाड़तु नीचु।

दीनै हूँ चसमा चखनु, चाहे लहै न मीचु॥”

वियोग श्रृगार पूर्वराग, मान, प्रवास और करुणा - सारे रूपों पर बिहारी ने बल दिया है। अधिक विषय गमन - प्रवास में रहने वाले प्रियतम का पत्र मिलने पर नाइका प्रेमाभिव्यंजना व्यक्त करती है - वह पत्र को बार बार चूम लेती है और सिर पर उसे रख लेती है। फिर हृदय पर लगा लेती है। -

"कर लै, चूमि, चढ़ाइ सिर, उर लगाइ, भुज भेंटि।

लहि पाती पिय की लखति, बाँचति धरति समेटि॥”

प्रिय को वह सन्देश भेजना चाहती है। लोकिन कागज पर लिखा न बनता।

"कागद पर लिखत न बनत, कहत संदेसु लजात।

कहि है सबु तेरों हियौं, मेरे हिय की बात॥”

संयोग का वर्णन अधिक स्वभाविक होता है और वियोग में कहीं नाइका का शरीर जलता है। गुलाब का जल एक बूँद भी उसके शरीर पर नहीं गिरता। साँस लेते विरहिणी नाइका दुर्बलता के कारण आगे-पीछे होती रहती है।

"औंधाई सीसी सुलखि बिरह - बरनि बिललात।

बिच हीं सूखि गुलाबु गौ, छींटौ छुई न गात ॥”

“इति आवति चलि जाति उत चली छसातक हाथ।

चढ़ी हिंडौरै सैं रहै, लगी उसासनु साथ ॥"

4. भक्ति भावना :

विहारी लाल वस्तुत: श्रृंगारी कवि है। साथ ही उन में माधुर्य, सख्य, हास्य आदि सभी प्रकार की भक्ति के तत्त्वं समन्वित हुये हैं। वे वाह्याडम्बरों का निराकरण करके मन की पवित्रता की आवश्यकता बताते हैं।

"जपमाला छापै तिलक सरै न एकौ कामु ।

मन - काँचै नाचै वृथा साँचै राँचै रामु॥”

सांसारिक विषय वासनों में न गिरकर भगवान का दिया हुआ स्वीकार करने की वे सलाह देते हैं।

दीरघ साँस न लेहि दुख, सुख साईहिं न भूलि।

दई दई क्यों करतु है, दई दई सु कबूलि।।.

5. प्रकृति चित्रण :

प्रकृति सदा मानव की सहचर रही है। प्रकृति के बिना कोई जीव-जन्तु पनप नहीं सकता। अत. सौदयांनुभूति तथा ललिंत अभिव्यक्ति के लिए प्रकृति अत्यन्त आवश्यक है। अतः हम यह कह सकते हैं कि प्रकृति चित्रण के बिना कविता ही नहीं। बिहारी प्रकृति चित्रण में मानवीयता की ओर अधिक झुकते हैं। उद्दीपन और अलंकारों की अद्भुत समन्वयता के लिए प्रकृति को ले लेते हैं। वे कहीं-कहीं प्रकृति के मानवीकरण की सूक्ष्मता तक जाते हैं।

बैठि रही अति सघन वन, पैठि सदन तन माँह।

देखि दुपहरी जैठ की, छाँहीँ चाहति छाँह।।

संयोग और वियोग पक्ष दोनों में प्रकृति चित्रण का महत्वपूर्ण स्थान होता है जिसे बिहारी लाल ने सफलता के साथ निभाया है।

6. सूक्ति तथा नीति

बिहारी लाल दरबारी कवि होने पर सूक्ति तथा नीति परक दोहों की रचना भी उन्होंने की। समाज द्वन्द्वात्मक होता है। इसलिए समाज में जो सत तथा असत होते हैं। उनका सूक्ष्म अनुशीलन करके बिहारी दरबार के सामने प्रस्तुत करते हैं।

उदा -

यमक तथा काव्य लिंग अलंकारों से समन्वित यह दोहा देखिए -

"कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय।

यह खाये बौराय जग, ये पाये बौराय॥”

इसी प्रकार संसार में कोई भी सुन्दर नहीं और ओई भी असुन्दर नहीं। समय के अनुसार और देखने वालों के अनुसार कोई चीज सुन्दर दिखाई देती है और कभी कोई वस्तु असुन्दर दिखाई देती है। मानवों में भी सुन्दरता के बारे में यही विषय बताया है गया है।

"समै समै सुन्दर सबै रूप कुरूप न कोई।

मन की रुचि जेती जितै तित तेती रुचि होइ!!

अनेक स्थानों पर बिहारी नर की उन्नति का रहस्य नल के पानी की तुलना से करते है।

7. विद्वत्ता :

कवि अक्षर तपस्वी तथा सुवर्णयोगी होता है। इसलिए विविध विषयों का ज्ञान आवश्यक है। गणित, ज्योतिष, इतिहास, नीति, आयुर्वेद, विज्ञान आदि विषयों का ज्ञान बिहारी रखते हैं। इनका ज्ञान भण्डार बहु व्यापक है। ज्योतिष तथा विज्ञान संम्बन्धी यह दोहा देखिए –

“पत्रा ही तिथि पाइयै वा घर कै चहुँ पास।

नित प्रति पून्यौई रहै, आनन- औप- उजास॥"

8. अलंकारयोजना :

बिहारी की 'सतसई' बिन्दु में सिन्धु भरने वाली तथा गागर में सागर भरने वाली अलंकारों से समन्वित अनमोल कविता की भरमार है। उपमा, रूपक और उत्प्रेक्षा अलंकारों का अधिक प्रयोग बिहारी ने किया है।

“जदपि सुजाति सुलच्छनि सुवरन सरस सुवृत्त।

भुषण बिनु न विरजहि कविता वनिता मित्त॥”

उपर्युक्त केशवदास जी का दोहा, बिहारी कविता माधुरी अतिशयोक्ति का यह दोहा, बिहारी लाल की भाव पटिमा, मनोहर सौकुमार्य का वर्णन तथा नाइका की शोभा का वर्णन चित्रित करता है। बिहारी की अलंकार योजना व्यापक है। कोमलांगी नाइका तन पर भूषणों का भार कैसे सभ्भाल सकती है। उसके पाँव तो पहले ही शोभा के भार से डगमगा रहें हैं। इस प्रकार की भावना कुशल कवि ही कर सकता है।

"भूषन-भार संभारिहै, क्यों इहि तन सुकुमार।

सूधे पाइ न घर परै सोभा ही कैं भार॥”

उपमान के सहारे अनूठी-अनूठी चित्रात्मक अप्रस्तुत योजना का सौन्दर्य उत्प्रेक्षा के द्वारा अंकित हुआ है।

“चमचमात चंचल नयन, बिच घूँघट पर झीन।

मनहु सुर सरिता - बिमल जल उछरत जुग मुनि॥"

विरोधाभास के चमात्कार में कविवर बिहारी तंत्रीनाद कविता की मांधुरी रस युक्त संगीत और रति के श्रृंगार में डूबने वालों का जीवन धन्य बताते हैं।

"तंत्री - नाद कवित- रस सरस राग, रति रंग।

अनचूड़े बूडे तरे जे बूड़े सब अङ्ग॥"

9. भाषा - शैली : :

बिहारी की भाषा व्रज है। अन्य भाषाओं के शब्द प्रयोग भी बिहारी ने किया है। बिहारी ने तत्कालीन प्रचलित साहित्य ब्रज का प्रयोग किया है। भाषा को कहीं-कहीं उन्होंने तोड- मरोड़कर दोहों में जमाया है। संस्कृत शब्दों का समाहार भी बिहारी 7 में प्राप्त होता है। अरबी और फारसी शब्दों का प्रयोग भी बिहारी ने किया है।

बिहारी की भाषा शैली माधुर्य गुण प्रधान है। शब्द चधन तथा मुहावरों लोकोक्तियों के प्रयोग ने भाषा-1 शैली को सुसज्जित किया है। कभी कहीं व्याकरण संबन्ध कुछ इने गिने दोष भी कुछ पण्डित बिहारी में ढूँढ़ने का प्रयत्न करते हैं। - बिहारी की भाषा सशक्त, चुस्त प्रवाहपूर्ण साहित्यिक ब्रज है। उनकी वाक्य रचना व्यवस्थित और शब्द चयन अनूठा है। समास शक्ति वाग्विदग्ध अलंकारों का समावेश बिहारी की भाषा शैली के परिपोषक हैं।

10. उपसंहार :

रीति कालीन कविरत्न बिहारी लाल अपनी सतसई के कारण विख्यात हुए। किसी भी कबि की मान्यता उनकी रचनाओं की गणना से न होकर उनके गुण विशेष से होती है। बिहारी की सतसई मुक्तक बना बनाया दोहों का गुलदस्ता है। अनुभावों तथा भावों की योजना में रीति कालीन कवियों में बिहारी ताल बेजोड़ हैं। शोभा, सुकुमारता, बिरह ताप, बिरह की क्षीणता आदि के वर्णन में बिहारी ने कहीं-कहीं अतिशयोक्ति का आश्रय लिया है। उनके बहुत से दोहे आर्या सप्तशती तथा गाथा सप्तशती की छाया लेकर बने हुए है। बिहारी की कविता में श्रृंगार रस की अधिकता होने पर भी अनुभूति की गहनता नहीं।

अनुभावों का बिहारी ने विशद वर्णन किया और भाव संकेतों का कलात्मक नियोजन भी किया। प्रतिभा, निपुणता और अभ्यास तीनों का बिहारी की कला में योगदान है। कहने की आवश्यकता नहीं कि बिहारी रीति कालीन मूर्धन्य कवि हैं। उनका हर शब्द रस व्यंजित है। गागर में सागर भरने वाला, बिन्दु में सन्धु भरने वाला तथा रीतिकालीन श्रृंगार का उत्कृष्ट कवि है, बिहारीलाल।