रविवार, 27 मार्च 2016

नयी कहानी और हरिशंकर परसाई

नयी कहानी और हरिशंकर परसाई

हरिशंकर परसाई कहानीकार के साथ–साथ उपन्यासकार, निबंधकार, कुशल रेखाचित्रकार, संस्मरण व रिपोर्ताज के लेखक तथा स्तम्भकार भी हैं। नयी कहानी विकास की जिस प्रक्रिया से गुजरी है, उसके बीज प्रेमचंद और यशपाल में विद्यमान थे। आज के कहानीकार के अनुभव असीमित हैं। उसमें एक नयी संवेदनशीलता और प्रतिबद्दता हैं। संपूर्ण मानवता और ऐतिहासिक परंपरा उनके लेखन में होती हैं।

हरिशंकर परसाई ने लिखा है “ हिन्दी में कहानी की एक पुष्ट, समर्थ और स्वस्थ परंपरा है और वर्तमान कहानी उसका एक विकसित रूप हैं”। पुरानी पीढी के साथ बौद्दकता की कमी नहीं थी, किंतु बदलते हुए परिवेश के साथ अपने बने–बनाये साँचों को तोडना नहीं चाहते थे। नयी कहानी के कथानक, चरित्र – चित्रण, वातावरण, पात्र, कथोपकथन, भाषा-शैली और उद्देश्य के बने-बनाये साँचों को तोड फेंका हैं। नयी कहानी का लेखक आज के यथार्थ को अपने ढंग से खोजता और अभिव्यक्त करता है। कहानी की परिभाषा को बदलकर झूठी मर्यादा और आदर्श को तोडता हैं। नयी कहानी मानवीय मूल्यों को रेखांकित करती हैं। इन कहानियों के पात्र सिर्फ अपनी ही नहीं, अपने समय और वातावरण की कहानी कहते हैं। बने-बनाये जड ढाँचों से नयी कहानी ने स्वयं को अलग किया या इन ढाँचों से अलग जो कहानियाँ लिखी गयीं उन्हें नयी कहानी कहा गया। इस संदर्भ में हरिशंकर परसाई लिखिते हैं – “ हम से पहले की कहानी का एक पूर्व–निश्चित चौखटा था, छंद शास्त्र की तरह उसके भी पैटर्न तय थे। पर जैसे नवीन अभिव्यक्ति के आवेग से कविता में परंपरागत छंद-बंदन टूटे, वैसे ही अभिव्यक्ति की माँग करते हुए नये जीवन प्रसंगों, नये यथार्थ ने, कहानी को उस चौखट से निकाला। आज जीवन का कोई भी खंड, मार्मिक क्षण, अपने में अर्थपूर्ण कोई भी घटना या प्रसंग कहानी के तंत्र में बँध सकता हैं”। नयी कहानी आंदोलन के दौड में जो कहानीकार अपने योगदान केलिये विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं, वे हैं कमलेश्वर, अमरकांत, भीष्म साहनी, हरिशंकर परसाई आदि।

“ जिन वर्गों के प्रति जनमानस में आक्रोश था, उन्हें कुछ लेखकों ने गहरे व्यंग से पेश किया। उन तमाम स्वार्थी वर्गें के प्रति एक तीव्र घृणा और हिराकत का दृष्टिकोण पैदा हुआ। हरिशंकर परसाई ने अकेले ही नेता वर्ग के आडंबर को अनावरित किया। केशवचंद्र शर्मा ने संस्थाऒं और व्यक्तियों की आंतरिक विसंगति को पकडा। शरदजोशी ने आदमी में उपज रहे दूसरे आदमी या उसके दोहरे व्यक्तित्व को उधेडकर रखा और श्रीलाल शुक्ल ने वर्तमान अफ्सरशाही को नश्तर लगाकर चीरा। जीजा-साली, सास-दामाद, पति-पत्नी के निहायत बेहूदे और भोडे मजाक के दायरे से निकलकर हास्य-व्यंग की रचनाऒं ने जनमानस की वाणी अख्तियार की”। यही तीव्र सामाजिक व्यंग्य आज की कहीनी की विशेष उपलब्धि है।

स्वातंत्रोत्तर हिन्दी कहानी ने कई मूल्यवान उपलब्धियाँ प्राप्त की हैं। नयी कहानी आंदोलन के रचनाकारों ने अपनी पूरी प्रतिभा और ईमानदारी से लेखन कार्य किया। इसके फलस्वरूप कहानी ने एक सम्मानजनक स्थान प्रप्त कर लिया। किन्तु सनू 1960 के बाद यह आंदोलन शिथिल पड गया। भरत पर चीन के आक्रमण के बाद परिस्थितियाँ बदलीं। फिर राष्ट्र भक्ति की लहर दौड गयी । उस समय के रचनाकार जो नयी कहानी आंदोलन के ही कहानीकार थे, समय के साथ अपने लेखन में परिवर्तन न कर सके।

परसाई ने भी उसी समय कहानियाँ लिखीं जब नयी कहानी आंदोलन शुरू हुआ था। किन्तु इस आंदोलन के भी अपने अन्तर्विरोध थे। मध्यवर्गीय कुण्ठा, एकाकीपन, विद्रोह और संवेदनहीनता की भावना में नये कहानीकार घिरे थे, तभी भोगे हुए यथार्थ, गहरी मानवीय संवेदना और अनुभव की प्रमाणिकता लेकर परसाई ने कहानी के क्षेत्र में प्रवेश किया। “ जब नयी कहानी में बकौल मुक्तिबोधः आधुनिक मानव की विविध मनोदशा को उसके सारे संदर्भों से काटकर, उसके सारे बाहूय सामाजिक – पारिवारिक संबंधों से काटकर, उस मनोदशा को अधर में लटकाकर चित्रित किया जा रहा था और कहानी में एक धुंध समा रही थी। भीतरी और बाहरी दोनों ओर, परिणाम स्वरुप वस्तु-सत्यों के संवेदनात्मक चित्रों का प्रायः लोप ही रहा था। तब परसाई ने समकालीन मनुष्य के भरसक विविधता-भरे, समग्र और संपूर्ण बिम्ब पेश किये।

अपने समय के सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक और सार्थक क्षेत्रों की सच्ची तस्वीर पेश कर सकने केलिए साहित्य के क्षेत्र में व्यंग्य एक महत्वपूर्ण सशक्त माध्यम हैं। व्यंग्य मन की गहराईयों तक पहुँचकर सोचने केलिए बाध्य करता है। परसाई ने बडी कुशलता से अपनी व्यंग्य कथाऒं में समकालीन विद्रूप की मुकम्मल तस्वीर पेश की है। इसलिए परसाई की कहानियों पर नकारात्मक और ऋणात्मक सोच की कहानियाँ का आरोप लगाया गया था। घनंजय वर्मा ने कहा है – “ कुछ आचार्य–आलोचकों ने उन्हें नकारात्मक योजना, पराजयका सचक्र और अकेलात्मक दृष्टि वाला घोषित किया था और नयी कहानी की कुछ नये प्रवक्ताऒं ने उन्हें मूलतः दुःखी प्रणी कहा था और उनके लेखन के पीछे उनकी व्यक्तिगतहीनता ग्रंथियों की सक्रियता देखी थी। शायद यही कारण रहा हो कि पिछले तीन दशकों के अब तक लगभग डेढ सौ से आधिक कहानियाँ लिखने के बावजूद परसाई अधिक चर्चा का विषय नहीं बने। इस बात को नामवर सिंह ने एक साक्षात्कार में उठाया भी हैं, “ मुझे अफसोस है कि मेरा ध्यान उस हद तक नहीं गया, परसाई जी तो व्यंग्य के लेख भी लिख रहे थे, लेकिन वे शुरू में कहानियाँ भी लिख रहे थे। उन्हीं आरंभिक दिनों की उनकी भोलाराम का जीव, भूत के पाँव पीछे, जैसे उनके दिन फिरे जैसी चीजें आई थीं, यध्यपि मैं उनकी चर्चा नहीं कर सका। उन दिनों, क्योंकि मैंने एक लंबी योजना बनायी थी और सोचा था कि कुछ कहानियों के इर्दगिर्द लेख लिखे जायें जो पूरी नहीं हो सकी।“

हरिशंकर परसाई की कहानियाँ समकालीन आलोचना केलिये एक चुनौती बन गयीं क्योंकि उन्होंने कहानी विधा के सभी साँचों को तोडा हैं। उनकी कहानियों में निबंध, संस्मरण, रेखाचित्र, आलेख आदि कई विधाऒं के मिले–जुले रूप भी दिखाई पडते हैं।