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बुधवार, 21 जुलाई 2021

स्वामी विवेकानंद | डॉ. जगदीश चंद्र | SWAMI VIVEKANANDA | रामकृष्ण परमहंस | नरेंद्र देव | सिस्टर निवेदिता | NARENDRANATH DATTA

स्वामी विवेकानंद - डॉ. जगदीश चंद्र 

आशय : भारत देश में जन्मे अनेक महान् व्यक्तियों ने भारत की कीर्ति विदेशों में फैलायी। ऐसे व्यक्तियों में से एक हैं स्वामी विवेकानंद। इस पाठ में उनकी महानता के परिचय के साथ देशप्रेम की प्रेरणा भी प्राप्त कर सकते हैं।

भारत के इतिहास में स्वामी विवेकानंद का नाम अमर है। इस वीर सन्यासी ने देश-विदेश में भ्रमण कर भारतीय धर्म और दर्शन का प्रसार किया तथा समाज-सेवा का नया मार्ग दिखाया। 

स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी 1863 को कलकत्ते के एक कायस्थ घराने में हुआ था। उनके बचपन का नाम नरेंद्र देव था। उनके पिता श्री विश्वनाथ दत्त एक प्रतिष्ठित वकील थे। उनकी माता श्रीमती भुवनेश्वरी देवी धर्मपरायण महिला थीं। 


बालक नरेंद्र का शरीर स्वस्थ, सुडौल और सुंदर था। कुश्ती लड़ने, दौड़ लगाने, घुड़सवारी करने और तैरने में उन्हें बड़ा आनंद मिलता था। वे संगीत एवं खेल-कूद की प्रतियोगिताओं में भी भाग लिया करते थे। नरेंद्र आरंभ से ही पढ़ाई-लिखाई में बड़े तेज थे। वे अपने स्कूल में सर्वप्रथम रहा करते थे। एन्ट्रन्स परीक्षा में भी वे प्रथम श्रेणी मे उत्तीर्ण हुए थे। बी.ए. की परीक्षा पास करने के बाद उन्होंने कानून का अध्ययन प्रारंभ किया। इसी बीच में उनके पिता का देहांत हो गया। 

अध्ययन काल में उनकी रुचि व्याख्यान देने और विचारों के आदान प्रदान करने में थी। इसी कारण उन्होंने अपने कॉलेज में एक व्याख्यान-समिति बनाई थी और कई प्रतियोगिताओं का आयोजन भी किया था। पाश्चात्य विज्ञान तथा दर्शन का भी उन्होंने अध्ययन किया था। किशोरावस्था से ही नरेंद्र दार्शनिक एवं धार्मिक विचारों में तल्लीन रहते थे। एक दिन नरेंद्र रामकृष्ण परमहंस के पास पहुँचे और अपनी जिज्ञासा उन्हें कह सुनाई। रामकृष्ण परमहंस ने नरेंद्र को अपना शिष्य स्वीकार किया। 


स्वामी परमहंस के जीवन-दर्शन से विवेकानंद इतने प्रभावित हुए थे कि उन्होंने अपने गुरु के संदेश का प्रसार करना चाहा। जनता को सत्य की राह दिखाने के लिए सितंबर सन् 1893 को वे संयुक्त राज्य अमरीका गये। उस समय वहाँ शिकागो नगर में सर्वधर्म सम्मेलन हो रहा था। इस महासभा में विवेकानंद ने भारतीय धर्म और तत्वज्ञान पर भाषण दिया। उनका भाषण बड़ा गंभीर एवं हृदयस्पर्शी था। उनकी वाणी सुनकर श्रोतागण मुग्ध हो गये। कुछ समय तक वे अमरीका में ही रहे और अपने भाषणों द्वारा लोगों को त्याग और संयम का पाठ पढ़ाया। इसके बाद वे इंग्लैंड और स्विट्जरलैंड भी गये और वहाँ उन्होंने सत्य और धर्म का प्रसार कर भारत के गौरव को बढ़ाया। अनेक विदेशी स्वामीजी के शिष्य बन गये। उनमें से कुमारी मार्गरेट एलिज़बेथ का नाम उल्लेखनीय है, जो स्वामीजी की अनुयायिनी बनकर सिस्टर निवेदिता के नाम से संसार में प्रसिद्ध हुई। 

स्वामी विवेकानंद ने भारत में भी भ्रमण करके भारतीय संस्कृति और सभ्यता का सदुपदेश दिया। उन्होंने अंधविश्वासों तथा रूढ़ियों को हटाकर धर्म का वास्तविक मर्म समझाया। साधु-सन्यासी वर्ग को भी उन्होंने शांति प्राप्त करने का नया मार्ग जताया। वह था दीन-दुखी जनों की सेवा और महायता का मार्ग।

स्वामी विवेकानंद ने समाज सेवा को परमात्मा की सच्ची सेवा बतलाया। वे स्वयं भी समाज सेवा में लग जाते थे। सन् 1897 में प्लेग और अकाल से पीड़ित भारतवासियों की उन्होंने बड़ी तन्मयता से सेवा की थी। समर्थ लोगों को उन्होंने गरीबों की दशा सुधारने का संदेश दिया। इसी ध्येय से उन्होंने कलकते में 'रामकृष्ण मिशन' की स्थापना की। 

स्वामीजी ने अज्ञान, अशिक्षा, विदेशी अनुकरण, दास्य मनोभाव आदि के बुरे प्रभावों का बोध कराया। उन्होंने अपने भाषणों द्वारा जनता के मन से हीनता की भावना को दूर भगाने का प्रामाणिक प्रयत्न किया। अपने एक भाषण में उन्होंने कहा था - "प्यारे देशवासियो! वीर बनो और ललकार कर कहो कि मैं भारतीय हूँ। अनपढ़ भारतीय, निर्धन भारतीय, ऊँची जाति का भारतीय, नीच जाति का भारतीय - सब मेरे भाई हैं। उनकी प्रतिष्ठा मेरी प्रतिष्ठा है। उनका गौरव मेरा गौरव है।" 


4 जुलाई सन् 1902 को स्वामी विवेकानंद परलोक सिधारे। लेकिन आज भी उनके कार्य और संदेश अमर हैं। 

लेखक परिचय :

इस पाठ के लेखक डॉ. जगदीश चंद्र हैं। इन्होंने भारत के किशोर बालक बालिकाओं के समक्ष आदर्श प्रस्तुत करने के लिए अनेक महापुरुषों की जीवनियाँ लिखी हैं।